अप्राप्त की चाहत
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व्यक्ति प्राप्त वस्तु से संतुष्ट नहीं रहता है। वह अप्राप्त वास्तु को पाना चाहता है। इसी चाहत से मानव-जाति ने प्रगति भी की है। परन्तु पाने की चाहत अनियंत्रित हो जाए तो यह विपरीत प्रभाव डालती है और दुःख का कारण बनती है। संसार अनन्त सुन्दर वस्तुओं से भरा पड़ा है। जब व्यक्ति किसी एक वस्तु को प्राप्त कर लेता है तो उसे किसी दूसरी वस्तु की कमी का अनुभव होने लगता है। यही क्रम निरंतर चलता रहता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति दुःख और निराशा का अनुभव करता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि किसी नयी वस्तु को पाने का प्रयास ही नहीं किया जाए बल्कि तात्पर्य यह है कि जो वस्तु पहले से ही हमारे पास है उसका श्रेष्ठ उपयोग करें।
यदि हम अपनी स्थिति पर विचार करें तो हमें अनुभव होगा कि हमारे पास जितना भी है उससे हमें संतोष नहीं है, बल्कि जो हमारे पास नहीं है उसे पाने के प्रयास में हम दुखी होते है और प्राप्त का सही उपयोग, उपभोग नहीं करते हैं । परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि अप्राप्त वस्तु को पाने के बाद हम सुखी हो जायेंगे और नयी वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रह जायेगी। अतः अपनी स्थिति पर संतोष करना ही सुखी होने का सर्वोत्तम उपाय है। व्यक्ति सुख पाने के प्रयास में अपने आप को धोखा देता है। वह सुख को अनावश्यक ही उलझन और ज टिलता से भरी हुई वस्तु बना देता है। जब कि सच्चा सुख सरलता, सादगी, मन की सहज और सकारात्मक भावनाओ में है।
"हम दूसरोंकी तुलना में ज्यादा अच्छी स्थिति में रहें" यही भावना हमारे मन में क्लेश और दुःख उत्पन्न करने वाली होती है। इसी भावना के कार ण हमारा मन बैचेन और उदास रहने लगता है। हम हमारे पास बहुत कुछ होते हुए भी दूसरों से ज्यादा पाने या अच्छा करने की लालसा में अशांति और असंतुष्टि का अनुभव करते हैं। यही भावना ईर्ष्या और द्वेष जैसी नकारात्मक भावनाओ की जन्मदायिनी बन जाती है। इसके अतिरिक्त हम कित ना भी प्राप्त कर ले फिर भी किसी न किसी वस्तु का अभाव हमेशा रहेगा और यह स्थिति हमारे दुःख का कारण बनती है। अतः सुखी होने के लिए श्रेष्ठ यही है कि हम अपनी प्राप्त वस्तुओ का उत्तम से उत्तम उपयोग करें और उन्ही से संतुष्ट रहें न कि अप्राप्त वस्तुओं की चाहत में दुखी होवें ।
व्यक्ति प्राप्त वस्तु से संतुष्ट नहीं रहता है। वह अप्राप्त वास्तु को पाना चाहता है। इसी चाहत से मानव-जाति ने प्रगति भी की है। परन्तु पाने की चाहत अनियंत्रित हो जाए तो यह विपरीत प्रभाव डालती है और दुःख का कारण बनती है। संसार अनन्त सुन्दर वस्तुओं से भरा पड़ा है। जब व्यक्ति किसी एक वस्तु को प्राप्त कर लेता है तो उसे किसी दूसरी वस्तु की कमी का अनुभव होने लगता है। यही क्रम निरंतर चलता रहता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति दुःख और निराशा का अनुभव करता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि किसी नयी वस्तु को पाने का प्रयास ही नहीं किया जाए बल्कि तात्पर्य यह है कि जो वस्तु पहले से ही हमारे पास है उसका श्रेष्ठ उपयोग करें।
यदि हम अपनी स्थिति पर विचार करें तो हमें अनुभव होगा कि हमारे पास जितना भी है उससे हमें संतोष नहीं है, बल्कि जो हमारे पास नहीं है उसे पाने के प्रयास में हम दुखी होते है और प्राप्त का सही उपयोग, उपभोग नहीं करते हैं । परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि अप्राप्त वस्तु को पाने के बाद हम सुखी हो जायेंगे और नयी वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रह जायेगी। अतः अपनी स्थिति पर संतोष करना ही सुखी होने का सर्वोत्तम उपाय है। व्यक्ति सुख पाने के प्रयास में अपने आप को धोखा देता है। वह सुख को अनावश्यक ही उलझन और ज टिलता से भरी हुई वस्तु बना देता है। जब कि सच्चा सुख सरलता, सादगी, मन की सहज और सकारात्मक भावनाओ में है।
"हम दूसरोंकी तुलना में ज्यादा अच्छी स्थिति में रहें" यही भावना हमारे मन में क्लेश और दुःख उत्पन्न करने वाली होती है। इसी भावना के कार ण हमारा मन बैचेन और उदास रहने लगता है। हम हमारे पास बहुत कुछ होते हुए भी दूसरों से ज्यादा पाने या अच्छा करने की लालसा में अशांति और असंतुष्टि का अनुभव करते हैं। यही भावना ईर्ष्या और द्वेष जैसी नकारात्मक भावनाओ की जन्मदायिनी बन जाती है। इसके अतिरिक्त हम कित ना भी प्राप्त कर ले फिर भी किसी न किसी वस्तु का अभाव हमेशा रहेगा और यह स्थिति हमारे दुःख का कारण बनती है। अतः सुखी होने के लिए श्रेष्ठ यही है कि हम अपनी प्राप्त वस्तुओ का उत्तम से उत्तम उपयोग करें और उन्ही से संतुष्ट रहें न कि अप्राप्त वस्तुओं की चाहत में दुखी होवें ।