Saturday 23 May 2015

(5.1.4) Solah Sanskaar in Hinduism (in Hindi)

Solah Sanskar  हिन्दुओं के सोलह संस्कार 


संस्कार किसे कहते हैं ?/ संस्कार क्या होते हैं ?
आद्य शंकर के अनुसार - " संस्कारो हि नाम संस्कार्यस्य   गुणांघानेन वा स्याद्योषाप नयनेन वा। " ( 1/1/4 ब्रह्म सूत्र भाष्य )अर्थात जिसका संस्कार किया जाता है , उसमें गुणों का आरोपण अथवा उसके दोषों को दूर करने के लिए जो कर्म किया जाता है , उसे संस्कार कहते हैं। गौतम धर्म सूत्र में कहा गया है कि , " संस्कार उसे कहते हैं , जिससे दोष हटते हैं और गुणों का उत्कर्ष होता है। "
सोलह संस्कार - 
जिस प्रकार विभिन्न प्रकार की मिट्टी को विधानानुसार संस्कारों द्वारा शोध कर उससे लोहा , तांबा, सोना आदि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त कर लेते हैं और जिस प्रकार आयुर्वेद रसायन बनाने वाले ओषधियों को कई प्रकार के रसों में मिश्रित कर उन्हें गजपुर , अग्निपुर विधियों द्वारा कई बार तपा कर संस्कारित कर उनसे चमत्कारी ओषधियों का निर्माण करते हैं , ठीक उसी प्रकार मनुष्य के लिए भी समय - समय पर विभिन्न आध्यात्मिक उपचारों का विधान कर उन्हें सुसंस्कृत बनाने की , अनघढ़ से सुदृढ़ बनाने की महत्पूर्ण पद्दति भारतीय तत्ववेत्ता ऋषियों ने विकसित की थी , इसी को षोडष (सोलह ) संस्कार नाम दिया है।
ये षोडष (सोलह) संस्कार इस प्रकार हैं - 1. गर्भाधान संस्कार 2. पुंसवन 3. सीमन्तोन्नयन। (ये प्रथम तीन संस्कार बालक के जन्म से पूर्व के संस्कार हैं।)
4. जातकर्म 5. नामकरण 6. निष्क्रमण 7. अन्नप्राशन 8. चूडा करण (मुंडन )9. कर्णवेध(ये छ: संस्कार जन्म के बाद बाल्यावस्था के हैं।)  10.विद्यारम्भ  11. उपनयन (यज्ञोपवीत )12. वेदारम्भ 13. केशान्त 14. समावर्तन 15. विवाह 16. अन्त्येष्टि संस्कार।
1. गर्भाधान संस्कार - यह प्रथम संस्कार है जो ऋतु स्नान के पश्चात का कर्तव्य है। भार्या के स्त्री धर्म में होने के सोलह दिन तक वह गर्भ धारण योग्य रहती है।
2. पुंसवन संस्कार - इसे गर्भस्थ  शिशु के समुचित विकास के लिए किये जाता है। प्राय:तीसरे माह से गर्भ में शिशु का आकार बनने लगता है तब यह संस्कार संपन्न किया जाता था । इस संस्कार में गर्भिणी स्त्री के दाहिने नासिका छिद्र में वट वृक्ष की छाल का रस छोड़ा जाता था। यह रस गर्भ पात के निरोध तथा श्रेष्ठ सन्तति के जन्म के निश्चय के उद्देश्य से छोड़ा जाता था।
3. सीमन्तोन्नयन संस्कार -गर्भाधान के अनन्तर छठे या आठवें माह में इस संस्कार को किया जाता है। राजस्थान में इस संस्कार को आठवाँ पूजन भी कहते हैं। इस संस्कार में प्रतीकों द्वारा माता को श्रेष्ठ चिंतन , अपने संस्कारों में शिशु के हित की कामना करते रहने की प्रेरणा दी जाती है।
4. जातकर्म संस्कार - यह संस्कार जन्म के तुरंत बाद संपन्न होता था। नाभि बंधन के पूर्व वेद  मन्त्रों के उच्चारण के साथ यह संपन्न होता था। अब सभी प्रसव अस्पतालों में होते हैं अत: इस संस्कार की उपयोगिता समाप्त हो गई है।
5.नामकरण संस्कार - सामान्यतया यह संस्कार जन्म के दसवें दिन संपन्न होता है। इसमें शिशु का नाम रखा जाता है। इस के लिए उसे शहद चटाया जाता है, सूर्य के दर्शन करा कर , भूमि को नमन कराया जाता है। फिर एक थाली में उस शिशु का नाम लिख कर , सबको दिखा कर आचार्य मन्त्रोंच्चारण के साथ उस नाम की घोषणा करते हैं।
6. निष्क्रमण संस्कार - शिशु के जन्म के तीसरे या चौथे माह में इसे संपन्न किया जाता था। इस संस्कार में सूर्य व नक्षत्रों का पूजन किया जाता था। अब इस संस्कार को नहीं किया जाता है।
7 . कर्णवेध संस्कार - इस संस्कार में शिशु के कानों में छिद्र किया जाता है। इस संस्कार  को शिशु के जन्म के छठे या सातवे या आठवें  माह में किया जाता है  या बाद में किसी भी विषम वर्ष में किया जाता है । अब इसका प्रचलन लगभग समाप्त हो गया है।
8. अन्नप्राशन्न संस्कार - शिशु के जन्म के छठे माह में किया जाता है। इसमें शिशु को प्रथम आहार ग्रहण कराने के साथ यह भावना की जाती है कि बालक हमेशा सुसंस्कारित अन्न ग्रहण करे।
9. चूडाकरण (मुंडन ) संस्कार - यह संस्कार जन्म के पश्चात प्रथम वर्ष या तृतीय वर्ष की समाप्ति के पूर्व किया जाता है। मुंडन किसी तीर्थ स्थान , देवस्थान पर किया जाता है  ताकि सिर से उतारे गए बालों के साथ निकले किसी भी प्रकार के कुसंस्कारों का तीर्थ चेतना द्वारा शमन हो सके तथा सुसंस्कारों की स्थापना हो।
10. विद्यारम्भ संस्कार - आयु के पांचवें वर्ष में , जब बालक का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता है तब इस संस्कार को  संपन्न किया जाता है। गणेश व सरस्वती के पूजन के माध्यम से यह संस्कार देने वाली विद्या तथा ज्ञानार्जन करने वाली कला उल्लास की देवी सरस्वती को नमन कर उनसे प्रेरणा ग्रहण करता है फिर विद्या देने वाले गुरु को बालक अभिवादन करता है और गुरु बालक को तिलक लगा कर आशीर्वाद देता है।
11.उपनयन (यज्ञोपवीत ) संस्कार - सामान्तया आठ -दस वर्ष की आयु में यह संपन्न किया जाता है। यज्ञोपवीत के धारण के साथ ही मनुष्य का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है।
12. वेदारम्भ संस्कार - बालक को गुरुकुल में वेदों की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजा  जाता था।
13. केशान्त संस्कार - यह संस्कार सिर के बालों को कटाने से सम्बंधित है। यह मुंडन संस्कार की तरह ही होता है। ब्राह्मण के लिए सोलह वर्ष , क्षत्रीय के लिए बाईस वर्ष और वैश्य के लिए चौबीस वर्ष की उम्र निर्धारित थी।
14. समावर्त्तन संस्कार - यह संस्कार गुरुकुल में बालक की औपचारिक शिक्षा की समाप्ति से सम्बंधित है। इस संस्कार के बाद गुरुकुल छोड़ कर व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है।
15. विवाह संस्कार -  इसमें पुरुष और महिला अपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई बन कर एक परिवार संस्था की नींव डालते हैं।
16.  अन्त्येष्टि संस्कार - शव को स्नान करा कर , संकल्प व पिण्ड दान कर के शव को शय्या पर रख कर श्मशान यात्रा प्रारंभ होती है। यज्ञीय कर्मकांड अन्त्येष्टि यज्ञ के रूप में संपन्न किया जाता है।

Friday 22 May 2015

(5.1.3) Yatra ki Safalata ke Upay (Tips for safe journey) in Hindi

Tips for a safe and successful journey सफल यात्रा के उपाय 

महत्वपूर्ण कार्य के लिए की जाने वाली यात्रा सिद्धि के लिए निम्नांकित उपाय अपेक्षित हैं -
*शुभ स्मरण एवं अभिवादन -
श्री गणेश, कुल देवता,इष्ट देवता आदि का ध्यान करके और राजा पृथु,श्री कृष्ण,श्री राम आदि का स्मरण करके तथा देवता,ब्राह्मण, गुरुजनों आदि को अभिवादन करके प्रस्थान करना चाहिए।  
* यात्रा के लिए प्रस्थान करते समय मन ही मन श्री तुलसीदासजी  कृत  निम्नांकित दोहे का शुभ स्मरण करना चाहिए-
राम लखन कौसिक सहित सुमिरहु करहु पयान।
लच्छि लाभ लै जगत जसु मंगल सगुन प्रमान।।
भावार्थ - श्री विश्वामित्र जी सहित श्री राम - लक्ष्मण का स्मरण करके यात्रा करो और लक्ष्मी का लाभ लेकर जगत में यश लो। यह शगुन सच्चा मंगलमय है।
* स्वर के अनुसार यात्रा की सफलता -
यात्रा हेतु प्रस्थान करते समय दायाँ या बायाँ जो भी स्वर चल रहा हो, उस समय दायाँ या बायाँ वही कदम पहले उठाएं जिस तरफ का स्वर चल रहा हो।
* मन की प्रसन्नता - 
समस्त शुद्धाशुद्ध तत्वों के समक्ष प्रस्थान कर्त्ता के चित्त की विशुद्धि सर्वोत्तम कही गई है, अतः यात्री की मानसिक निर्मलता अपेक्षित है।
* यात्रा का समय -
- ऊषा काल में प्रस्थान करना शुभ रहता है।
- बृहस्पति के मत के अनुसार अच्छे शकुन देख कर यात्रा करना शुभ रहता है।
- अंगिरा ऋषि के मत से मन की प्रबल इच्छा हो, तब प्रस्थान करना शुभ होता है।
- जनार्दन के मत के अनुसार यात्रा करने में विप्र वाक्य शुभ है।
- प्रस्थान करने के दिन पंचांग शुद्धि नहीं हो तो, अभिजित मुहूर्त इच्छित फल की सिद्धि करता है। लेकिन इस मुहूर्त में बुधवार को सभी दिशाओं की यात्रा वर्जित है तथा दक्षिण की यात्रा सर्वदा वर्जित है।
- यात्रा करना आवश्यक हो और पंचांग शुद्धि नहीं हो, तो शुभ, लाभ या अमृत के चौघडिये में यात्रयात्रा करना श्रेष्ठ है। अमृत का चौघड़िया ज्यादा अच्छा है।
- विजया दशमी को दिन में या सायं काल क्रियमाण यात्रा सदैव विजय प्रद होती है।

(1.1.5) Bhoutik Unnati - Aadhyaatmik Unnati

Material Progress and Spiritual Progress भौतिक उन्नति तथा आध्यात्मिक उन्नति
Bhoutik aur Aadhyatmik Unnati


आज की दुनियाँ भौतिक दृष्टि  से बहुत संपन्न है। मानव ने हर क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। उसने पृथ्वी   ही नहीं अन्य ग्रहों, उपग्रहों की जानकारी भी प्राप्त कर ली है। चिकित्सा, कृषि, यातायात,  डोर-संचार  आदि सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। आज सामान्य आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति को घर में जितनी सुविधाए प्राप्त है कुछ वर्षो पहले बड़े से बड़े सम्पन्न व्यक्ति को भी प्राप्त नहीं थी। सुविधा-साधनों के विकास के  लिए व्यापक प्रयास हो रहे है। फलस्वरुप सम्पन्नता व भौतिक सुख-सुविधाएं  बढ़ी हैं। 
ये सब भौतिक सुविधाएँ होते हुए भी मनुष्य बेचैन है, तनाव और अशांति का जीवन जी रहा है उसकी आत्मिक शक्ति क्षीण हो रही है। इससे लगता है कि भौतिक सुख-सुविधाए तथा संपत्ति आत्मिक शान्ति  व चैन के साधन नहीं हो सकते हैं क्योकि आत्मशान्ति खरीदने की वस्तु नहीं है। ऐसे व्यक्ति का दुखी होना संभव है जिसके पास काफी कुछ खरीदने के लिए पर्याप्त धन है। दूसरी तरफ जिसके पास धन की कमी है फिर भी उसका प्रसन्न और सुखी होना संभव है। आज सर्वाधिक धनवान देशो में लोग तुलनात्मक रूप से ज्यादा तनावग्रस्त है। पिछड़े हुए देशों  के लोगों  की अपेक्षा उन्हें जीवन का सामना करने में अधिक कठिनाई अनुभव होती है। उनके पास जो कुछ है उससे वे ऊब गए है और उन सब से बचकर किसी अन्य वस्तु की ओर भागना चाहते हैं। उनका दिशाहीन उद्देश्य है। वे बाहर से चमक-दमक वाले परन्तु आतंरिक रूप से दुखी तथा असंतुष्ट हैं । वे ऐसी वस्तु या स्थान को खोजते है जो उन्हें सुख, शान्ति और संतोष दे सके। 
परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं  है कि धन का अर्जन ही न किया जाए और भौतिक उन्नति होनी ही नहीं चाहिए। जीवन की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भौतिक उन्नति भी आवश्यक है। भारत प्राचीनकाल से ही शिल्प, कृषि, व्यापार, खगौल, औषधि निर्माण, रसायन-शास्त्र, आदि क्षेत्रों में उन्नति करता आया है। सूर्य ग्रहण तथा चन्द्र ग्रहण व अन्य ग्रहों की गतियों की गणना भारतीय मनीषियों ने वर्षो पहले ही कर ली थी जो आज के सन्दर्भ में भी सत्य है। यातायात के क्षेत्र में पुष्पक विमान तथा अस्त्र-शस्त्र के क्षेत्र में चमत्कारी आयुधों का उपयोग किया जाता रहा है।
आज के सन्दर्भ में भौतिक उन्नति की आवश्यकता और महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है। पूँजी, कुशलता, श्रम एवं सहयोग के आधार पर भौतिक उन्नति की जानी चाहिए क्योकि, सुविधापूर्वक जीने के लिए  भौतिक साधन-सामग्री की आवश्यकता होती है। कुछ अपवादों को छोड़कर वास्तविक धरातल पर देखे तो भूखा व्यक्ति न तो ईमानदार रह सकता है और न ही स्वस्थचित्त। इसलिए जीवन यात्रा की सुविधाएँ बढाने   के लिए भौतिक संपत्तियों का अर्जन आवश्यक है, परन्तु भौतिक उन्नति पर से आध्यात्मिक नियंत्रण उठा लिया जाए तो जो कुछ सांसारिक उन्नति होगी वह केवल मनुष्य की आपत्तियों को बढ़ाने का कारण बनेगी। 
सांसारिक संपत्तियां उपार्जित करना जिस प्रकार आवश्यक समझा जाता है उसी प्रकार आत्मिक पूँजी बढाने   का प्रयत्न भी निरंतर जारी रखना चाहिए। दोनों क्षेत्रो में साथ-साथ संतुलित विकास होगा तभी स्वस्थ उन्नति होगी व वास्तविक सुख की अनुभूति होगी। जितना प्रयत्न सांसारिक वस्तुओ से लाभ उठाने में किया जाए उतने प्रयत्न आत्मोन्नति के लिए भी किया जाना चाहिए। आत्मिक शान्ति नहीं हो तो सांसारिक भौतिक वस्तुओं से कोई वास्तविक लाभ नहीं उठाया जा सकता है। भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति का समन्वय ही जीवन में सुस्थिर शान्ति की स्थापना कर सकता है। दोनों ही पक्षों का संतुलित विकास मनुष्य को पूर्णता प्रदान करता है। सामान्यतया व्यक्ति अपनी भौतिक उन्नति के लिए सम्पूर्ण शक्ति लगा देता है और असफल होने पर दुखी होता है। यह स्वाभाविक भी  है परन्तु उसे सफलता मिल भी गयी तो भी उसके जीवन में दुःख और असंतोष बने रहते हैं। इसका कारण है उसके जीवन के आध्यात्मिक पक्ष का उपेक्षित रहना क्योंकि इस पक्ष की उपेक्षा से जीवन में असंतुलन उत्पन्न होता है जो दुःख और असंतोष को जन्म देता है। दोनों पक्षों में संतुलन स्थापित करता वर्तमान युग की आवश्यकता है। 
कुछ निश्चित नियमो व संकल्पों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति भौतिक व आध्यात्मिक क्षेत्र में समन्वय स्थापित करके उच्च लक्ष्य प्राप्त कर सकता है:- 
1. अपनी निष्ठा एवं धर्म के अनुसार प्रतिदिन अपने इष्टदेव से प्रार्थना करें। 
2. गृहस्थ धर्म का पालन करें। 
3. पारिवारिक जीवन में स्नेह  रखें। 
4. अपने व्यवसाय व कर्तव्य को निष्ठापूर्वक करें। 
5. सद् ग्रंथों का अध्ययन करें, धार्मिक चर्चा करें व सुने तथा प्रार्थना करें। 
6. मुसीबत व कष्ट के समय हिम्मत नहीं हारे, आत्मविश्वास सुदृढ़ रखें।
7. सकारात्मक सोच विकसित करें। 
8. मित्रता, सदाशयता तथा परोपकार की भावना रखें।
ये संकल्प अन्तःचेतना को उत्कृष्ट बनाते हैं। यदि व्यक्ति की चेतना निकृष्ट स्तर   की बनी रहे तो धनी व समर्थ होते हुए भी उसे निरंतर असंतोष एवं विक्षोभ की आग में जलते रहना होगा। अतः मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा, सबसे बड़ी सफलता उसका आत्मिक उत्कर्ष है। इसी से व्यक्ति महान बनता है। भले ही उसके पास भौतिक साधन कम हो पर उसके स्थान पर जो आत्मिक संपत्ति उसके पास संग्रहीत रहती है वह क्षणभंगुर संपत्तियों की तुलना में हजारों लाखो गुणा हर्षोल्लास, गौरव तथा वर्चस्व प्रदान करती है। ऐसा व्यक्ति  जहाँ  भी रहता है वहीं उत्कृष्ट वातावरण उत्पन्न करता  है . उसके भीतर की सुगंध चन्दन वृक्ष की तरह दूर-दूर तक फैलती है। अतः भौतिक पक्ष के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति अतिआवश्यक है।

(1.1.4) Ved Vaakya (Quotations from Vedas) in Hindi


  Quotations from the Vedas in Hindi 
1.उन्नति उसकी होती है , जो प्रयत्नशील है। भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले सदा दीन - हीन ही रहेंगे।
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2.याद रखिये , यह जीवन हँसते - खेलते जीने के लिए है। चिंता , भय , शोक , क्रोध , निराशा आदि में पड़े रहना महान मूर्खता है।
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3.मनुष्य जीवन श्रेष्ठ और बड़ा बनने के लिए है। मनुष्य का यह  जीवन दिनों को व्यर्थ नष्ट  करने के लिए नहीं , वरन कुछ महान कार्य करने के लिए दिया गया है। हमें चाहिए कि सदा उन्नति और प्रगति की ओर कदम रखें , ऊँचे उठते रहें।
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4.श्रेष्ठ बनना (किसी दिशा में बडप्पन प्राप्त करना ) ही महान सौभाग्य है। जो महापुरुष बनने के लिए प्रयत्नशील हैं , वे धन्य हैं।
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5.जो तुम्हारे बराबर वाले हैं , उनसे आगे बढ़ो। श्रेष्ठों तक पहुँचो। मूर्खों से अपनी तुलना  मत करो, बुद्धिमानों का आदर्श ग्रहण करो।
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6.जिनके व्यवहार , क्रिया और संभाषण में मधुरता होती है ,उन्हें सभी स्नेह करते हैं। संसार में शुभ कर्म एवं उपकार वही करते हैं जिनका स्वभाव मधुर होता है।
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7.अपने गुप्त मन के सब दुर्भावों , मनोविकारों और कुवासनाओं को निकाल बाहर करो। बाहरी शत्रु उतनी हानि नहीं कर सकते हैं , जितनी आंतरिक शत्रु करते हैं।
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8.जो परम सुख चाहने वाला हो उसे संतोषी होना चाहिए,  क्योंकि संतोष ही समस्त सुखों का मूल है।
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9.यह संसार देवताओं का प्यारा लोक है। यहाँ भला पराजय का क्या काम?
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10.इसे अपना आदर्श वाक्य बनाओ , "मैं शक्ति केन्द्र  हूँ। जीवन में कहीं  भी मेरी पराजय नहीं हो सकती। "
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11.सदा ऊँचा उठने की बात कीजिये। नीचे गिरने की बात  कभी मत सोचिये।
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12.यह जीवन बहुमूल्य है तथा संघर्ष और निरंतर उन्नति के लिए बना है।
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13.सदैव उन्नति कीजिये। अवनति भूल कर भी मत होने दीजिये।गिराने वाले नहीं , जिंदगी को उत्तरोत्तर उठाने वाले पुष्ट विचारों और सत्कार्यों को अपनाइये।
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14.जीवन के किसी भी क्षेत्र में शिथिलता और अनुत्साह ठीक नहीं। याद रखिये , अकर्मण्यता और निराशा एक प्रकार की नास्तिकता है।
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15. इस संसार सागर में उद्योगी ही पार होते हैं। पुरुषार्थ विहीन व्यक्तियों  की नाव बीच में ही डूबती है।

16. उत्साही और आशा वादी का ही साथ दीजिये। उन कायरों को दूर रखिये जो आप को डरपोक बनाते हैं और भविष्य को निराशा जनक बनाते हैं।
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17. याद रखिये , वीर भुजाओं पर ही इस संसार  की सफलता आश्रित है।
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18. अपने पर भरोसे जैसी दूसरी कोई शक्ति नहीं है। उसे निरन्तर विकसित कीजिये।
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19.  क्या उचित है और क्या अनुचित है, यह विचार कर जरुरी कार्य पहले कीजिये। इसके लिए विशुद्ध विवेक का आश्रय ग्रहण कीजिये।
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20. धन , पद , श्री और समृद्धि की प्राप्ति न्याय पूर्ण आचरण से होती है। अधर्म से कमाया कमाया धन, कमाने वाले की इज्जत , सम्मान , यश और प्रतिष्ठा के लिए विनाशकारी होता है।
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21. पुरुषार्थी  के लिए कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं है।
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22. श्रेष्ठ बनना ही महान सौभाग्य है। जो महानता खोजने और महापुरुष बनने के लिये प्रयत्नशील है , वही वास्तव में धन्य है।
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23.जिसका अज्ञान दूर होगा , वही पाप से छूटेगा।पाप का प्रधान कारण आत्म ज्ञान का अभाव है।
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24 मानव स्वयं ही अपना भाग्य विधाता होता है। स्वात्मशक्ति के यथा विधि सदुपयोग से ही वह अतुल ऐश्वर्याधिकारी हो सकता है।
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25. मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है, तो मेरे बाएँ हाथ में जय निश्चित है।
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26. देवता अथक परिश्रमी की ही सहायता करते हैं और उसे चाहते हैं जो आलसी नहीं हो।
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27.शक्तिमान शरीर में ही बलवान आत्मा निवास करती है। बलवान शरीर से समस्त धर्म- कर्म पूर्ण हो सकते हैं।
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28. अतुलित शौर्य और असीम बुद्धि धारण करो।जहाँ अदम्य साहस और दूरदर्शिता है , वहाँ  सब कुछ है। 
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Thursday 21 May 2015

(1.1.3) Safalata Prapti ke tareeke /(How to get success)

Success through spiritual ways / Safalata ke upaay



इस आपधापी के युग ने जो भौतिक साधनों से संपन्न है तथा जिसने मनुष्य का यंत्रीकरण कर उसकी सोच को  भौतिकवादी बना दिया है। परिणामस्वरूप व्यक्ति अति महत्वकांक्षी बन गया है। यद्यपि महत्वाकांक्षा   का अपना महत्त्व है तथा उच्च महत्वाकांक्षा रखना उन्नति का प्रतीक है। परन्तु आधुनिक   व्यक्ति अति महत्वकांक्षी होते जा रहे हैं। देखा-देखी लम्बी छलांग लगाने का प्रयास करते हैं और असफल होते हैं। महत्वाकांक्षा की पूर्ति और उसके लिए किये गए प्रयास तथा आवश्यक साधन के बीच तालमेल होना आवश्यक है और इससे बढकर बात है महत्वाकांक्षा की पूर्ति नहीं होने पर लगने वाले मानसिक आघात को सहन करने की क्षमता का होना। एक अन्य कमी जो वर्त्तमान में देखने को मिलती है वह है महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए छोटा रास्ता अपनाना जबकि सफलता एक निश्चित मार्ग का अनुकरण करके ही प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए संकल्प, दृढ इच्छाशक्ति व ठोस सकारात्मक कार्य योजना की आवश्यकता है।
 इसके लिए  निम्नांकित कदम को अपनाने की आवश्यकता हैं:-
- आओ, ईश्वरप्रदत्त दिव्य शक्तियों का प्रवाह अपने भीतर अनुभव करें।
- आओ, प्रकाश की ओर चलें।
- आओ, अपना उद्धार स्वयं करें।
- आओ, जहाँ खड़े हैं उस स्थान से आगे बढ़ें।
- आओ, स्वयं पर विश्वास करें।
- आओ, जीवन के सुख-दुःख दूसरों के साथ बाटें।
- आओ, अभावों और कठिनाइयों को सफलता की सीढियां बनायें।
- आओ, सकारात्मक सोच के साथ एक प्रफुलित और शुभ आशाओं से परिपूर्ण जीवन जीयें।