Thursday 18 December 2014

(2.1.1) Vyavasaay aur Nishtha

व्यवसाय  के प्रति निष्ठा

कार्य संसार को गतिमान बनाये रखता है। परिवार, समाज, राष्ट्र और संसार की उन्नति व्यक्तियों द्वारा किये गए कार्य पर ही निर्भर करती है। प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा किये गए कार्य का अपना अलग महत्त्व होता है। कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता, कार्य के प्रति व्यक्ति का सोच छोटा या बड़ा हो सकता है-कार्य नहीं। किसी नगर का मेयर उस नगर का प्रथम व्यक्ति होता है जिसका कार्य नगर का विकास करना होता है परन्तु कल्पना करिये उस नगर के सफाई कर्मचारी अपना कार्य नहीं करें तो पूरा नगर दुर्गन्ध से भर जाएगा और यही स्थिति कुछ दिनों और चलती रहे तो कैसा लगेगा। यह स्थिति यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि सफाई कर्मचारियों का कार्य किसी भी अन्य कार्यों से कम महत्वपूर्ण नहीं होता है। यही बात प्रत्येक व्यवसाय पर लागू होती है।      
अतः व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने व्यवसाय के साथ सही भावना जोड़े। उसे दिव्य निर्देश मानकर करें। व्यवसाय के प्रति श्रेष्ठ भावना चमत्कारी परिणाम प्रकट करती है। यही भावना व्यक्ति को जीवन में आगे बढाती है और उसे ज्यादा जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिये पृष्ठभूमि निर्मित करती है तथ अन्य व्यक्तियों के मन में सम्मान की भावना उत्पन्न होती है।
एक बार पहाड़ी पर रहने वाला एक पंद्रह वर्षीय बालक अपने भाई को कपडे में पीठ पर बांधकर पहाड़ी के ऊपर बने हुए उसके घर ले जा रहा था। मार्ग में मिले पर्यटक ने आगे झुककर चलते हुए उस बालक को देखा और पूछा  "तुम इस बोझ को कहाँ ले जा रहे हो ?" बालक ने उत्तर दिया "यह बोझ नहीं, मेरा भाई है।" घटना बहुत छोटी है परन्तु इसमें बड़ा सन्देश है कि हम किसी भी कार्य को बोझ समझकर नहीं करें। यह बात हमारी सफलता का मापदंड बनती है तथा कार्य को पूर्णता तक पहुंचती है।
कुछ कार्य ऐसे हो सकते है जो हमें उबाने वाले प्रतीत हों परन्तु उसी कार्य को उत्साह और उल्लास की भावना के साथ करें तो वही कार्य सरस बन जाता है। राजस्थान में, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं,  जब खेत पर कार्य करती हैं तो कार्य को सरस  बनाने के लिए सामूहिक रूप से गीत गाती हैं। इससे श्रम से भरा कार्य पिकनिक की तरह लगाने लगता है।
जब कोई व्यक्ति किसी कार्य को प्रसन्नता, निष्ठा और ईमानदारी से करता है तो उस कार्य के साथ गरिमा  और बड़प्पन जुड़ जाता है तथा कार्य करने वाले का महत्त्व बढ़ जाता है क्योकि महत्त्व का सम्बन्ध कार्यप्रणाली से होता है। कार्य चाहे कितना भी बड़ा या छोटा हो उसे जिस शक्ति , भावना और उत्साह के साथ किया जाता है इसी से व्यक्ति के उद्देश्य  की श्रेष्टता निर्धारित होती है। यही श्रेष्टता व्यक्ति के कार्य को उच्चता प्रदान करती है जिससे वह सामान्य व्यक्ति से अलग दिखने लगता है। इसके विपरीत कार्य चाहे कितना ही बड़ा हो यदि उसे हीन भावना और घटिया उद्देश्य के साथ किया जाए तो वह घटिया और गौरवहीन बन जाएगा और यही स्थिति उस कार्य के कर्ता की भी  होती है।

(3.1.4) Hanuman ji aur Sindur

हनुमान जी के तेल - सिंदूर क्यों लगाया जाता है?

हनुमान जी के  सिंदूर क्यों लगाया जाता है इसकेलिए दो कथाएं प्रचिलित हैं -
(1) एक दिन हनुमान जी को भूख लगी तो वे सीधे माता जानकी के समीप गये  और बोले, "माँ मुझे भूख लगी है।  मुझे खाने के लिए  कुछ दीजिए।  " " मैं स्नान करके तुम्हे मोदक देती हूँ।"
माता के वचन सुन कर हनुमान जी राम नाम का जप करते हुए जानकी के स्नान कर लेने की प्रतीक्षा करने लगे।  स्नान जे बाद जानकी ने अपनी मांग में सिंदूर लगाया। हनुमान जी ने पूछा , " माता जी आपने यह सिंदूर क्यों लगाया है ? " जानकी ने उत्तर दिया , " इस सिंदूर के लगाने से तुम्हारे स्वामी की आयु वृद्धि होती है।" "सिंदूर लगाने से मेरे स्वामी की आयु बढ़ती है।" हनुमान जी मन ही मन सोचने लगे। फिर वे अचानक उठे और अपने  शरीर पर तेल लगा कर सिंदूर पोत  लिया।  हनुमान जी बड़े खुश थे कि इस सिंदूर लेप से मेरे प्रभु  की आयु वृद्धि हो जाएगी। इसी स्थिति में हनुमान जी प्रभु श्री राम की राज सभा में पहुंच गए। उन्हें सिंदूर लेपा  हुआ देख कर वहां  जोर का अट्टहास हुआ। भगवान श्री राम भी मुस्कुरा उठे।  उन्होंने हनुमान जी से पूछा, "हनुमान, आज तुमने अपने  शरीर पर सिंदूर क्यों लेप रखा है ?"
हनुमान जी ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "प्रभो, माता सीता (जानकी) के तनिक सा सिंदूर लगाने मात्र से ही आपकी आयु में वृद्धि होती है, यह  जानकर आपकी अत्यधिक आयु वृद्धि  के लिए मैंने समूचे शरीर पर  सिंदूर लगाना प्रारम्भ कर दिया है।"  भगवान राम हनुमान जी के सरल भाव पर मुग्ध हो गए। उन्होंने घोषणा की, "आज मंगलवार है। इस दिन मेरे प्रिय  भक्त हनुमान जी को जो भी तेल और सिंदूर लगायेगा  उसे मेरी प्रसन्नता प्राप्त होगी और उसकी समस्त मनो कामनाओं की पूर्ति होगी।  "  (हनुमान अंक पेज 256 )
दूसरी कथा -
(2)  लंका विजय के बाद जब रामचन्द्र जी ने सुग्रीव आदि को पारितोषिक दिया था , उस समय सीता जी ने हनुमान जी  को  एक बहुमूल्य मणियों की माला दी थी।  परन्तु उस माला में श्री राम नाम नहीं होने से वे उदासीन ही रहे।  तब सीता जी ने उन्हें अपने सीमन्त का "सिंदूर" देकर कहा कि यह मेरा सौभाग्य चिन्ह है, इसको मैं  धन- धाम और रत्न आदि से भी अधिक प्रिय मानती हूँ , अतः तुम इसे स्वीकार करो।  " तब से हनुमान जी ने सिंदूर को अंगीकार कर लिया। इसी हेतु उपासक हनुमान जी की प्रतिमा के तेल मिश्रित सिंदूर का लेप करते हैं।   (हनुमान अंक पेज 487 )

Sunday 30 November 2014

(1.1.2) Aprapt ki Chahat

अप्राप्त की चाहत                           

(For English translation click here)
व्यक्ति प्राप्त वस्तु से संतुष्ट  नहीं रहता है। वह अप्राप्त वास्तु को पाना चाहता है। इसी चाहत से मानव-जाति ने प्रगति भी की है। परन्तु पाने की चाहत अनियंत्रित हो जाए तो यह विपरीत प्रभाव डालती है और दुःख का कारण बनती है। संसार अनन्त सुन्दर वस्तुओं से भरा पड़ा है। जब व्यक्ति किसी एक वस्तु को प्राप्त कर लेता है तो उसे किसी दूसरी वस्तु की कमी का अनुभव होने लगता है। यही क्रम निरंतर चलता रहता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति दुःख और निराशा का अनुभव करता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि किसी नयी वस्तु को पाने का प्रयास ही नहीं किया जाए बल्कि तात्पर्य यह है कि जो वस्तु पहले से ही हमारे पास है उसका श्रेष्ठ उपयोग करें।
 यदि  हम अपनी स्थिति पर विचार करें तो हमें अनुभव होगा कि हमारे पास जितना भी है उससे हमें संतोष नहीं है, बल्कि जो हमारे पास नहीं है उसे पाने के प्रयास में हम दुखी होते है और प्राप्त का सही उपयोग, उपभोग नहीं  करते   हैं । परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि अप्राप्त वस्तु को पाने के बाद हम सुखी हो जायेंगे और नयी वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रह जायेगी। अतः अपनी स्थिति पर संतोष करना ही सुखी होने का सर्वोत्तम उपाय है। व्यक्ति सुख पाने के प्रयास में अपने आप को धोखा देता है। वह सुख को अनावश्यक ही उलझन और ज टिलता से भरी हुई वस्तु बना देता है। जब कि सच्चा सुख सरलता, सादगी, मन की सहज और सकारात्मक भावनाओ में है।
"हम दूसरोंकी तुलना में ज्यादा अच्छी स्थिति में रहें" यही भावना हमारे मन में क्लेश और दुःख उत्पन्न करने वाली होती है। इसी भावना के कार ण  हमारा मन बैचेन और उदास रहने लगता है। हम हमारे पास बहुत कुछ होते हुए भी दूसरों से ज्यादा पाने या अच्छा करने की लालसा में अशांति और असंतुष्टि का अनुभव करते हैं। यही भावना ईर्ष्या और द्वेष जैसी नकारात्मक भावनाओ की जन्मदायिनी बन जाती है।  इसके अतिरिक्त हम कित ना  भी प्राप्त कर ले फिर भी किसी न किसी वस्तु का अभाव हमेशा रहेगा और यह स्थिति हमारे दुःख का कारण बनती है। अतः सुखी होने के लिए श्रेष्ठ यही है कि हम अपनी प्राप्त वस्तुओ का उत्तम से उत्तम उपयोग करें और उन्ही से संतुष्ट रहें न कि अप्राप्त वस्तुओं की चाहत में दुखी होवें ।

Saturday 29 November 2014

(3.1.3) Hanuman ji ka Janm ( Birth of Hanuman)


The Birth of Hanuman ji. / हनुमान जी का जन्म 

कपिराज केसरी अपनी पत्नी अंजना के साथ सुमेरू पर्वत पर निवास करते थे।  अंजना ने पुत्र की प्राप्ति के लिए सात सहस्त्र वर्षों तक भगवान् शिव की उपासना की।  प्रसन्न होकर आशुतोष ने अंजना से वर मांगने  के लिए कहा।  अंजना ने भगवान् शिव के चरणों में प्रणाम कर अत्यंत विनयपूर्वक याचना की - "करूणामय शम्भो, मैं समस्त गुणों से संपन्न योग्यतम पुत्र चाहती  हूँ। "
भगवान् भोले नाथ ने कहा, " एकादश रूद्र के रूप में मेरा अंश ग्यारहवां रूद्र रूप ही तुम्हारे पुत्र के रूप में प्रकट होगा। तुम मंत्र ग्रहण करो।  पवन देवता तुम्हे प्रसाद देंगे।  पवन के उस प्रसाद से ही तुम्हे सर्वगुण संपन्न पुत्र की प्राप्ति होगी।  भगवान् शिव अंतर्ध्यान हो गये और भगवती अंजना अंजली पसारे शिव प्रदत्त मंत्र का जप करने लगी।  उसी समय एक गृध्री कैकयी के भाग का पायस लिए आकाश में उड़ती जा रही थी।  सहसा झंझावात आया, गृध्री का अंग सिकुड़ने लगा और पायस उसकी चोंच से नीचे गिर गया। पवन देव ने उसे अंजना की अंजलि में डाल दिया।  भगवन शंकर पहले ही यह सब बता चुके थे। इसलिए अंजना ने तुरंत पवन प्रदत्त चरु अत्यंत आदरपूर्वक ग्रहण कर लिया और वे गर्भवती हो गयी।  
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार को भगवान् शिव अपने  आराध्या देव श्री राम की मुनि-महमोहिनी अवतार लीला के दर्शन एवं उसमें सहायता प्रदान करने के  लिए अपने अंश ग्यारहवें रूद्र से इस शुभ तिथि और शुभ मुहूर्त में माता अंजना के गर्भ से पवन पुत्र महावीर हनुमान के रूप में धरती पर अवतरित हुए।  
कल्प भेद से कुछ लोग इनका प्राकट्य काल चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में मानते है , कुछ कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को और कुछ कार्तिकी पूर्णिमा को पवन पुत्र का जन्म  मानते है। कोई मंगलवार तो कोई शनिवार उनका जन्म  दिन स्वीकार करतें है।  
भाग्यवती धरित्री पर हनुमान जी के चरण रखते ही माता अंजना और कपिराज केसरी के आनंद की तो सीमा नहीं रही।  देवगण ,ऋषिगण, कपिगण, पर्वत, प्रपात, सर, सरिता, समुद्र, पशु-पक्षी और जड़-चेतन ही नहीं, स्वयं माता वसुंधरा पुलकित हो उठी। सवत्र हर्ष एवं उल्लास फैला हुआ था।  चतुर्दिक  आनंद का साम्राज्य व्याप्त हो गया था।

(3.1.2) Aarti / Aarti Kya Hai

आरती / आरती क्या है ? (What is Aarti )


आरती शब्द का प्रयोग दो रूपों में किया जाता है।  १. हिन्दू पूजा के भाग के रूप में, २. गायन के रूप में। 
हिन्दू पूजा विधि में सोलह उपचार होतें है।  आरती भी उनमे से एक है।  किसी देवता के प्रति सम्मान व श्रृद्धा प्रकट करने के लिए लय बद्ध  गायन  के लिए भी 'आरती ' शब्द का प्रयोग किया जाता है।  आरती को 'आरात्रिका' या 'आरार्तिका' या 'नीराजन ' भी कहा  जाता है । 
Why is Aarti Performed ? (आरती क्यों की जाती है?)
आरती षोड्शोपचार पूजा का एक भाग है।  ऐसा मना माना जाता है कि किसी देवता की पूजा विधि पूर्वक करने के उपरान्त भी कोई त्रुटि रह सकती है। आरती से उस रही हुई त्रुटि की पूर्ति हो जाती है।  
स्कन्द पुराण के अनुसार -
"मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् पूजन हरे:।
सर्वे संपूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे।।
अर्थात मंत्र हींन  और क्रियाहीन  होने पर भी नीराजन  (आरती ) कर लेने से उसमे सारी पूर्णता आ जाती है। 
How is Aarti Performed ? (आरती कैसे की जाती है ?)
ढ़ोल, नगाड़े, शंख, घड़ियाल, आदि महावाद्यो तथा जय-जय कार शब्द के साथ घी से या कपूर से विषम संख्या में बत्तियां जलाकर आरती करनी चाहिए।  सामान्यतया पाँच बत्तियों से आरती की जाती है।  इसे "पंच प्रदीप "  कहते है। एक, सात या इससे अधिक बत्तियां जलाकर भी आरती की जा सकती है।  आरती के पांच अंग होते है।  प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुऐ वस्त्र से, चौथे आम या पीपल आदि के पत्ते से और पांचवे साष्टाँग दण्डवत से आरती की जाती है। आरती करते समय सर्व प्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाएं, दो बार नाभि देश में, एक बार मुख मंडल पर और सात बार समस्त अंगो पर घुमाएं।यथार्थ में आरती पूजा के अंत में इष्ट देव की प्रसन्नता हेतु की जाती है। इसमें इष्ट देव को  दीपक दिखाने के साथ ही उनका  स्तवन और गुणगान भी किया जाता है।
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(3.1.1) Prarthana (Prayer)

Prarthana Kya Hai (प्रार्थना क्या है ?)
प्रार्थना का लाभ क्या है ?

प्रार्थना  ईश्वर  के प्रति अंतर आत्मा   से निकली हुई पुकार है . इस पुकार में बनावटीपन  नहीं होता है . हृदय   की गहराई  से निकली  हुई पुकार कभी भी निष्फल नहीं होती क्योकि इसमें गहन आस्था और प्रबल विश्वास होता है . इसका परिणाम हमेशा सकारात्मक होता है . हमारे प्राचीन ग्रंथो में भक्तो के द्वारा  की गयीअंतर आत्मा  की पुकार और  ईश्वर द्वारा उस पुकार के प्रत्युतर के कई उदाहरण  है . जब ये पुकार द्रोपदी ,मीरा ,प्रहलाद , आदि के श्रद्धा ,आस्था व विश्वास  से भरे हृदय  से निकली तो भगवान ने उनकी सहायता की।
  जब व्यक्ति मन और वाणी को एक करके विश्वास के साथ किसी सकारात्मक  मनोकामना  के लिए प्रार्थना करता है तो ईश्वर  उस पवित्र ह्रदय से निकली हुई प्राथर्ना को स्वीकार करता है . प्रार्थना के माध्यम से व्यक्ति पर ईश्वरीय प्रेम और कृपा की  वृष्टि   होती है . यह कृपा वृष्टि  व्यक्ति को कष्टों से छुटकारा दिलाती है और सही मार्गदर्शन प्रदान करती है .
  यह सार्वभोमिक तथ्य है की जब व्यक्ति के लिए संपूर्ण मार्ग बंद हो जाते है तो केवल प्राथर्ना का मार्ग ही बचा रहता है .एशिया में ही नहीं बल्कि यूरोप और अमेरिका में भी प्राथर्ना को लेकर शोध किये गए है . जिन बीमार व्यक्तियों के लिए प्रार्थना की गयी उनकी शारीरिक और मानसिक व्याधिया तुलनात्मक रूप से शीघ्र दूर हुई है .
 प्रार्थना व्यक्ति की समस्याओ का विधेयात्मक   समाधान है।  प्रार्थना व्यक्ति के मन को नियंत्रित करती है। उसके चित्त की शुद्धि करती है, चेतना परिष्कृत और विकसित होती है। प्रार्थना देवत्व की अनुभूति का श्रेष्ठ माध्यम है। सच्ची श्रद्धा तथा विश्वास से युक्त प्रार्थना करने से ह्रदय में शान्ति की  धारा  प्रवाहित होती है तथा आत्मा में आनंद की वृष्टि होती है। व्यक्ति की शुभ और कल्याणकारी कामना अवश्य पूर्ण होती है। अंतःकरण को मलीन बनाने वाली कुत्सित भावनाओ तथा स्वार्थ एवं संकीर्णताओं से छुटकारा मिलता है। शरीर स्वस्थ तथा परिपुष्ट, मन सूक्ष्म तथा उन्नत और आत्मा पवित्र तथा निर्मल हो जाती है। दुःख के स्थान पर सुख का आनंद प्राप्त होता है। प्रार्थना व्यक्ति में यह भाव उत्पन्न करती है कि वह समस्या का सामना करने के लिए अकेला नहीं है बल्कि उसके साथ दिव्य शक्ति भी है।
भिन्न-भिन्न धर्म के अनुयायी भिन्न-भिन्न तरीकों से प्रार्थना करते हैं परन्तु सभी धर्मो में प्रार्थना का एक ही लक्ष्य है ईश्वर से निकटता, उसका सानिध्य, उसकी कृपा दृष्टि और उसका मार्गदर्शन प्राप्त करना। प्रार्थना करने के लिए किसी निश्चित औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है। प्रार्थना के लिए कुछ समय तक शांत होकर बैठे, अपने मन को ईश्वरीय सत्ता पर केन्द्रित कीजिये। सहज भाव से ईश्वर के अस्तित्व के बारे में सोचिये। ईश्वर से  सरल और स्वाभाविक तरीके से बात करिए क्योंकि उससे बात करने के लिए औपचारिक शब्दों की आवश्यकता नहीं है। प्रार्थना करते समय आश्वस्त होइए कि ईश्वर आपके साथ है और वह आपकी सहायता कर रहा है। वह आपकी ओर दिव्य शक्ति प्रवाहित कर रहा है, शुभाशीष दे रहा है तथा आपकी कल्याणकारी प्रार्थना को स्वीकार कर रहा है।
प्रार्थना का श्रेष्ठ समय प्रातःकाल है। प्रार्थना से दिन की शुरुआत करने से व्यक्ति के मन में उत्साह, उल्लास व आत्मविश्वास भर जाता है। लेकिन ईश वंदना करने का सबसे अच्छा समय होता है जब व्यक्ति का मन प्रार्थना करने का होता है। इस स्थिति में व्यक्ति ईश्वर के निकट होता है। दिन रात में किसी भी समय चाहे आप यात्रा कर रहे हो, अपना कार्य प्रारंभ कर रहे हो, कुछ क्षणों के लिए आप अपनी आँखें बंद कर लो और ईश्वर से सहज शब्दों में प्रार्थना करो इससे आपको ईश्वर की समीपता का आभास होगा और दिव्य ज्योति आपको सही मार्ग दिखाती हुई प्रतीत होगी। विशेष रूप से जब आप विपदा में हो और कोई अन्य उपाय नहीं सूझ रहा हो तो ईश्वर से की गयी प्रार्थना के परिणामस्वरूप दिव्यज्योति से निकली हुई आशा की किरण दिखाई देगी। इस किरण में सन्देश होगा कि जो मनुष्य के लिए असंभव है वह ईश्वर के लिए संभव है।
प्रार्थना के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि आप किसी कार्य के लिए प्रार्थना कर रहे है और ईश्वर आपकी प्रार्थना को स्वीकार कर रहा है लेकिन साथ ही  यह  संदेह या भय आपके मन में उत्पन्न हो जाए कि आपकी प्रार्थना अनसुनी रह जायेगी या इस प्रार्थना के अनुरूप कार्य नहीं होगा या प्रार्थना से कुछ भी नहीं होने वाला है तो निश्चित मानिए कुछ नहीं होगा तथा आपकी प्रार्थना व्यर्थ जायेगी। प्रार्थना का फल इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्रार्थना के अनुरूप कितने फल की आशा करते है। आपमें स्वयं पर, प्रार्थना पर और आराध्यदेव पर जितना ज्यादा विश्वास होगा प्रतिफल उतना ही ज्यादा  मिलेगा।

Tuesday 19 August 2014

(5.1.1) Sat Vachan (Seven Vows) in Hindu Marriage in Hindi



Saat Vachan (Seven Vows in Hindu Marriage) in Hindi  / हिन्दू विवाह में सात वचन (हिन्दी में)
( For English Translation CLICK HERE)
हिन्दू संस्कृति में विवाह संस्कार, सौलह संस्कारों में से एक है। विवाह के दौरान कई क्रियायें (रस्म ) होती हैं। सभी का अपना -अपना महत्व है। सात  वचन भी विवाह की  महत्वपूर्ण रस्म है।
समस्त पूजन , मधुपर्क , लाजाहोम तथा सप्तपदी हो जाने पर भी जब तक कन्या वर के बाँए अंग में ( बाँयी तरफ) आ कर नहीं बैठती है , तब तक वह कुमारी ही कहलाती है।
लेकिन जब तक वर कन्या के सात  वचन  स्वीकार नहीं करता तब तक कन्या वर के वांम अंग नहीं आती है,अत: वर कन्या से आग्रह करता है, "हे प्रिये , स्त्रियों की स्थिति पुरुष के वांम  भाग में मानी जाती  है। तुम्हारे भाई , मामा , माता - पिता की सहमति  से मेरे साथ तुम्हारा विवाह हुआ है। तुम उठो और मेरे बांये अंग में(बाँयी तरफ) बैठो और यदि मन में कोई विचार हो तो मुझे कहो।"
तब कन्या वामांग आने के लिए सात वचन मांगती है -

Thursday 14 August 2014

(5.1.2) How to know Name Sign (Naam Rashi) in Hindi


अपनी राशि जानिए Know your Rashi by name / How to know Rashi by name
(For English translation click here) 
भारतीय ज्योतिष के अनुसार किसी भी प्रकार के मुहूर्त यथा विवाह, गृह  निर्माण, गृह प्रवेश, नया व्यापार शुरू करना, वाहन खरीदना आदि के लिए  अन्य बातों के साथ  व्यक्ति की राशि (जन्म राशि / नाम राशि ) को भी  ध्यान में रखा जाता है।  इसी से चन्द्र शुद्धि देखी जाती है।यहाँ नाम राशि जानने का तरीका दिया हुआ है। 

राशि का निर्धारण नाम के प्रथम अक्षर के आधार पर किया जाता है। राशियों और उनसे सम्बंधित अक्षरों का विवरण इस प्रकार है -

१.  मेष राशि - चु, चे, चो , ला, लू, ले लो, अ। (इस राशि में 'ल' अक्षर की  पूरी बारहखड़ी (अर्थात 'ल' अक्षर से बनने वाले सभी अक्षर) तथा  अ, आ, अं, चु, चे, चो, चौ,अक्षरों को शामिल किया जाता है।)

(1.1.1) Vrind ke Dohe/ Dohe of Vrind in Hindi

वृन्द के दोहे (हिन्दी अर्थ सहित )

(For English translation click here)

(१) करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान। 
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।। 
भावार्थ :- कुए से पानी खींचने के लिए बर्तन से बाँधी हुई रस्सी कुए के किनारे पर रखे हुए पत्थर से बार -बार रगड़ खाने से पत्थर पर भी निशान बन जाते हैं। ठीक इसी प्रकार बार -बार अभ्यास करने से मंद बुद्धि व्यक्ति भी कई नई बातें सीख कर उनका जानकार हो जाता है।