Thursday 29 September 2016

(8.5.4) Mohini Ekadashi Vrat / मोहिनी एकादशी व्रत

मोहिनी एकादशी व्रत /मोहिनी एकादशी व्रत विधि/ मोहिनी एकादशी व्रत महत्व

मोहिनी एकादशी -
वैसाख शुक्ल एकादशी को मोहिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इसके व्रत से मोहजाल और पाप दूर होते हैं। 
यह व्रत तीन दिन में पूर्ण होता है -
- दशमी तिथि को केवल एक समय प्रातः काल ही भोजन किया जाता है। 
- एकादशी तिथि को उपवास रखा जाता है ,अर्थात दोनों वक्त भोजन नहीं किया जाता है।
- द्वादशी को स्नान आदि के बाद दान आदि दे कर, ब्राह्मण को भोजन करा कर व्रती के द्वारा भोजन किया जाता है।  
मोहिनी एकादशी व्रत का महत्त्व -
इस एकादशी का व्रत करने से मोह जाल और पाप दूर होते हैं। 
भगवान श्री रामचन्द्रजी ने इस व्रत को सीता जी की खोज करते समय किया था। 
कौण्डिन्य के कहने से धृष्टबुद्धि ने यह व्रत किया था। 
श्री कृष्ण के कहने से युधिष्ठिर ने यह व्रत किया था। 
मोहिनी एकादशी से जुडी कथा (संक्षेप में) -
प्राचीनकाल में सरस्वती नदी तटवर्ती भद्रावती नगरी में द्युतिमान के पाँच पुत्र थे। जिनके नाम थे -सुमन, सुद्युम्न,मेधावी, कृष्णाती और धृष्टबुद्धि। इनमें से धृष्ट बुद्धि  का कुसंग से पतन हो गया और वह धन - धन्य - सम्मान तथा गृह आदि से हीन हो गया और हिंसा वृत्ति में लग गया। इस दुर्गति से उसने अनेक अनर्थ किये। कौण्डिन्य ने उसे मोहिनी एकादशी का व्रत करने के लिए कहा।  धृष्टबुद्धि ने यह व्रत किया।  इस व्रत के प्रभाव से वह पूर्ववत सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा।

(8.7.4) Guru Poornima / Vyas Purnima

Guru Purnima / Vyas Poornima / Importance of Guru Purnima / गुरु पूर्णिमा / व्यास पूर्णिमा / गुरु पूर्णिमा का महत्व 

गुरु तथा गुरु पूर्णिमा का महत्व -
भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक गुरु को बहुत महत्त्व व सम्मान दिया जाता रहा  है। प्राचीन काल में शिक्षा प्राप्ति  के साधन व स्थान सीमित थे। उस समय विद्यार्थी गुरुकुल में जाकर जीवनोपयोगी शिक्षा प्राप्त करते थे तथा गुरु भी अपने विद्यार्थियों को श्रेष्ठ  शिक्षा  करते थे। निम्नांकित श्लोक व दोहा बताते हैं कि गुरु को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था - 
1 गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु , गुरुर्देवो महेश्वर:।
  गुरुर्साक्षात परब्रह्म , तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
2 गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काकै लागूँ पाय।
  बलिहारी गुरु आपकी , गोविन्द दियो बताये।।
गुरु पूर्णिमा के बारे में महत्वपूर्ण बातें :-
(१ ) गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा प्रति वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को आयोजित की जाती है।
(२) इस दिन शिष्य गण अपने - अपने गुरु के पास जाते हैं  , उन्हें कुछ भेंट करते हैं  और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
(३) ऐसा विश्वास है कि महर्षि वेद  व्यास , जिन्होंने कई ग्रंथों की रचना की थी , का जन्म आषाढ़  शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। उनके जन्म दिवस की स्मृति में इस तिथि को गुरु पूर्णिमा या व्यास  पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। 
(४) चतुर्मास की अवधि भी इसी दिन शुरू होती है। पुरातन समय में सन्यासी अपने शिष्यों  के साथ भ्रमण करते थे और आध्यात्मिक व धार्मिक प्रवचन देते थे। वे चार माह की अवधि में , जिसे चतुर्मास कहा जाता है, किसी एक स्थान पर रुकते थे। 
(५) गौतम बुद्ध ने इस दिन सारनाथ में अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसकी स्मृति में बुद्ध धर्म के अनुयायी गुरु पूर्णिमा मनाते हैं। 

(8.7.3) Magh Purnima / Maghi Poornima

Magh Poornima / Maghi Poornima / Importance of Magh Purnima / माघ पूर्णिमा / माघ पूर्णिमा का महत्व 

माघी पूर्णिमा - 
माघ शुक्ल पूर्णिमा को माघी पूर्णिमा या माघ पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है।
माघी  पूर्णिमा के बारे में महत्वपूर्ण बातें -
माघ मास की पूर्णिमा का धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है।
माघ शुक्ल पूर्णिमा को प्रात: स्नान आदि के बाद विष्णु का पूजन करें, पितरों का श्राद्ध करें, असहायों को भोजन, वस्त्र और आश्रय दें, तिल, कम्बल, कपास, गुड़, घी, मोदक, फल और सामर्थ्य  का दान करें।
व्रत या उपवास करें, कथा सुने और ब्राह्मणों को भोजन कराये।  यह अत्यंत फलदायी होते हैं।
इस तिथि को गंगा स्नान या अन्य पवित्र नदी या जलाशय में स्नान करने से भव बाधाएं दूर हो जाती हैं। वैसे तो माघ स्नान तीस दिन में पूर्ण होता है , परंतु  इतना नहीं कर सके तो माघ शुक्ल त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा के अरूणोदय स्नान करके व्रत करे तो सम्पूर्ण माघ स्नान का फल मिलता है।
माघ शुक्ल पूर्णिमा को को मेष का शनि, सिंह के गुरु -चन्द्र और श्रवण का सूर्य हो तो इनके सहयोग से महामाघी संपन्न होती है।  इसमें स्नान दान आदि जो भी किये जायें , उनका अमित फल मिलता है।  

(8.1.8 Dhan Teras / Dhan Trayodashi

Dhan Teras / Dhan Trayodashi / धन तेरस ( दीपावली पर्व का प्रथम पर्व ) /धन तेरस की परम्पराएं तथा पूजा  

दीपावली का पर्व पाँच दिन  तक चलता है जिसमें 1. धन तेरस 2. नरक चतुर्दशी / रूप चतुर्दशी 3. लक्ष्मी पूजन 4. अन्न कूट / गोवर्धन पूजा 5. भाई दूज पर्व आयोजित किये जाते हैं।
इस प्रकार धन तेरस या धन त्रयोदशी पाँच दिन तक चलने वाले दीपावली पर्व का प्रथम पर्व है। यह कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को आयोजित किया जाता है। 
इस दिन मृत्यु के देवता यमराज , देव चिकित्सक धन्वन्तरी  और कुबेर की पूजा की जाती है।
यम दीपदान -
स्कन्द पुराण के अनुसार कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को सांय काल के समय किसी पात्र में मिट्टी  के दीपक रखकर उनमें तिल का तेल डालकर नई रुई की बत्ती रखें और उन दीपकों को  जलायें । फिर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके " मृत्युना दण्ड पाशाभ्याम कालेन श्यामया सह। त्रयोदश्यां दीप दानात सूर्यज: प्रीयतां मम।। मंत्र बोल कर दीपों का दान करें  तो इससे यमराज प्रसन्न होते हैं । दीपदान के लिए प्रदोष काल का समय श्रेष्ठ है। ( यह समय ऊपर लिखा हुआ है)
 धन्वन्तरी  पूजा -
पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान धन्वन्तरी  अमृत कलश हाथ में लेकर समुद्र से उत्पन्न हुये थे। वे देव चिकित्सक हैं । उनकी इस दिन पूजा की जाती है।
कुबेर पूजा - 
धन तेरस के दिन धन के देवता कुबेर की भी पूजा की जाती है। इसका श्रेष्ठ समय प्रदोष काल है।
परम्परायें - धन तेरस के दिन नई वस्तुएं खरीदना शुभ माना जाता है। विशेष रूप से सोने और चाँदी से बनी हुई वस्तुएं। यदि यह खरीदना संभव नहीं हो तो नए बर्तन खरीदना भी शुभ माना जाता है। यूँ तो पूरा दिन ही खरीददारी के लिए शुभ है फिर भी चौघडिया तथा अभिजित मुहूर्त के अनुसार खरीददारी की जा सकती है।

(8.7.2) Purnima Vrat dates / When is Purnima / poornima kab hai?

When is Poornima / Poornima dates / पूर्णिमा कब है ?When is Purnima this year ?

पूर्णिमा तथा अमावस्या तिथियाँ सनातन धर्म के अनुसार पवित्र मानी जाती हैं।  प्रत्येक अमावस्या तथा पूर्णिमा को व्रत तथा उत्सव आयोजित होता है। पूर्णिमा को पूर्ण चन्द्रमा का और सूर्य का तथा विष्णु रूप सत्यनारायण का व्रत किया जाता है। पूर्णिमा के दिन किये गए दान - पुण्य, तीर्थ स्नान और पुराण आदि के श्रवण का बहुत फल मिलता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार शुक्ल पक्ष का अंतिम पूर्णिमा होता है  . प्रति मास एक पूर्णिमा तिथि आती है।  इस प्रकार कुल बारह पूर्णिमा आती हैं।
इस वर्ष आने वाली पूर्णिमा तिथि का महीने वार दिन और दिनांक जानने के लिए
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(8.7.1) Poornima Tithi / Purnima Ka Mahatva/ Importance of Purnima

Purnima Tithi ka Kya Mahatv Hai ? Importance of Poornima in Hinduism / पूर्णिमा तिथि / पूर्णिमा का महत्त्व

पूर्णिमा तिथि के बारे में महत्वपूर्ण बातें -
पूर्णिमा तिथि हिन्दू धर्म में शुभ तिथि मानी जाती है।
प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहा जाता है।
एक वर्ष में बारह बार पूर्णिमा तिथि आती है।  जिस वर्ष अधिक मास हो, उसमें तेरह बार पूर्णिमा आती हैं।
पूर्णिमा का स्वामी चन्द्रमा है।
पूर्णिमा को पूर्णा तिथि माना जाता है।
पूर्णिमा का व्रत सभी प्रकार के सुख तथा सम्पदा दिलाने वाला माना जाता है।
मास वार पूर्णिमा तथा उनका महत्व -
चैत्री पूर्णिमा - इस दिन हनुमान जी का जन्म मनाया जाता है। इसी दिन वैसाख स्नान प्रारम्भ होते हैं।
वैसाखी पूर्णिमा - इस पूर्णिमा को बुद्ध जयन्ती मनाई जाती है।  इस पूर्णिमा को पीपल पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। वैसाख स्नान पूर्ण होता है।
ज्येष्ठ पूर्णिमा - इस दिन  सावित्री व्रत (पूर्णिमा पक्ष ) किया जाता है।
आषाढ़ पूर्णिमा - इसे व्यास जयंती तथा गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
श्रावण पूर्णिमा - इस दिन रक्षा बंधन का त्यौंहार मनाया जाता है।  पितृ तर्पण तथा ऋषि पूजन किया जाता है।
भाद्रपद पूर्णिमा - इस दिन से श्राद्ध पक्ष प्रारम्भ होता है।
आश्विन पूर्णिमा -  इसे शरद पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
कार्तिक पूर्णिमा - भीष्म पंचक व्रत तथा कार्तिक स्नान पूर्ण होता है।
मार्गशीर्ष पूर्णिमा -
पौष पूर्णिमा - माघ स्नान प्रारम्भ होता है।
माघ पूर्णिमा - माघ स्नान पूर्ण होता है।
फाल्गुन पूर्णिमा - होली पर्व।  होलिका दहन किया जाता है। होलाष्टक पूर्ण होते हैं। 

Wednesday 28 September 2016

(7.1.6) What is Bhadra / Bhadra Kya hai

Bhadra / Vishti Karan / भद्रा / विष्टि करण 

भद्रा क्या है/ ज्योतिष में भद्रा किसे कहते हैं ? (For English translation click here )
विष्टि नामक करण को ही 'भद्रा' कहा जाता है।  इस  करण को अशुभ माना जाता है। इसलिए सभी शुभ कार्यों  में इसका  त्याग करना चाहिए।
भद्रा की उत्पत्ति -  
देवासुर संग्राम के समय भगवान शंकर  ने अपने शरीर पर दृष्टि पात किया, परिणाम स्वरूप एक भयंकर रूप वाली देवी प्रकट हुई। इस देवी ने सभी असुरों का संहार कर संग्राम में विजय दिलाई। देवताओं ने इसे 'भद्रा' नाम से संबोधित किया तथा इस देवी को 'करण' के रूप में स्थान दे दिया।
भद्रा वास -
1. कुंभ, मीन , कर्क व सिंह का चन्द्रमा हो तो भद्रा का निवास मृत्यु लोक में होता है।
2. मेष , वृषभ , मिथुन , वृश्चिक का चन्द्रमा होने पर भद्रा का निवास स्वर्ग लोक में होता है।
3. कन्या , तुला , धनु व मकर का चन्द्रमा होने पर भद्रा का निवास पाताल लोक में होता है।
( सन्दर्भ - ज्योतिष तत्व प्रकाश पेज 40 के अनुसार )
भद्रा वास फल -
भद्रा का वास स्वर्ग लोक में हो तो शुभ कार्य करती है। पाताल में हो तो धन प्राप्ति कराती है।भद्रा का वास मृत्यु लोक में हो तो सब कार्यों का नाश करती है। (अच्छा तो यह है कि भद्राकाल के दौरान कोई शुभ कार्य नहीं किया जाये ।
भद्रा के दौरान किये जाने वाले कार्य :-
बंधन , विष ,आग लगाना ,हथियार बनाना ,उच्चाटन करना आदि कर्म और घोड़ा ,भैंस ,ऊँट विषयक कार्य सिद्ध होते हैं।
युद्ध कार्य में ,राज दर्शन में ,भय ,वन घात ,वैद्यागमन ,तैरना ,गाड़ी आदि कार्यों में भद्रा को ग्रहण किया जाता है।
रक्षा बंधन ,होलिका दहन तथा भद्रा :-
" भद्रायां द्वे न कर्त्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा। "
रक्षाबंधन तथा होलिका दहन के समय भद्रा (विष्टि करण) का त्याग करना चाहिये।अर्थात यदि भद्रा हो तो, न तो राखी बांधी जाती है और न ही होलिका का दहन किया जाता है।    

(1.1.20) Adhyatmikata ke liye 8 Kadam / Eight steps for Spirituality

Eight steps for Spirituality / आध्यात्मिकता के लिए आठ कदम 

इस आपधापी के युग ने जो भौतिक साधनों से संपन्न है तथा जिसने मनुष्य का यंत्रीकरण कर उसकी सोच को  भौतिकवादी बना दिया है। परिणामस्वरूप व्यक्ति अति महत्वकांक्षी बन गया है। यद्यपि महत्वाकांक्षा   का अपना महत्व है तथा उच्च महत्वाकांक्षा रखना उन्नति का प्रतीक है। परन्तु आधुनिक   व्यक्ति अति महत्वकांक्षी होते जा रहे हैं। देखा-देखी लम्बी छलांग लगाने का प्रयास करते हैं और असफल होते हैं। महत्वाकांक्षा की पूर्ति और उसके लिए किये गए प्रयास तथा आवश्यक साधन के बीच तालमेल होना आवश्यक है और इससे बढकर बात है महत्वाकांक्षा की पूर्ति नहीं होने पर लगने वाले मानसिक आघात को सहन करने की क्षमता का होना। एक अन्य कमी जो वर्तमान में देखने को मिलती है वह है महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए छोटा रास्ता अपनाना जबकि सफलता एक निश्चित मार्ग का अनुकरण करके ही प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए संकल्प, दृढ इच्छाशक्ति व ठोस सकारात्मक कार्य योजना की आवश्यकता है, जिसे आध्यात्मिक उपायों से ही प्राप्त किया जा सकता है। निम्नांकित आध्यात्मिक कदम अपना कर मानसिक शांति और सफलता प्राप्त की जा सकती है :-
- आओ, ईश्वरप्रदत्त दिव्य शक्तियों का प्रवाह अपने भीतर अनुभव करें।
- आओ, प्रकाश की ओर चलें।
- आओ, अपना उद्धार स्वयं करें।
- आओ, जहाँ खड़े हैं उस स्थान से आगे बढ़ें।
- आओ, स्वयं पर विश्वास करें।
-आओ, जीवन के सुख-दुःख दूसरों के साथ बाटें।
- आओ, अभावों और कठिनाइयों को सफलता की सीढियां बनायें।
- आओ, सकारात्मक सोच के साथ एक प्रफुलित और शुभ आशाओं से परिपूर्ण जीवन जीयें।

Tuesday 27 September 2016

(3.1.34) Mantra Jap Ki Mahatvapoorn Baate/ Important hints for Mantra Jap

मंत्र जप के बारे में महत्वपूर्ण बातें /Mantra jap kee Mahatvapoorn Baaten / Important hints for Mantra Jap 

साधक अपने इच्छित मन्त्र मंत्र का जप करता है तथा अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने की आशा करता है।  परंतु कभी- कभी अपेक्षित परिणाम  नहीं आ पाते हैं।  अपेक्षित परिणाम पाने के लिए साधक को निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए -
> साधना स्थल शांत होना चाहिए।
> जप इस प्रकार करना चाहिए कि मन्त्र का उच्चारण होता रहे, होठ हिलते रहे परन्तु पास बैठा व्यक्ति भी उन्हें सुन न सके।
> मन्त्र की प्रतिदिन कम से कम एक माला का जप अवश्य करें। समय  और रुचि हो तो तीन, पांच, सात या अधिक माला का जप करना चाहिए।
> जप करते समय उपासक आराध्यदेव के चित्र का ध्यान करे। जप का लाभ तभी होता है जब वह एकाग्रतापूर्वक किया जाए। जप साधना के समय विकारों का अन्यत्र घूमना लाभप्रद नहीं होता है।
> शरीर की शुद्धि करके धुले हुए और स्वच्छ वस्त्र को पहनकर तथा पलती लगाकर बैठना चाहिए।
> मल-मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिए बीच में उठाना पड़े तो हाथ पैर धोकर फिर से बैठना चाहिए। > जप न धीरे-धीरे हो और न ही अधिक तीव्र। यह स्वाभाविक गति से चलाना चाहिए।
> मंत्र जप के समय किसी आसान का प्रयोग किया जाना चाहिए।  ऊन या कुश से बने  आसान का उपयोग करना चाहिए।
साधना के लिए चित्त का स्वस्थ होना आवश्यक है।
> ह्रदय में श्रद्धा और भक्ति की भावना हो।
> मन को सब ओर से हटाकर एकाग्र किया जाए तभी साधना में सफलता मिलती है।
> साधक को फल प्राप्ति के लिए उतावला नहीं होना चाहिए और न ही किसी चत्मकार की आशा करनी चाहिए।  ईश्वर आपकी आवश्यकताओं और भावनाओं को समझते हैं , तदुनुरूप ही परिणाम आएगा ।
> धैर्य, श्रद्धा और विश्वास  रखना चाहिए। 

(1.1.19) Karm - Sanchit, Praarabdh aur Kriyamaan Karm

Karm kitane prakaar ke  hote hain / teen praakaar ke karm तीन प्रकार के कर्म 

कर्म तीन प्रकार के होते हैं - संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण।
क्रियमाण कर्म - अपनी इच्छा से जो शुभ या अशुभ नवीन कर्म किये जाते हैं , वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।वर्तमान में किये जाने वाले या होने वाले कर्म क्रियमाण कर्म होते हैं। चूँकि मनुष्य का जीवन वर्तमानकाल है, इसलिए उसके जीवन काल में जो भी कर्म किये जाते हैं, वे सब कर्म क्रियमाण कर्म हैं।  
संचित कर्म - अनेक जन्मों से लेकर अब तक किये गए सुकृत-दुष्कृतरूप कर्मों के संस्कार समूह, जो हमारे अंतःकरण में संगृहीत हैं,वे संचित कर्म कहलाते हैं।
प्रारब्ध कर्म - पाप -पुण्य रूप संचित का कुछ अंश जो किसी एक जन्म में सुख -दुःख फल भुगताने के लिए सम्मुख हुआ है, वह प्रारब्ध कर्म कहलाता है।अर्थात प्रारब्ध कर्म वे कर्म हैं जो गत जन्मों में किये गए हैं तथा उनका फल इस जन्म में भोगना है। 

Monday 26 September 2016

(8.1.7) Phulera Dooj / Phulera Doj / फुलेरा दोज / फुलेरा दूज

Phoolera Dooj / Phulera Doj / फुलेरा दोज / फुलेरा दूज 

फुलेरा दूज कब है ? फुलेरा दूज का महत्व 
 फुलेरा दूज फाल्गुन शुक्ल द्वितीया को आती है। इस दिन को उत्तर भारत के कुछ भागों में बहुत शुभ माना जाता है। इसे अबूझ मुहूर्त माना जाता है। विशेष रूप से जब विवाह का उपयुक्त मुहूर्त उपलब्ध नहीं हो तो फुलेरा दूज को विवाह संपन्न कराया जाता है। अबूझ मुहूर्त होने के कारण वर तथा कन्या का चन्द्र बल , सूर्य बल व गुरु बल भी नहीं देखा जाता है।  हालाँकि इसे विवाह के अबूझ मुहूर्त के रूप में ज्योतिषीय मान्यता नहीं है परन्तु यह दिन इतना लोकप्रिय हो गया है कि इस दिन विवाह किये जाते हैं ,कुछ स्थानों पर सामूहिक विवाह सम्मेलन भी आयोजित किये जाते हैं।
वृन्दावन तथा मथुरा के कृष्ण मंदिरों में फुलेरा दूज के दिन विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।   

(8.1.6) Krishna Janmashtami कृष्ण जन्माष्टमी

Janmaashtami / Krishna Janmaashtami / कृष्ण जन्माष्टमी / जन्माष्टमी व्रत तथा उत्सव 

जन्माष्टमी कब और क्यों मनाई जाती है ? 
जन्माष्टमी को भगवान कृष्ण के जन्म दिवस के रूप में पूरे भारत में उत्साह के साथ मनाया जाता है। भगवान कृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। इस अवतार का मुख्य उद्देश्य इस धरती को राक्षसों के शासन और बुराई से मुक्त करना था। उन्होंने कंस  सहित कई दुर्जनों का संहार किया था तथा महाभारत में वर्णित कौरवों और पाण्डवों के बीच हुये युद्ध में  महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
 इस दिन लोग व्रत भी रखते हैं। भगवान कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, बुधवार को रोहिणी नक्षत्र में अर्द्ध रात्रि के समय वृषभ राशि के चन्द्रमा में हुआ था अत: अधिकांश उपासक व्रत के  दिन  का निर्धारण करने में उपरोक्त बातों का ध्यान रखते हैं।
जन्माष्टमी व्रत का महत्व -
यह व्रत बालक , युवा ,वृद्ध - सभी स्त्री - पुरुष करते हैं।  इससे पापों का नाश होता है और सुख सौभाग्य  में वृध्दि होती है। 

(7.1.5) Guru / Shukra Ka Ast Hona/ Tara Doobana / तारा डूबना

Tara Doobana/गुरु शुक्र का अस्त होना / तारा  डूबना / Guru / Shukra Kaa Ast Hona

गुरु तथा शुक्र कब अस्त होते हैं ? तारा डूबना किसे कहा जाता है ? (For English translation click here)
जब कोई ग्रह किसी निश्चित सीमा तक सूर्य के नजदीक आ जाये तो इस स्थिति को उस ग्रह का अस्त होना कहा जाता है।सूर्य के नजदीक की सीमा को डिग्री में नापा जाता है जो भिन्न ग्रह के लिए भिन्न होती है।जब कोई ग्रह अस्त होता है तो उसकी शक्ति और चमक क्षीण हो जाती है जिस से वह ग्रह अपना पूर्ण फल नहीं दे पाता है।
गुरु या शुक्र के अस्त होने पर किन कार्यों  निषेध है ?    
वैदिक ज्योतिष के अनुसार गुरु (बृहस्पति ) तथा शुक्र को शुभ ग्रह  माना जाता है इस लिए इन के अस्त होने के दौरान शुभ कार्य करना निषेध  है।इन के अस्त होने पर तथा इन के बाल - वृद्धत्व( जो  सामान्यतया इन के अस्त होने के तीन दिन पहले तथा उदय होने के तीन दिन बाद तक माना जाता है) की  सम्पूर्ण अवधि में निम्नांकित कार्य नहीं किये जाते हैं - 
कुये या तालाब का खोदना,घर का निर्माण करना,गृह प्रवेश करना,विवाह,सगाई ,नया व्यापार शुरू करना,नया वाहन खरीदना ,मुंडन या किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करना। 
निम्नांकित कार्य किये जा सकते हैं -
 सीमांत , जातकर्म , नामकरण , अन्नप्राशन आदि में  मलमास तथा गुरु शुक्र के अस्त का दोष नहीं है। अर्थात जिन कार्यों के लिये नाम या दिन नियत कर दिये हैं , जैसे नामकरण ग्यारहवें दिन, न्हावण भी दसवें या ग्यारहवें या तेरहवें दिन कर ही लेना चाहिये। ये गुरु या शुक्र के अस्त कर सकते हैं। (परन्तु जलपूजा (जलवा ) नहीं करें।) 

(8.1.5) Vijaya Dashami / Dashahara Parv विजय दशमी /दशहरा पर्व

Vijaya Dashami / Dashera विजया दशमी/ दशहरा --(आस्था,विश्वास और विजय का पर्व) 

1. विजया दशमी का त्यौहार वर्षा ऋतु  की समाप्ति और शरद ऋतु के आगमन का सूचक है।  आश्विन शुक्ल दशमी के दिन सम्पूर्ण भारत में दशहरे का पर्व धूम धाम से मनाया जाता है।
2. इस दिन क्षत्रिय शस्त्रों की , ब्राह्मण शास्त्रों की तथा वैश्य बही की पूजा करते हैं।
3. दुर्गा प्रतिमा विसर्जन , अपराजिता पूजन , शमी पूजन आदि इस पर्व के मुख्य कर्म हैं।  इस दिन नीलकंठ पक्षी का दर्शन शुभ माना जाता है। 
4. इस दिन तारा  उदय होने के समय ' विजय ' नामक वेला होती है।  इस वेला को सर्वकार्य सिद्धि दायक माना जाता है।
5. इस दिन भगवान राम ने लंका के राजा रावण को मारकर विजय प्राप्त की थी इस लिए इस पर्व को विजया दशमी कहा गया है।  रावण  बुराई  का तथा राम अच्छाई का प्रतीक माने जाते हैं। अत: इसे बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में भी मनाया जाता है।
6. उत्तर भारत के अधिकांश स्थानों पर रावण , कुम्भकरण व मेघनाथ के पुतले जलाये जाते हैं।
7. बंगाल प्रान्त में दशहरा दुर्गा पूजा, त्यौहार का मुख्य भाग है।  इस दिन दुर्गा प्रतिमाओं को नदी , तालाब , सरोवर आदि में विसर्जित किया जाता है।  अत: यह विसर्जन पर्व भी कहलाता है।
8. हिन्दू मूहुर्तों के अनुसार दशहरा / विजया दशमी साढ़े तीन स्वयं सिद्ध मुहूर्तों में से एक है।  अत: किसी भी शुभ कार्य को शुरू करने के लिए इसे शुभ माना जाता है।  

(8.9.1) Navratra / Naratri (in Hindi) नवरात्र / नवरात्रा / नवरात्रि

Navratr / Navraatraa / Navraatri  (festival) नवरात्र / नवरात्रा / नवरात्रि ( शक्ति संचय और आराधना का पर्व )

 नवरात्र में प्रयुक्त  'नव' शब्द 'नौ' का और ' रात्र ' शब्द 'रात्रि' का प्रतीक है। नवरात्र का अर्थ नव अहो रात्र के रूप में भी उल्लिखित है। इस प्रकार जो पर्व नौ दिन और नौ रात तक चले वही नवरात्र है।इसे शक्ति संचय और उपासना -आराधना का पर्व भी माना जाता है। ये नौ दिन देवी पार्वती , लक्ष्मी और सरस्वती के नौ विभिन्न स्वरूपों की उपासना के लिए निर्धारित हैं। जिन्हें नव दुर्गा के नाम से जाना जाता है। पहले तीन दिन पार्वती  के तीन स्वरूपों की, अगले तीन दिन लक्ष्मी के तीन स्वरूपों के और आखिर के तीन दिन सरस्वती के तीन स्वरूपों की पूजा की जाती है। इन नौ रूपों के नाम हैं :-1 शैल पुत्री 2. ब्रह्म चारिणी 3. चंद्रघंटा 4. कूष्मांडा 5. स्कंदमाता 6. कात्यायनी 7. काल रात्रि 8. महा गौरी 9. सिद्धि दात्री।
वर्ष में चार बार नवरात्र पर्व मनाये जाते हैं 
चैत्र और आश्विन मास के नवरात्रों को प्रकट नवरात्र कहा जाता है और माघ तथा आषाढ़  माह के नवरात्रों को गुप्त नवरात्रा कहा जाता है।
पूजा विधि एवं घट स्थापना या कलश स्थापना :-
नवरात्र के प्रथम दिन शुभ मुहूर्त में घट स्थापना या कलश स्थापना का विधान है। घट स्थापना के लिए मिट्टी  या तांबे के कलश में शुद्ध जल भरें। कलश के मुंह पर नारियल को लाल वस्त्र में लपेटकर अशोक के पत्तों सहित रखें। कलश के नीचे बालू मिट्टी की वेदी बनायें व इसमें जौ के दाने व पानी डाल दें। इस वेदी पर कलश रखदें । कलश पर रोली से स्वास्तिक का चिन्ह बनायें । वेदी की रेत में जौ बोने  के बजाय अलग से किसी पात्र में भी मिट्टी डाल कर जौ बोये जाते हैं, जिन्हें जुवारे कहते हैं। घट स्थापना या कलश स्थापना मूल रूप से देवी दुर्गा का आव्हान है।
मूर्ति या तस्वीर स्थापना -
घट या कलश के पास एक पाटे पर लाल वस्त्र बिछा कर माँ भगवती की तस्वीर भगवान राम , हनुमान जी या अपने ईष्ट देव की तस्वीर रखें।
आसन - देवी उपासक लाल या सफेद रंग के ऊनी आसन का प्रयोग करें। पूर्व की तरफ मुँह करके पूजा , मंत्र , हवन एवं अनुष्ठान समाप्त  करें।
नवरात्र के दौरान पाठ- जप आदि :-
साधक अपनी इच्छानुसार दुर्गासप्तशती का पाठ या दुर्गा के किसी मन्त्र का जप करे।
(या ) सुन्दर काण्ड का पाठ
 (या ) राम रक्षा स्त्रोत का पाठ
(या ) रामचरित मानस पाठ
 पाठ या मन्त्र जाप  का  फल - नवरात्रि  का समय वर्ष के श्रेष्ट समय में से एक है अत: इस अवधि में किये गए जप - तप , व्रत, उपवास का फल तुलनात्मक रूप से ज्यादा मिलता है।जप - तप  या पाठ निष्काम भाव से किया जाये या सकाम  भाव से, सभी का सुफल मिलता है, सुख समृद्धि में वृद्धि होती है। यदि  किसी विशेष उद्देश्य के लिए जप या पाठ किया जाता है तो उस उद्देश्य की अवश्य पूर्ति होती है।
कुमारी पूजन - अपनी कुल परम्परा के अनुसार अष्टमी या नवमी के दिन दो वर्ष से नौ वर्ष तक की उम्र की नौ कन्याओं को अपने घर बुलाकर उनकी पूजा करें, उन्हें भोजन करायें व यथा शक्ति दक्षिणा दें।
हवन -
नवरात्रि  के दौरान जितने मन्त्रों का जप किया जाता है उसके दसवें भाग का हवन दसमी के दिन या नवमी के दिन किया जाता है।(यदि हवन नहीं किया जा सके तो कुल जपे हुये मन्त्रों की संख्या के दसवें भाग का जप और करें।)
नवरात्र उत्थापन -
नवरात्र के नवें या दसवें दिन बोये हुए जवारे उग कर बड़े हो जाते हैं , उन्हें प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। घट के जल का आचमन कर उसे अपने शरीर पर स्पर्श कराया जाता है तथा कुछ जल को अपने घर में भी छिड़का जाता है। फिर विधि विधान पूर्वक पूजा करके समस्त पूजा सामग्री को जलाशय में विसर्जित किया जाता है।     

Sunday 25 September 2016

(8.5.3) Ekadahi taha unke naam / Names of Ekadashi/ एकादशी के नाम

26 Ekadshi ke naam / एकादशी के नाम /Twenty six Ekadashi and their names

सनातन धर्म के अनुसार एकादशी को पवित्र तिथि मना जाता है।  इस दिन किये गए व्रत का धार्मिक महत्व है।  हिदू पंचांग के अनुसार प्रति माह दो एकादशी आती हैं - एक शुक्ल पक्ष में तथा दूसरी कृष्ण पक्ष में।  इस प्रकार एक वर्ष में चौबीस एकादशी आती हैं।  अधिक मास होने पर उस वर्ष दो अतिरिक्त एकादशी होती हैं।  इस प्रकार छब्बीस एकादशी हो जाती हैं।  प्रत्येक एकादशी का अपना नाम और महत्व होता है।  एकादशी के नाम निम्नानुसार हैं -
1. पापमोचिनी एकादशी - चैत्र कृष्ण पक्ष एकादशी को पापमोचिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है।
2. कामदा एकादशी - चैत्र शुक्ल पक्ष एकादशी को कामदा एकादशी के नाम से जाना जाता है।
3. वरूथिनी एकादशी - वैशाख कृष्ण पक्ष एकादशी को वरूथिनी  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
4. मोहिनी एकादशी - वैशाख शुक्ल  पक्ष एकादशी को मोहिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है।
5. अपरा  एकादशी - ज्येष्ठ  कृष्ण पक्ष एकादशी को अपरा  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
6. निर्जला  एकादशी - ज्येष्ठ शुक्ल  पक्ष एकादशी को निर्जला  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
7. योगिनी  एकादशी - आषाढ़  कृष्ण पक्ष एकादशी को योगिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है।
8. देवशयनी  एकादशी - आषाढ़ शुक्ल  पक्ष एकादशी को देवशयनी  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
9. कामिका  एकादशी - श्रावण  कृष्ण पक्ष एकादशी को कामिका  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
10. पुत्रदा  एकादशी - श्रावण शुक्ल  पक्ष एकादशी को पुत्रदा  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
11. अजा  एकादशी - भाद्रपद  कृष्ण पक्ष एकादशी को अजा  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
12. जलझूलनी  एकादशी - भाद्रपद शुक्ल  पक्ष एकादशी को जलझूलनी  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
13. इन्दिरा  एकादशी - आश्विन  कृष्ण पक्ष एकादशी को इन्दिरा  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
14. पापाकुंशा  एकादशी - आश्विन शुक्ल  पक्ष एकादशी को पापांकुशा  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
15. रमा  एकादशी - कार्तिक  कृष्ण पक्ष एकादशी को रमा  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
16. देवउठनी  एकादशी - कार्तिक शुक्ल  पक्ष एकादशी को देवउठनी  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
17. उत्पन्ना  एकादशी - मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष एकादशी को उत्पन्ना  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
18. मोक्षदा  एकादशी - मार्गशीर्ष शुक्ल  पक्ष एकादशी को मोक्षदा  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
19. सफला  एकादशी - पौष  कृष्ण पक्ष एकादशी को सफला  एकादशी के नाम से जाना जाता है।
20.पौष पुत्रदा  एकादशी - पौष शुक्ल  पक्ष एकादशी को (पौष) पुत्रदा  एकादशी के नाम से जाना जता है।
21. षटतिला  एकादशी - माघ  कृष्ण पक्ष एकादशी को षटतिला एकादशी के नाम से जाना जाता है।
22 .जया एकादशी - माघ  शुक्ल पक्ष  एकादशी को जया  एकादशी के नाम से जाना जता है।
23. विजया  एकादशी - फाल्गुन  कृष्ण पक्ष एकादशी को विजया  एकादशी के नाम से जाना जा  ता है।
24. आमलकी  एकादशी - फाल्गुन शुक्ल  पक्ष एकादशी को पापमोचिनी एकादशी के नाम से जाना जा ता है।
25. परमा  एकादशी - अधिक मास  कृष्ण पक्ष एकादशी को परमा  एकादशी के नाम से जाना जा ता है।
26. पद्मिनी  एकादशी - अधिक मास शुक्ल  पक्ष एकादशी को पद्मिनी  एकादशी के नाम से जाना जा ता है।  

Saturday 24 September 2016

(8.5.2) Ekadshi Vrat Vidhi (in HindI) एकादशी व्रत विधि

Ekadashi Vrat / Ekadshi Vrat Vidhi /एकादशी व्रत विधि - 

एकादशी व्रत विधि -
सनातन धर्म के अनुसार एकादशी का व्रत आत्म कल्याण का साधन है। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए व्यक्ति इसके द्वारा इहलौकिक और पर लौकिक कल्याण प्राप्त कर सकता है। एकादशी व्रत दशमी , एकादशी तथा द्वादशी इन तीन दिन में संपन्न होता है।  
एकादशी का व्रत करने वाले व्यक्ति को दशमी तिथि के दिन शाम सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करना चाहिए। रात्रि में भगवान में मन लगाते हुए सोना चाहिए।
एकादशी के दिन जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर श्रद्धा और भक्ति सहित भगवान् का पूजन करें। उत्तम प्रकार के गंध , पुष्प ,धूप ,दीप ,नैवेद्य आदि अर्पण करके  नीराजन करें। स्तोत्र पाठ तथा भगवान के स्मरण में दिन व्यतीत करे तथा निराहार रहे।  यदि निराहार नहीं रह सके तो, फलाहार लिया जा सकता है। रात्रि में कथा वार्ता ,स्तोत्र पाठ अथवा भजन आदि के साथ जागरण करे।
द्वादशी के दिन ब्राह्मण को जिमाकर  उपवास कर्ता  को भोजन करना चाहिए। जो ऐसा नहीं कर सके तो उसे ब्राह्मण भोजन योग्य आटा, घी दाल आदि किसी मंदिर में या किसी सुपर को देना चाहिए।
एकादशी के दो भेद हैं - नित्य और काम्य।  निष्काम भाव से की जाने वाली नित्य और धन, पुत्र आदि की प्राप्ति अथवा रोग दोषादि की निवृत्ति के लिए की जाने वाली एकादशी काम्य होती है।
उद्यापन - जब व्यक्ति अधिक उम्र या व्याधि आदि के कारण एकादशी व्रत को निरंतर नहीं रख सके तो एकादशी व्रत का उद्यापन करके इसकी समाप्ति की जा सकती है।  

(8.5.1) Ekadashi /एकादशी / Importance of Ekadashi (in Hindi )

Importancre of Ekadashi Ekadashi ka Mahatva/ एकादशी / एकादशी का महत्व  

हिन्दू पंचांग के अनुसार एक मास  में दो पक्ष होते हैं -यथा कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष।  प्रत्येक पक्ष में पन्द्र्ह तिथियाँ होती हैं। इस प्रकार एक मास में दो एकादशी होती है और एक वर्ष में 24  एकादशी होती हैं। अधिक मास  हो तो उसमें भी दो एकादशी होती हैं। इस प्रकार अधिक मास की एकादशी सहित 26  एकादशी हो जाती हैं। इन 26 एकादशी के अपने अपने नाम होते हैं।   
एकादशी का महत्व - 
सनातन धर्म में आत्म कल्याण के कई साधन हैं। उनमें से व्रत तथा उपवास भी मुख्य हैं। उपवास शारीरिक तप हैं। गृहस्थ में रहते हुए मानव इनके द्वारा इहलौकिक और परलौकिक कल्याण प्राप्त कर सकता है। एक समय भोजन करना व्रत और दिनभर अन्न का त्याग करना उपवास कहलाता है। एकादशी का व्रत तीन दिन में समाप्त होता है।  एकादशी को हिन्दू संस्कृति के अनुसार एक पवित्र तिथि माना जाता है।  एकादशी व्रत करने से जाने - अनजाने हुए पापों से मुक्ति मिलती है तथा मोक्ष प्राप्त होता है।  एकादशी व्रत सुख और धन देने वाला व्रत है। इस व्रत को करने वाला अगले जन्म में धनी कुल में पैदा होता है। एकादशी व्रत से व्यक्ति की  इन्द्रियां नियंत्रित होती हैं , भक्ति का भाव जागृत होता है और ह्रदय की  पवित्रता बढ़ती है। 
एकादशी व्रत विधि - 
एकादशी का व्रत करने वाले व्यक्ति को दशमी तिथि के दिन शाम सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करना चाहिए।  रात्रि में भगवान में मन लगाते हुए सोना चाहिए।  एकादशी के दिन जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर श्रद्धा और भक्ति सहित भगवान् का पूजन करें। उत्तम प्रकार के गंध , पुष्प ,धूप ,दीप ,नैवेद्य आदि अर्पण करके  नीराजन करें। स्तोत्र पाठ तथा भगवान के स्मरण में दिन व्यतीत करे तथा निराहार रहे।  यदि निराहार नहीं रह सके तो, फलाहार लिया जा सकता है। रात्रि में कथा वार्ता ,स्तोत्र पाठ अथवा भजन आदि के साथ जागरण करे। द्वादशी के दिन ब्राह्मण को जिमाकर  उपवास कर्ता  को भोजन करना चाहिए।  

Friday 23 September 2016

(8.1.4) Kokila Vrat (in Hindi / Kokila Vrat vidhi /कोकिला व्रत

Kokila Vrat / Kokila Vrat Kab Hai ? Kokila Vrat Vidhi / Kokila Vrat ka Mahatva / कोकिला व्रत / कोकिला व्रत विधि / कोकिला व्रत का महत्व 

कोकिला व्रत कब किया जाता है ? 
यह व्रत आषाढ़ माह की पूर्णिमा से प्रारम्भ करके श्रावण माह की पूर्णिमा तक किया जाता है। ( इस वर्ष की दिनांक व दिन जानने के लिए यहां क्लिक करें )
कोकिला व्रत की विधि - 
पीठी के द्वारा निर्मित की हुई कोयल की  प्रतिमा का प्रतिदिन पूजन किया जाता है।श्रावण माह की पूर्णिमा के दिन  मिट्टी की बनाईं हुयी कोयल की प्रतिमा को पुरोहित अथवा कथा वाचक को भेंट करने से व्रत करने वाली स्त्री इस जन्म में प्रीति पूर्वक पोषण करने वाले पति के साथ सुख सौभाग्य आदि भोग कर अन्त में गौरी (पार्वती) की पुरी में जातीं है। (विस्तृत जानकारी हेतु यहाँ क्लिक करें ) 
विशेष  - इस व्रत में गौरी का कोकिला के रुप में पूजां किया जाता है। 
कोकिला व्रत का महत्व - अविवाहित लड़कियों द्वारा इस व्रत को करने से उपयुक्त वर मिलता है और सुखमय वैवाहिक जीवन व्यतीत होता है। विवाहित महिलाओँ द्वारा इस व्रत को करने से सौभाग्य , सुपुत्र तथा वैभव प्राप्त होता है ।  (विस्तृत जानकारी हेतु क्लिक करें) 
कोकिला व्रत कथा - दक्ष प्रजापति की पुत्री सती  का विवाह  भगवान् शिव के साथ हुआ था। बाद में दक्ष प्रजापति द्वारा किये गए यज्ञ के आयोजन में उन्होंने अपने जँवाई भगवान् शिव को निमंत्रित नहीं किया। भगवान् शिव ने सती को वहाँ जाने से मना परंतु सती ने बिना निमन्त्रण के भी अपने पिता द्वारा आयोजित यज्ञ में जाने का निश्चय किया। 
जब सती अपने पिता के घर पहुँची तो किसी ने भी उसका स्वागत नहीं किया।  इस अपमान से दुःखी होकर उसने अपने आप को अग्नि में भस्म कर लिया। भगवान् शिव इस घटना को सुनकर वहाँ पहुँचे।  दक्ष के सिर  को उसकी धड़ से अलग कर दिया।  बिना अनुमति के सती के वहाँ जाने के कारण भगवान् शिव ने उसे दस हजार वर्ष तक कोकिला बनी हुई वन में घूमती रहने का शाप दिया।  दस हजार वर्ष बाद सती  ने पार्वती के रूप में जन्म लिया । 
ऋषियों की सलाह पर उसने यह एक माह का व्रत किया तथा पूजा की। शिव जी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर उससे विवाह किया।  इस लिए इस व्रत का नाम 'कोकिला व्रत' हुआ। 
(कहानी को विस्तृत रूप में पढने के लिए यहाँ क्लिक करें ) 
(For English translation click here) 

Thursday 22 September 2016

(6.8.1) Dwadash Jyotirling Stotra ( with Hindi Meaning)

Dwadash Jyotirling Stotra / Benefits of reciting Dwadash jyotiling Stotra / द्वादश ज्योतिलिंग स्तोत्र / द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र के पाठ  करने के लाभ 

नीचे द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र दिया गया है जिसमें  बारह ज्योतिर्लिंगों के नाम तथा वे कहाँ स्थित हैं उन स्थानों का उल्लेख है । जो व्यक्ति प्रातःकाल और सांय काल इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं -
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। 
उज्जयिन्यां  महाकालमोंकारममलेश्वरम्।।१।। 

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्। 
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने।।२।।

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमी तटे। 
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये।।३।। 

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः। 
सप्तजन्मकृतं  पापं स्मरणेन विनश्यति।।४।। 

अर्थ - सौराष्ट्र प्रदेश में श्रीसोमनाथ , श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जैन में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर। परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्री भीमशंकर, सेतुबन्ध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्री नागेश्वर। वाराणसी में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारख़ण्ड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्री घुश्मेश्वर को स्मरण करे। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकाल इन बराह ज्योतिर्लिंगों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों स्मरण मात्र से मिट जाता है।

(7.2.4) Yagyopaveet Muhurat / Upnayan Sanskaar Muhurat (in Hindi)

Janeo Muhurat / Yagyopaveet Sanskar Muhurat / Muhurat for Yagyopaveet / Upnayan Sanskaar Muhurat / उपनयन संस्कार के लिए मुहूर्त / जनेव के लिए मुहूर्त /

पनयन संस्कार सोलह संस्कारों में से एक है। इसके मुहूर्त हेतु निम्नांकित बातों को ध्यान में रखा जाता है - 
1. उम्र / आयु - शिशु के जन्म से ब्राह्मण को पांचवें या आठवें वर्ष में, क्षत्रिय को छठे या ग्यारहवें वर्ष में, वैश्यों को आठवें या बारहवें वर्ष में उप नयन संस्कार करना चाहिए। यदि इन वर्षों में यह संस्कार नहीं हो सके तो ब्राह्मणों को सोलहवें वर्ष तक , क्षत्रियों को बाइसवें वर्ष तक  तथा वैश्यों को चौबीसवें वर्ष तक उपनयन संस्कार करा सकते हैं।  
2. माह - उत्तरायण में देवशयन से पूर्व उपनयन या जनेऊ संस्कार करना शुभ रहता है।  
3. तिथियाँ - शुक्ल पक्ष की 2,3,5, 10, 11, 12 तथा कृष्ण पक्ष की 1, 2, 3, 5 तिथियों में। 
4.  वार - रविवार, सोमवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार। 
5.  नक्षत्र - अश्विनी, रोहिणी,मृगशिरा, पुनर्वसु, आर्द्रा, पुष्य, अश्लेषा, तीनों पूर्वा, तीनों उत्तरा, हस्त, चित्रा , स्वाति, अनुराधा, मूल, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती। 
6. समय - संक्रांति दिन, गुरु- शुक्र के अस्तकाल को छोड़ कर मध्यान्ह के पहले अभिजित शुभ है। चैत्र में मीन के सूर्य में यज्ञोपवीत संस्कार  श्रेष्ठ है।

(8.1.3) Jagannath Rath Yatra /जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा

Rath Yatra / Jagannath Puri Rath Yatra (in Hindi) / जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा 

रथ यात्रा उत्सव आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को आयोजित किया जाता है।  यह उत्सव मुख्य रूप से पुरी में आयोजित किया जाता है। इस रथ यात्रा उत्सव के बारे में महत्वपूर्ण बातें निम्नानुसार हैं - (For English translation click here)  
1. भारत के उड़ीसा प्रान्त में समुद्र के किनारे भगवान जगन्नाथ का मंदिर है। भगवान जगन्नाथ को हिन्दुओं  के प्रमुख देवता के रूप में माना जाता है। पुरी के इस भव्य मंदिर में तीन प्रतिमाएं हैं।ये प्रतिमाएं भगवान जगन्नाथ , उनके भाई बलभद्र व उनकी बहिन सुभद्रा की हैं। ये सभी प्रतिमाएं लकड़ी की बनी हुई हैं। माना जाता है कि इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा महाराज इंद्र द्युम्न ने की थी।
2. भगवान जगन्नाथ का रथोत्सव आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। इस दिन उड़ीसा के पुरी  नामक स्थान पर यह बड़ी धूमधाम और श्रद्धा से मनाया जाता है। उस दिन भगवान जगन्नाथ  ,सुभद्रा जी व बलभद्र जी की प्रतिमाओं  को विशाल रथ पर आरूढ़ करके समस्त नगरी के प्रमुख मार्गों पर भ्रमण करते हैं।
3. भगवान  के रथ को पशु नहीं अपितु श्रद्धालु जन खींचते हैं ,जो हज़ारों की संख्या में होते हैं।
4. प्रतिवर्ष नया रथ निर्मित किया जाता है।
5. रथ यात्रा ,भगवान  जगन्नाथ की गुंडीचा माता मंदिर के वार्षिक भ्रमण के रूप में आयोजित की जाती है। इसलिए  इसे गुण्डीच यात्रा भी कहा जाता है।
6.  इस रथ यात्रा के लिए तीन रथ बनाये जाते हैं। ये रथ बलभद्र ,भगवान जगन्नाथ और सुभद्रा के लिए होते हैं।
7. रथ यात्रा में सबसे आगे बलभद्र जी का रथ रहता है , बीच में सुभद्रा जी का ,और सबसे पीछे भगवान  जगन्नाथ जी का रथ रहता है।
8. बलभद्र जी के रथ का रंग लाल तथा हरा होता है ,सुभद्रा जी के रथ का रंग लाल तथा नीला होता है, भगवान  जगन्नाथ जी के रथ का रंग लाल तथा पीला होता है।
9. बलभद्र जी के रथ को पाल ध्वज ,सुभद्रा जी के रथ को दर्पदलन या देवी रथ तथा जगन्नाथ जी के रथ को नंदी घोष कहा जाता है।
10. यह रथ यात्रा प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को शुभ मुहूर्त में प्रारम्भ होती है और भक्तगण इन रथों को खीचते हुए गुंडीचा मंदिर तक ले जाते हैं, जहाँ ये रथ सात दिन तक रुकते हैं।
11. आषाढ़ शुक्ल दशमी को मुख्य मंदिर के लिए वापसी यात्रा प्रारम्भ होती है, जिसे 'बहुदा यात्रा' कहा जाता है।
12. रथों को मुख्य मंदिर के पास लाकर प्रतिमाओं को एक दिन रथ में ही रखा जाता है तथा आषाढ़ शुक्ल एकादशी को मंदिर में रखा जाता है।  इसके साथ ही भगवान  जगन्नाथ की दस दिवसीय यात्रा समाप्त होती है।
(For English translation click here)  

Wednesday 21 September 2016

(8.1.2) Daha Mata Vrat tatha Pooja Vidhi (in Hindi) दशा माता व्रत

Dasha Mata Vrat tatha Pooja Vidhi दशा माता व्रत  तथा पूजा 

चैत्र मास के कृष्ण  पक्ष की दसमी को दशा माता का पूजन एवं व्रत किया जाता है।  होली के अगले दिन से ही इसका पूजा प्रारम्भ हो जाता है, जो दसवें दिन समाप्त होता है।  प्रतिदिन प्रात: स्त्रियां स्नानादि करके पूजन की सामग्री लेकर पूजन करती  है। सर्व प्रथम साठिया या स्वस्तिक का चिन्ह बनाया जाता है।  इसे दीवार पर ही बनाया जाता है।  इसे गणपति या गणेश का  प्रतीक माना जाता है।  इसे मेहँदी या कुमकुम से बनाया जाता है। इसके पास ही मेहंदी या कुमकुम से दस बिंदियाँ बनाई जाती जो दशा माता की प्रतीक हैं। 
स्वस्तिक तथा इन दस बिंदियों की रोली, मौली, चावल, सुपारी, धूप, दीपक, नैवैध्य से पूजन किया जाता है।  
पूजन के बाद  प्रतिदिन कथा कहने तथा सुनने का विधान है।  पहले दिन दशा  माता की दस कथाएं कही जाती है।  दूसरे दिन से नवें दिन तक सात कथाएं कही जाती है।और अंतिम दसवें दिन फिर से दस कथायें , कही जाती हैं।  इस दिन (दसमी ) को एक समय भोजन करके व्रत रखने का विधान है।  
दशा माता व्रत का महत्त्व :-
दशा माता का व्रत तथा पूजन प्रत्येक स्त्री -विधवा - सुहागिन सबको करनी चाहिए क्योंकि यह पूजन एवं व्रत घर की दशा  (स्थिति ) को सुखी समृद्ध रखने के लिए किया जाता है।  
दशा माता की बेल :-
इस पूजन में विशेष बात यह कि  एक धागे को हल्दी  में रंग कर उसके दस गांठे लगाई जाती है जिसे दशा माता की बेल कहा जाता है।  पूजन करते  समय इस बेल को  दशा माता के चढ़ाया जाता है तथा पूजा के बाद पिछले वर्ष पहनी गई बेल को खोल दिया जाता है तथा इस नई बेल को गले में धारण किया जाता है।  इसी प्रकार इस वर्ष धारण की  हुई बेल को अगले वर्ष उतार कर, पूजा करके नयी बेल धारण की  जाती है।

(8.1.1) Makar Sankranti /मकरसंक्रांति

Makar Sankranti मकरसंक्रांति / मकर संक्रांति का महत्व

मकर संक्रांति क्या है ?
सूर्य जिस राशि में स्थित हो , उसे छोड़कर जब वह दूसरी राशि में प्रवेश करे तो उस समय का नाम संक्रांति है। कुल बारह राशियाँ हैं इस लिए बारह संक्रान्तियाँ होती है। ऐसी बारह संक्रांतियों में मकरादि छ: और कर्क आदि छ: राशियों के योग काल में क्रमश: उत्तरायण और दक्षिणायण - ये दो अयन होते हैं । इस प्रकार सूर्य का धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करना मकर संक्रांति कहलाता है। इसी समय से सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण गति शील होते हैं। मकर संक्रांति के इस त्यौहार को थोड़े बहुत अंतर के साथ लगभग पूरे भारत में मनाया जाता है। उत्तर प्रदेश के कुछ भागों और बिहार में इसे 'खिचड़ी' के नाम से जाना जाता है। कर्नाटक , केरल और आन्ध्र प्रदेश में इसे 'संक्रांति' कहा जाता है। तमिलनाडु  में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
मकर संक्रांति की महत्वपूर्ण बातें / मकर संक्रांति का महत्व 
1.भारतीय पंचांग में तिथि आदि की गणना चन्द्रमा की स्थिति के आधार पर की जाती है जब कि संक्रांति का सम्बन्ध सूर्य से है इस लिए अन्य  त्यौहारों की दिनांक बदल जाती है लेकिन मकर संक्रांति  की दिनांक 14 जनवरी होती है।
2.मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरायण हो जाता है जो छ माह तक रहता है। उत्तरायण को देवताओं का दिन माना जाता है तथा दक्षिणायण  को देवताओं की रात्रि मानी जाती है। इसलिए कई धार्मिक कार्य उत्तरायण में ही किये जाते है।
3.मकर संक्रांति के बाद दिन बड़े होने लगते हैं  और रात्रि छोटी होने लगती हैं।
4.महाभारत के प्रमुख पात्र भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। उन्होंने अपने सांसारिक शरीर को त्यागने के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा की और उत्तरायण काल  पर ही अपने प्राण त्यागे।
5.महाराज सगर के साठ हजार पुत्रों को मुक्ति प्रदान कराने हेतु महाराज  भागीरथ ने गहन तपस्या की और गंगा नदी को पृथ्वी पर लाये। मकर संक्रांति के दिन महाराज भागीरथ ने गंगा के पानी से तर्पण किया और अपने पूर्वजों को मुक्ति दिलाई। आज भी गंगा सागर में लोग स्नान करते हैं और अपने पूर्वजों  के लिए तर्पण करते हैं।
6.इस दिन लोग नदियों  और तालाबों में स्नान करते हैं और मंदिरों में अपने इष्ट देव के दर्शन व पूजा करते हैं।
7.इस दिन किये गए जप , तप , स्नान , दान ,तर्पण आदि का बहुत महत्त्व है। नदी के तट या सरोवर के तट पर दिए गए दान को ज्यादा अच्छा माना जाता है। 
8.इस दिन तिल के दान को अच्छा माना जाता है। लोग अपने सम्बन्धियों व मित्रों को तिल व गुड से बने हुए लड्डू देते हैं।

Tuesday 20 September 2016

(8.6.1) Amavasya Kab Hai ? Amavasya dates (for this year)

Amavasya Kab Hai ? अमावस्या कब है ? Amavasya dates (this year) When is Amavasya ?

अमावस्या तथा पूर्णिमा का हिन्दू धर्म में बहुत महत्व है।  ये दोनों तिथियाँ पर्व तिथियाँ हैं। इन दोनों तिथियों में किये गए दान - पुण्य आदि कर्मों का बहुत महत्व है। अमावस्या दो प्रकार की होती हैं - सिनीवाली और कुहू।
व्रत में परविद्धा अमावस्या अर्थात प्रतिपदा युक्त अमावस्या लेनी चाहिए। पूर्वविद्धा अमावस्या अर्थात चतुर्दशी युक्त अमावस्या को ग्राह्य नहीं माना जता है।
इस वर्ष स्नान - दानार्थ अमावस्या के लिए दिन तथा दिनांक जानने हेतु -
यहाँ क्लिक करें 

Monday 19 September 2016

(7.3.1) Gaudhuli Vela kya hai (in Hindi) /गौधूलि वेला

Gau Dhuli Vela / गौ धूलि वेला / गौ धूलि वेला की अवधि / गौ धूलि वेला की शुभता 

गौ धूलि वेला क्या है 
गो धूलि वेला  से तात्पर्य उस  काल से है जब सूर्यास्त नहीं हुआ हो और गोचर भूमि से  चर कर लौटते हुए धेनु आदि पशुओं के पैरों से  रज  उछल कर आकाश में छा गई हो।
गो धूलि वेला  की शुभता :- गो धूलि बेला  को विवाह आदि  मांगलिक  कार्य के लिए श्रेष्ठ माना जाता है अत: यह बेला  विवाह आदि मांगलिक  कार्यों में लग्न, ग्रह , नवांश , मुहूर्त , लत्ता , पात , अष्टम  भाव तथा जामित्र आदि दोषों को नष्ट प्राय: कर देती है।
गो धूलि वेला  की अवधि :- भिन्न -भिन्न मतों के अनुसार गो धूलि वेला  का मान  इस प्रकार है -
1. सूर्य आधा अस्त हो जाये तब से पहले की आधी घटी और सूर्य अस्त होने के बाद की आधी घटी को गो धूलि वेला  लग्न माना  जाता है। कुल एक घटी अर्थात सूर्यास्त काल से बारह मिनट पूर्व व बारह  मिनट बाद तक का समय गो धूलि वेला होता है। गो धूलि वेला  का सम्बन्ध सूर्य के अस्त होने के समय से है अत: भिन्न - भिन्न स्थानों पर गो धूलि वेला लग्न अलग - अलग हो सकता है। इसलिए गो धूलि बेला  को जानने का सबसे अच्छा तरीका है - पंचांग में स्थानीय सूर्य के अस्त होने का समय देखकर , उसके बारह मिनट पहले और बारह मिनिट बाद तक का गो धूलि काल होता है।अधिकांश विद्वान इसी मत को मान्यता देते हैं।
2. कुछ अन्य विद्वान सूर्यास्त से चौबीस मिनट पहले व चौबीस मिनट बाद तक का दो घटी अर्थात अड़तालीस मिनट का समय गो धूलि काल मानते हैं।   गौधूलि वेला 
3. कुछ विद्वानों के अनुसार हेमंत ऋतु में  संध्या समय पूर्व जब सूर्य गोलाकार हो जाये , गर्मी में जब सूर्य आधा अस्त हो जाये तथा वर्षा ऋतु में सूर्य सम्पूर्ण अस्त हो जाने पर गो धूलि वेला  होती है।
गो धूलि वेला  की सीमा -
1.गुरुवार को सूर्यास्त के बाद तथा शनिवार को सूर्यास्त के पूर्व गो धूलि लग्न शुभ होता है।
2. यदि विवाह का शुद्ध लग्न मिल रहा हो तो उसका त्याग कर गो धूलि वेला को लेना उचित नहीं है।   

(6.4.1)Raksha pane hetu Hanuman Mantra (in Hindi) / Anjana garbh sambhoot

Hanuman Mantra for safety or protection / रक्षा पाने के लिए हनुमान मंत्र /Raksha hetu Hanuman Mantra / अंजना गर्भसंभूत 

हनुमान जी भगवान् राम के भक्त थे। यदि कोई व्यक्ति हनुमान जी से प्रार्थना करे तो वे उसकी प्रार्थना सुनते हैं और उसकी सहायता तथा रक्षा करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। निम्नाकित प्रार्थना का बार बार दोहरान  करने से व्यक्ति के संकट दूर होते हैं -    
अंजना गर्भसम्भूत कपीन्द्र सचिवोत्तम। 
राम प्रिय नमस्तुभ्यं हनुमन् रक्ष सर्वदा। 
अर्थ :- 'हे अञ्जना के गर्भ से उत्पन्न हुये , सुग्रीव के श्रेष्ठ मन्त्री , श्री राम के प्यारे हनुमान , आपको प्रणाम है। आप सर्वदा मेरी रक्षा करें। 

Sunday 18 September 2016

(6.3.2) Durga ke 9 Roop / Nine forms of Durga (in Hindi)

Devi Durga ke 9 Roop / Nine forms of goddesses of Durga (in Hindi ) देवी दुर्गा के नौ रूप 

देवी दुर्गा के नौ रूप कौनसे हैं?
नवरात्रि के नौ दिनों में प्रतिदिन शक्तिस्वरूपा माँ दुर्गा के अलग - अलग नौ रूपों की पूजा की जाती है। इस पूजा से विशेष फल की प्राप्ति है। ये नौ रूप इस प्रकार हैं - 
(१) शैलपुत्री - माँ दुर्गा अपने पहले स्वरुप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती है। नवरात्र के प्रथम दिन शैलपुत्री की पूजा - अर्चना की जाती है। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इसका नाम शैलपुत्री पड़ा। 
(२) ब्रह्मचारिणी - नवरात्र पर्व के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा - अर्चना की जाती है। ब्रह्म का अर्थ है 'तपस्या ' और चारिणी का अर्थ होता है 'आचरण करने वाली '। वह अपने भक्तों को ज्ञान और बुद्धि प्रदान करती है।  
(३) चन्द्रघंटा - नवरात्र के तीसरे दिन माँ चन्द्रघंटा की पूजा-अर्चना की जाती है। इस देवी की आराधना से वीरता व निर्भयता के साथ सौम्यता व विनम्रता का विकास होता है। 
(४) कूष्माण्डा - नवरात्र के चौथे दिन माँ कूष्माण्डा की पूजा अर्चना की जाती है। 
(५) स्कंदमाता - नवरात्र के पाँचवें दिन माँ स्कंदमाता की पूजा अर्चना की जाती है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली परम सुखदायी माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती है। 
(६) कात्यायनी - नवरात्र के छठे दिन माँ कात्यायनी की पूजा अर्चना की जाती है।देवी का यह रूप व्यक्ति में योग साधना उत्पन्न करता है।  
(७) कालरात्रि - नवरात्र के सातवें दिन माँ कालरात्रि की पूजा अर्चना की जाती है।वह राक्षसों और दुष्टों का नाश करती है और अपने भक्तों में निडरता उत्पन्न करती है।  
(८) महागौरी - नवरात्र के आठवें दिन माँ महागौरी की पूजा अर्चना की जाती है।महागौरी की उपासना से शक्ति और ऊर्जा प्राप्त होती है और समस्त पापों का नाश होता है।  
(९) सिद्धिदात्री -  नवरात्र के नवें दिन माँ सिद्धिदात्री की पूजा अर्चना की जाती है। इसकी उपासना से सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और लौकिक व पारलौकिक कामनाओं की पूर्ति होती है।
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(3.1.33) Kumari Poojan in Navratra / Kumari pooja ka Mahatva (in Hindi)

Kumari Poojan in Navratra / Navratri and Kumari Puja / कुमारी पूजन / नवरात्र में कुमारी पूजा 

कुमारी पूजा क्यों तथा कैसे
देवी व्रतों में कुमारी पूजन आवश्यक माना गया है। नवरात्र में कन्याओं को देवी का स्वरूप मान कर उनकी पूजा करना तथा श्रद्धा के साथ सामर्थ्य अनुसार उन्हें भोजन कराना और दक्षिणा देना अत्यंत शुभ और श्रेष्ठ माना जाता है।यदि सामर्थ्य हो तो नवरात्र पर्यन्त नौ दिन तक अथवा अष्टमी या नवमी को किसी एक दिन कन्याओं की पूजा करनी चाहिये। सर्व प्रथम कन्याओं के पैर धोकर उनकी गंध ,पुष्प आदि से पूजा करें फिर उन्हें मिष्ठान्न भोजन कराएं और दक्षिणा दें।
कन्याओं की संख्या एक से नौ तक हो सकती है। एक कन्या के पूजन से ऐश्वर्य की, दो से भोग और मोक्ष की, तीन से धर्म,अर्थ,काम की, चार से राज्य पद की पाँच से विद्या की , छः से षट्कर्म सिद्धि की, सात से राज्य की, आठ से सम्पदा की,और नौ से पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती है।
कन्याओं की उम्र दो वर्ष से दस वर्ष तक की होनी चाहिये। दो वर्ष की लड़की - कुमारी, तीन की त्रिमूर्तिनी , चार की कल्याणी , पाँच की रोहिणी , छः की काली , सात की चण्डिका ,आठ की शाम्भवी , नौ की दुर्गा और दस की सुभद्रा स्वरुप होती है।  इससे अधिक उम्र की कन्या को कुमारी - पूजा में सम्मिलित नहीं करना चाहिये।
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( 3.1.33) Kumari Poojan in Navratra
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(3.1.32) Ghat Sthapana in Navratra / Kalash sthapana Vidhi in Navratra (in Hindi)

Navratri me Ghat Sthapana / Ghat Sthapana Vidhi /नवरात्र में घट स्थापना 

घट स्थापना कब की जाये - 
घट स्थापना या कलश स्थापना नवरात्र के प्रथम दिन की जाती है।घट स्थापना का समय प्रातः काल ही श्रेठ रहता है।  परन्तु उस दिन चित्रा नक्षत्र या वैधृति योग रात्रि तक रहे तो या तो वैधृति आदि के आद्य तीन अंश त्याग कर घट स्थापना करें या मध्यान्ह के समय अभिजीत मुहूर्त में घट स्थापना करें।
घट स्थापना कहाँ करें -
अपने घर के ईशान कोण ( उत्तर-पूर्व के बीच के कौने ) में करना सबसे श्रेष्ठ है। यदि ऐसा स्थान अपने घर या आवास में नहीं हो तो घट स्थापना ऐसे स्थान पर की जाये ताकि देवी का पूजन करते समय व्यक्ति का मुँह पूर्व की तरफ रहे।
घट  स्थापना / कलश स्थापना कैसे करें -
जब कलश स्थापना के स्थान का निश्चय हो जाए तब नवरात्रि के प्रथम दिन उस स्थान को साफ़ करें। नदी या झील की रेत या मिट्टी अथवा स्वच्छ स्थान की मिट्टी में जल मिलाकर वेदी का निर्माण करें।वेदी के ऊपर मिटटी या ताम्बे या चांदी के कलश को गंगा जल या साफ़ जल से भरकर स्थापित कर दें। कलश के मुँह पर श्री फल को लाल वस्त्र में लपेटकर अशोक के पत्तों सहित रख दें।  कलश पर स्वस्तिक  का चिन्ह बनाएं ,अक्षत व पुष्प अर्पित करें।  कलश के चारों ऒर जौ  के दाने बो दें। नौ दिन में ये जौ  के दाने चार या पांच इंच के पौधे  के रूप ले लेते हैं। इन पौधों को जवारा  कहा जाता है, जिनको नवरात्रि समाप्ति के दिन परिवार के लोगों तथा भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है।  कलश को यथा विधि स्थापित करके गणेश आदि का पूजन किया जाता है।
मूर्ति / तस्वीर स्थापना -
माँ भगवती तथा श्री राम एवं श्री हनुमान जी की मूर्ति अथवा तस्वीर को घट  के पास चौकी पर लाल वस्त्र या आसन बिछाकर उसके ऊपर स्थापित करें। तस्वीर को चन्दन रोली का तिलक लगाकर अक्षत चढ़ाएं ,धूप ,दीप प्रज्वलित करे। 

(8.8.1) Navratra Vrat / Navratri Vrat / Navratri vrat vidhi (in Hindi)

Navratri vrat / Navratra Vrat  / Navratri Vrat Vidhi / नवरात्रि  व्रत/ नवरात्र व्रत  विधि / नवरात्र व्रत का फल (हिंदी में )

नवरात्र व्रत
हिन्दू धर्म के अनुसार नव रात्र की नौ दिन की अवधि बहुत ही शुभ और पवित्र मानी जाती है। एक वर्ष में चार बार नवरात्र आते हैं - चैत्र व आश्विन तथा आषाढ़ व माघ। इन चार में से प्रथम दो को प्रकट नवरात्र और शेष दो को गुप्त नवरात्र के रूप में जाना जाता है। परन्तु चैत्र और आश्विन के नवरात्र ही मुख्य माने जाते हैं। नवरात्र प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त होते हैं।
नवरात्र व्रत विधि तथा नवरात्र व्रत की मुख्य बातें :- 
(१) प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त नवरात्रियों तक व्रत करने से 'नवरात्र ' व्रत पूर्ण होते हैं , तिथि के घटने या बढ़ने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
(२) वैसे तो चैत्र (वासंती ) नवरात्रों में विष्णु की और आश्विन (शारदीय ) नवरात्रों में शक्ति की उपासना का प्राधान्य है परन्तु ये दोंनों ही बहुत व्यापक हैं, अतः दोनों में दोनों की उपासना होती है।
(३) यदि कोई व्यक्ति नवरात्र पर्यन्त अर्थात प्रतिपदा से नवमी तक व्रत नहीं रख सके तो वह प्रतिपदा के सप्तमी तक 'सप्तरात्र'  या पंचमी से नवमी तक 'पञ्चरात्र' या सप्तमी,अष्टमी , नवमी तक 'त्रिरात्र' या प्रतिपदा व नवमी ,दो व्रतों से 'युग्म रात्र' या प्रतिपदा अथवा नवमी के एक व्रत से 'एकरात्र' के रूप में, जो भी किये जाएँ , उन्हीं से अभीष्ट की सिद्धि होती है।
(४) नवरात्र व्रत प्रारम्भ करते समय सर्व प्रथम गणपति , मातृका , लोकपाल , नवग्रह और वरुण का पूजन , स्वस्ति वाचन और मधुपर्क ग्रहण करके प्रधान मूर्ति की - जो राम, कृष्ण,लक्ष्मी ,शक्ति,भगवती, देवी आदि किसी भीअभीष्ट देव की हो,पूजा करें।
(५) कुमारी पूजन - देवी व्रतों में कुमारी पूजन आवश्यक माना गया है।  यदि सामर्थ्य हो तो नवरात्र पर्यन्त और न हो तो कुमारी के चरण धोकर उसकी गंध-पुष्प आदि से पूजा करके मिष्टान्न भोजन कराना चाहिये।
नवरात्र व्रत का फल - नवरात्र की नौ दिन की अवधि को आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति की अवधि माना जाता है। नवरात्र व्रत, व्रती की आकांक्षाओं की पूर्ति करता है तथा इससे उसके कष्ट दूर होते हैं, और मानसिक बल और आत्म बल बढता है।

Saturday 17 September 2016

(1.1.18) Kavi Ghagh ki Kahavaten / Ghagh Kavi (in Hindi )

Ghagh ki kahavate / Kavi Ghagh / घाघ कवि / घाघ की कहावतें 

* जेकर ऊँचा बैठना, जेकर खेत नीचान। 

ओकर बैरी का करै, जेकर मीत दीवान। 
अर्थ - जो ऊँचे लोगों के साथ उठता-बैठता हो, जिसका खेत निचान में हो और जिसके साथी बड़े लोग हों तो दुश्मन उसका क्या बिगाड़ सकेगा।

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* बाढ़ै पूत पिता के धर्मा, खेती उपजै अपने कर्मा। 
अर्थ - पुत्र पिता के धर्म से बढ़ता है और खेती अपने कर्म (परिश्रम) से होती है।
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* जोइगर बँसगर बुझगर भाइ, तिय सतवन्ती नीक सुहाइ। 
धन पुत हो मन होइ विचार, कहैं घाघ ई 'सुक्ख अपार'।।  
 अर्थ - जिस घर में विवाहित, बलवान और समझदार भाई हो, सुन्दर और सती स्त्री हो। स्वयं पुत्रवान और सद्विचारवान हो तो, उस घर में अपार सुख प्राप्त होता है।
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* निहपछ राजा, मन हो हाथ। साधु परोसी, नीमन साथ। 
हुक्मी पूत, धिया सतवार। तिरिया भाई रखे विचार। 
कहै घाघ हम करत विचार।  बड़े भाग से दे करतार।।
अर्थ - राज्य का राजा न्यायी हो, मन अपने वश में हो, पडोसी सज्जन हो,उत्तम जनों का साथ हो, पुत्र आज्ञा पालक हो, पुत्री सचरित्रा हो, पत्नी और भाई उत्तम विचार के हों, ये सब बड़े भाग्य से मिलते हैं।
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* पूत न मानै आपन डॉँट, भाई लड़ै चहै नित बाँट। 
तिरिया कलही करकस होइ, नियरे बसल दुष्ट सब कोइ। 
मालिक नाहिंन करै विचार, घाघ कहैं ये विपति अपार। 
अर्थ - पुत्र आज्ञा कारी नहीं हो, सगा भाई अपना हिस्सा बाँटने हेतु झगड़ता हो, पत्नी कर्कशा और झगड़ालू  हो, पास- पड़ोस में दुष्टजन बसते हों, गृह स्वामी न्याय- अन्याय का विचार न करके कार्य करता हो तो उस घर में विपत्ति का डेरा समझना चाहिए।
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* नसकट खटिया दुलकन घोर, कहैं घाघ यह बिपत क ओर। 
अर्थ- सोने के लिए अपनी लम्बाई से छोटी खाट हो और घोडा सीधी चाल न चलने वाला हो तो, जीवन में संकट ही संकट हैं।
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ओछे बैठक, ओछे काम, ओछी बातें आठों जाम। 
घाघ बताये तीन निकाम, भूलि न लीजौ इनको नाम। 
. अर्थ - ओछे (हलके /नीच) स्तर  के लोगों के साथ उठना - बैठना, ओछे कार्य करना, और हमेशा ओछी बातें करना।  घाघ कवि के अनुसार ये तीनों ठीक नहीं हैं, इनको नहीं करना चाहिए।
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* एक तो बसो सड़क पर गाँव, दूजे बड़े बड़ेन में नाँव। 
तीजे परे  दरब से हीन, घग्घा हको विपता तीन। 
अर्थ - घाघ के अनुसार  सड़क पर का निवास, बड़े लोगों का साथ और धनहीनता - तीनों विपत्ति के कारण हैं।
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* खेती पाती बीनती औ घोड़े की तंग। 
अपने आप संवारिए लाख लोग हो संग। 
अर्थ - घाघ कवि कहते हैं कि खेती का संचालन, पत्र लिखना, विनती करना तथा सवारी वाले घोड़े की सेवा-  ये सभी काम अपने हाथों ही करने चाहिए तभी इनमें सफलता मिलती है।
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(5.1.9) Samudra Mantha aur 14 Ratna

Which are the fourteen Ratnas / 14 रत्न कौनसे हैं ? समुद्र मंथन और चौदह रत्न 

देवता और असुरों ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन प्रारम्भ किया, जिसके परिणाम स्वरुप निम्नांकित रत्न प्राप्त हुए :- 
(१)विष - सबसे पहले हलाहल नामक अत्यंत उग्र विष निकला।भगवान  शंकर ने उस तीक्ष्ण हलाहल विष को अपनी हथेली पर उठाया और भक्षण कर गए। विष के प्रभाव से भगवान् शंकर का कण्ठ नीला पड़ गया , परन्तु वह तो प्रजा का कल्याण करने वाले भगवान् शंकर के लिए भूषण रूप हो गया।   
(२) कामधेनु - वह अग्निहोत्र की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी। इसलिए ब्रह्म लोक तक पहुँचाने वाले उपयोगी पवित्र घी , दूध आदि प्राप्त करने के लिए ब्रह्मवादी ऋषियों ने इसे ग्रहण किया।  
(३) उच्चैः श्रवा (नामक घोड़ा ) - वह चँद्रमा के समान श्वेत वर्ण का था।  बलि ने उसे लेने की इच्छा प्रकट की। (४) ऐरावत (नामक हाथी ) - उसके चार बड़े बड़े दाँत थे , जो उज्ज्वल कैलाश की शोभा को भी मात करता था। 
(५) कौस्तुभ मणि- उस मणि को अपने हृदय पर धारण करने के लिए अजित भगवान् ने इसे लेना चाहा।  
(६) कल्पवृक्ष- यह वृक्ष याचकों की इच्छाएँ उनकी इच्छित वस्तु देकर पूर्ण करता रहता है।   
(७) रंभा अप्सरा - वह  सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित एवं गले में स्वर्ण हार पहने हुए थी। 
(८) देवी लक्ष्मी  - उन्होंने सदगुणों से युक्त और माया रहित भगवान् को अपना पति बनाया।  
(९) वारुणी देवी- कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुई।  भगवान् की अनुमति से दैत्यों ने उसे ले लिया।  
(१० ) चन्द्रमा 
(११) पारिजात वृक्ष 
(१२) पाञ्चजन्य शंख 
(१३ ) धन्वन्तरि- वे साक्षात भगवान् विष्णु के अंशांश अवतार थे।  वे आयुर्वेद के प्रवर्तक और यज्ञ भोक्ता थे।  उनके हाथ में कलश था।  
(१४ ) अमृत-   धन्वन्तरि के हाथ में जो कलश था , उसमें अमृत था।

Thursday 15 September 2016

(7.1.4) Sadhe sati of Shani / शनि की साढ़ेसाती (बृहत् कल्याणी )

शनि की साढ़ेसाती (बृहत् कल्याणी ) / Shadhe saati of the planet Shani /शनि की साढ़े साती के उपाय 

शनि की साढ़े साती क्या होती है ? (For English translation click here)
किसी व्यक्ति की जन्म राशि से शनि गोचर भ्रमण करते हुए बारहवें, पहले व दूसरे भाव में आ जाये, तो इस साढ़े सात वर्ष की अवधि को शनि की साढ़े साती या बृहत कल्याणी कहा जाता है। जन्म राशि से बारहवी राशि में सिर पर, जन्म राशि में ह्रदय पर तथा द्वितीय राशि में पैरों पर शनि का प्रभाव माना  जाता है।
शनि एक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक रहता है तथा सम्पूर्ण राशि चक्र का भ्रमण तीस वर्ष में पूरा करता है।
इस प्रकार किसी व्यक्ति के जीवन में शनि की साढ़े साती की तीन आवृत्तियाँ आ सकती हैं। शनि की साढ़े साती के दौरान शनि अशुभ फल करता है और विशेष रूप से जब यह जन्म कुंडली में अशुभ स्थिति में हो तो यह निराशा, मानसिक तनाव, परेशानियाँ, विवाद, वित्तीय हानियाँ, बीमारियाँ व शत्रु के कारण परेशानियाँ उत्पन करता है।
हालाँकि सम्पूर्ण अवधि में शनि एक जैसा फल नहीं देता है। अन्य ग्रहों की गोचर की स्थिति और दशा अंतर दशा की स्थिति के कारण परिणाम में अन्तर आ जाता है।
इसके अतिरिक्त  शनि जन्म कुंडली में योग कारक, षडबल से युक्त, उच्च, स्व, मित्र राशि  या शुभ स्थान में हो तो व्यक्ति को  सुख सम्पति एवं व्यापार में अनायास ही सफलता दिला  देता  है। उसका विवाह, बच्चों  का जन्म या नौकरी में तरक्की , चुनाव में जीत , विदेश यात्रा , आदि  शुभ कार्य इस साढ़ेसाती के दौरान होते हैं।
शनि को न्याय का ग्रह माना जाता है। इसलिए यह व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए कर्मों के अनुसार उसे अच्छा या बुरा फल देता है। बुरे कार्य के लिए सजा देता है और अच्छे कार्य के लिए पुरुस्कृत करता है।
शनि की साढ़ेसाती के उपाए :-
शनि की साढ़ेसाती के दौरान दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए निम्नांकित उपाय लाभकारी हैं :-
कम से कम सात शनिवार तक हनुमान जी के मंदिर में जाकर सात या पाँच बार हनुमान चालीसा का पाठ  करें। (यदि मंदिर में नहीं जाया जा सके तो घर में किसी शांत स्थान पर बैठकर हनुमान चालीसा का ग्यारह बार पाठ  करें।
( या ) शनि वार को सुन्दर कांड का पाठ करें।
 (या) सात शनिवार व्रत रखें , हनुमान जी के मंदिर में जायें , हनुमान जी को 100 ग्राम गुड व 100 ग्राम भुने हुए चने प्रसाद के रूप में चढ़ाएं।
 (या) निम्नांकित मन्त्र का जितना अधिक जप कर सकें उतना जप  करे -
 ॐ शं  शनैश्चराय नमः।
उपरोक्त उपायों के साथ - साथ यथा शक्ति तेल , तिल ,छाता , कम्बल , जूते आदि का  दान करें। कबूतरों को दाना खिलाएं व चीटियों के बिल के पास शक्कर मिला हुआ आटा डालें।
(For English translation click here) 

(7.1.3) Tri Bal Shuddhi / त्रिबल शुद्धि

Tribal Shuddhi / Tribal Shuddhi  in muhurat for marriage /त्रिबल शुद्धि 

त्रिबल शुद्धि क्या है? What is Tribal Shuddhi  (For English translation click here)
विवाह के समय मुहूर्त में त्रिबल शुद्धि देखी जाती हैं जिसमे वर और कन्या के लिए चंद्रबल, वर के लिए सूर्यबल तथा कन्या के लिए गुरु का बल देखा जाता है। भारतीय ज्योतिष में जिन सिद्धांतो को प्रतिपादित किया है उनमें निसंदेह व्यवहारिक पक्ष एवं तार्किक आधार को ध्यान में रखा गया है। ऋषि मुनियों के गहन चिंतन व मनन का परिणाम है कि हमारे पास जीवन में आनेवाले सभी संस्कारों एवं अन्य कार्यों के लिए धरोहर के रूप में उपयुक्त मार्गदर्शन उपलब्ध है। विवाह के समय चंद्रबल, सूर्यबल और गुरुबल देख जाता है।
चन्द्रबल / चंद्र शुद्धि क्यों देखी  जाती है? 
चन्द्रमा मन का कारक है। एकाग्रता व निरंतरता चंद्रबल (शुद्धि) पर आधारित होती है। प्रत्येक कार्य की सफलता उसकी प्रक्रिया में एकाग्रता पर आधारित होती है। विवाह के मुहूर्त में वर और कन्या दोनों की राशि   से चंद्रबल देखा जाता है ताकि विवाह के बाद उनके गृहस्थ जीवन में उनका मन स्थिर रहे और ध्यान की एकाग्रता बनी रहे।
सूर्य शुद्धि / सूर्य बल क्यों देखा जाता है ?
विवाह के बाद गृहस्थी के लिए संसाधन जुटाना पुरुष का कर्तव्य है। सूर्य आत्मा का कारक है तथा आत्मविश्वास का प्रतीक है। अतः विवाह के मुहूर्त में वर की राशि से सूर्य का बल देखा जाता है।
गुरु शुद्धि / गुरुबल क्यों देखा जाता है ? 
गुरु विवेक, बुद्धि और समझ का करक है। विवाह के पश्चात परिवार में सामंजस्य, सोहार्द्र बनाये रखने में महिला की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए कन्या की राशि से गुरुबल देखा जाता है ताकि वह कन्या विवाह के पश्चात आपसी समझ से गृहस्थी के दायित्व को निभा सके, परिवार में समरसता बनाये रखे।
श्रेष्ठ चन्द्रमा:- जब चन्द्रमा जन्म राशि से 1,2,3,5,6,7,9,10,11 वां हो तो श्रेष्ठ माना जाता है।
नेष्ट  चन्द्रमा:- जब चन्द्रमा जन्म राशि से (प्रसिद्द नाम से)4,8,12 वां हो तो नेष्ट  माना जाता है।
परिहार - पाणिग्रहण  में  बारहवाँ चन्द्रमा वर को तो ग्राह्य है परन्तु कन्या के लिए नेष्ट (अशुभ) माना जाताहै। 
श्रेष्ठ सूर्य:- जब सूर्य वर की राशि से 3,6,10,11 वां हो तो श्रेष्ठ माना जाता है।
पूज्य सूर्य:- जब सूर्य वर की राशि से 1,2,5,7,9 वां हो तो सूर्य का जप, दान, पूजा आदि करने से शुभ होता है।
नेष्ट  सूर्य:- जब सूर्य वर की राशि से 4,8,12 वां हो तो ऐसा सूर्य नेष्ट (अशुभ) माना जाता है।
परिहार:- जब सूर्य उच्च राशि पर हो, स्वगृही, मित्र क्षेत्री या वर्गोत्तामी हो तो विशुद्ध माना जाता है।
श्रेष्ठ गुरु:- जब गुरु कन्या की राशि से 2,5,7,9,11 वां हो तो श्रेष्ठ माना जाता है।
पूज्य गुरु:- जब गुरु कन्या की राशि से 1,3,6,10 वां हो तो गुरु का जप, दान, पूजा आदि से शुभ होता है।
नेष्ट  गुरु:- जब गुरु कन्या की राशि से 4,8,12 वां हो तो नेष्ट  माना जाता है।
परिहार:- जब गुरु अपनी उच्च राशि में हो या स्वराशि या मित्र की राशि में हो या वर्गोत्तमी हो तो विशुद्ध माना जाता है। यह विवाह में ग्राह्य है।
(सन्दर्भ - बालबोध ज्योतिष सार समुच्चय पेज 80 तथा शिवशक्ति पंचांग पेज 105  तथा ज्योतिष ज्ञान चन्द्रिका पेज 92 , 93 , 94 )
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(7.2.3) Muhurat for Hindu Marriage /Hindu Marriage dates for the current year 

(7.2.3) Hidhu marriage dates / हिन्दू विवाह मुहूर्त

Hindu Vivah Muhurat / Hindu Marriage dates / Vivah dates / wedding dates /हिन्दू विवाह मुहूर्त / शादी का मुहूर्त 

(For English translation click here) 
हिन्दू  मान्यता के अनुसार विवाह संस्कार व्यक्ति के सोलह संस्कारों में से एक है।  वैवाहिक जीवन की सफलता के लिए विवाह का सही समय पर मुहूर्त के अनुसार सम्पन्न होना चाहिए। विवाह के मुहूर्त के लिए निम्नांकित बातों/घटकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए -
> त्रिबल शुद्धि - कन्या के  गुरु बल, वर के  सूर्य बल तथा दोनों के चंद्र बल पर विचार करना चाहिए।
> तिथि - शुक्ल पक्ष की 2,3,4,5,6,7,8,9,10,11,12,13,15
कृष्ण पक्ष की 1,2,3,4,5,6,7,8,9,10,11,12
> वार - सभी वार ग्राह्य हैं।
> नक्षत्र - अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा,माघ, तीनों उत्तरा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, मूल, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती।
> समय शुद्धि  (विवाह मुहूर्त में अशुद्ध काल ) निम्नांकित अशुद्ध कालांश को टाला जाता है - धनु मल मास, मीन मल मास ,अधिक मास, सिंहस्थ गुरु, गुरु तथा शुक्र का अस्त कालांश, श्राद्ध पक्ष, होलाष्टक, देव शयन कालांश।> विवाह मुहूर्त के दिन, दिनांक, समय के लिए यहाँ क्लिक करें  

Wednesday 14 September 2016

(5.1.8) Shraddh dates this year /Pitri Paksh dates/Shraddh paksh kya hai?

Dates of Shraddh Paksh / Pitri Paksh dates this year  / श्राद्ध पक्ष दिन व दिनांक / श्राद्ध पक्ष कब है ?

श्राद्ध पक्ष सोलह दिन की अवधि है जो भाद्रपद पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन माह की अमावस्या  तिथि तक चलती है।  हिन्दू मान्यता के अनुसार मृत पूर्वज (पितृ /पितर ) जो पितृ लोक में रहते हैं , इस श्राद्ध पक्ष की अवधि में व्यक्ति द्वारा दिए गए दान, पिण्डदान, भोजन आदि स्वयं ग्रहण करते हैं।
इस वर्ष श्राद्ध पक्ष के प्रारम्भ और समाप्ति की तिथि जानने के लिए यहाँ क्लिक करें - श्राद्ध पक्ष / पितृ पक्ष की दिनांक तथा दिन 
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(5.1.7) What is Shraddh / Benefits of Shraddh 

(5.1.7) Shraddh / Shraaddh in Hinduism /What is shraaddh

श्राद्ध / श्राद्ध क्या है ?  श्राद्ध किसे कहते हैं ? श्राद्ध क्यों किया जाता है? श्राद्ध करने के क्या लाभ हैं ?Benefits of Shraaddh / What is shraaddh ? 

श्राद्ध किसे कहते हैं ? - (for English translation click here )
अपने मृत पूर्वजों, जिन्हें पितर (पितृ ) कहा जाता है, के निमित्त किया जाने वाला कार्य श्राद्ध कहलाता है।  इन कार्यों में प्रमुख हैं -
> पिण्ड  दान
> तर्पण
> ब्राह्मणों को भोजन कराना
> गाय, कुत्ते, तथा कौए को भोजन देना।
श्राद्ध क्यों किया जाता है ? श्राद्ध करने से क्या लाभ होता है ? -
शास्त्रों में मनुष्य के लिए तीन प्रकार के ऋण बताये गए हैं।  ये तीन ऋण हैं - देव ऋण , ऋषि ऋण तथा  पितृ ऋण। श्राद्ध करके पितृ ऋण उतारा जाता है।
विष्णु पुराण के अनुसार - " श्राद्ध से तृप्त होकर पितृ गण समस्त कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं। इसके अतिरिक्त श्राद्ध करने वाले व्यक्ति से विश्वे देव गण , पितृ गण, मातामह तथा कुटुम्बीजन - सभी संतुष्ट रहते हैं।  पितृ  पक्ष में स्वयं श्राद्ध ग्रहण करने आते हैं तथा श्राद्ध मिलने पर प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध नहीं मिलने पर निराश हो जाते हैं तथा शाप देकर लौट जाते हैं।
 (for English translation click here ) 

(6.3.1) Durga Mantra (parivaar men sneh tatha shanti ke liye) in Hindi

Parivaar men Shanti tatha Sneh Ke LiyeDurga Manra  दुर्गा मंत्र (परिवार में शांति व स्नेह हेतु )

दुर्गा, देवी का अवतार है जो दिव्य शक्तियों का प्रतीक है।ऐसा विश्वास किया जाता है कि दुर्गा,देवी लक्ष्मी ,काली ,और सरस्वती की शक्तियों का मिश्रित रूप है।उसमें उसके भक्तों को सम्पन्नता,शांति ,प्रसन्नता ,शक्ति और बुद्धि देने का सामर्थ्य है।
मंत्र जप की प्रक्रिया :-
सुबह स्नान करके ऊनी  आसन पर पूर्व या  उत्तर की तरफ  मुख करके किसी शांत स्थान पर बैठ जाएँ।देवी दुर्गा का चित्र अपने सामने रख लें।अपनी आखें बंद करके देवी दुर्गा का  ध्यान करें ।भावना करें कि देवी दुर्गा जगत की माता है जो अपने भक्तों की इच्छा पूर्ति करती है।कष्टों से मुक्त करके उन्हें प्रसन्नता,सम्पन्नता,शक्ति व बुद्धि देती है।ऐसी देवी दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ  और प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझे मन की शांति दे ,मेरे परिवार में शांति व  प्रसन्नता और स्नेह का वातावरण बनाये रखें ।परिवार के सभी सदस्य सकारात्मक तथा स्नेह पूर्ण भावना के साथ रहें।
ऐसी प्रार्थना और भावना के बाद निम्नाकित मंत्र का 540 बार (पांच माला का) जप तीन माह तक प्रतिदिन करें।अपेक्षित परिणाम हेतु इस मंत्र का 125000 बार जप करना चाहिए। मंत्र निम्न अनुसार है :-
 या देवी सर्व भूतेषु शांतिरूपेण संस्थिता ,
 नमस्तस्यै, नमस्तस्यै ,नमस्तस्यै नमो नमः। 
मंत्र जप के बाद आखें बंद करके शांत भाव से बैठें और देवी दुर्गा के असीम स्नेह पर मनन करें।अपने मन में भावना तथा विश्वास करें कि देवी दुर्गा ने आपकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया है।वे आप पर और आप के परिवार पर उनका आशीर्वाद उड़ेल रहीं हैं।देवी दुर्गा की कृपा से आपके परिवार में स्नेह व शांति का वातावरण उत्पन्न होगा।(For English translation click here)

(7.1.2) Kaal Sarp Yog kya hai / Janm Kundali men Kaal Sarp Yog

Kaal Sarp Yog Kya Hai ? काल सर्प योग / काल सर्प दोष 

काल सर्प योग (कितनी सच्चाई कितनी भ्रान्ति ?)
वर्तमान में कालसर्प योग के बारे में बहुत कुछ कहा और सुना जाता है | कई लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि ऐसी कुंडली वाला व्यक्ति अपने जीवन में तरह - तरह की समस्याओं  का सामना करता है और उसके द्वारा किये गए अधिकतर प्रयासों का उसे कोई लाभ नहीं मिलता है। जबकि वास्तविक स्थिति यह नहीं है | यह इस योग का केवल डराने वाला पक्ष है | केवल कालसर्प योग से ही कुण्डली की सब बातें तय नहीं हो जाती हैं |इस योग के बारे में बिन्दुवार विश्लेषण व जानकारी से सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा | बिन्दुवार जानकारी इस प्रकार है -  
योग किसे कहते हैं?
जब दो या दो से अधिक ग्रह किसी जातक की कुंडली में किसी राशि में साथ- साथ या किसी अंतर पर स्थित होते हैं तो वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं. ग्रहों की इस स्थिति को ज्योतिष की भाषा में योग कहते हैं | ग्रहों की इन परस्पर शुभ स्थितियों से शुभदायक योग बनते हैं और अशुभ स्थितियों से अशुभदायक योग बनते हैं.   
शुभ योगों से कुंडली सबल हो जाती है और अशुभ योगों से निर्बल हो जाती है। तथाकथित कालसर्प योग भी उनमें से एक है, जिसे अशुभ योगों की श्रेणी में माना जाता है | वर्तमान में तो कालसर्प योग की इतनी अधिक चर्चा होती है जैसे कि जन्म कुंडली का फलादेश इस योग से ही तय होता है और कुण्डली में बने शेष योग कोई महत्व नहीं रखते | जबकि वास्तविकता यह नहीं है | कुण्डली में बने अन्य योगो की अनदेखी करके तथा ग्रहों की दशा - अन्तर्दशा व गोचर की स्थिति पर ध्यान नहीं देकर सही फलादेश किया ही नहीं जा सकता | 
काल सर्प योग भयावह क्यों बन गया है ?
काल सर्प योग एक अशुभ योग है। इसके नाम ने इसे और भी अधिक डरावना बना दिया है - काल का अर्थ है "मृत्यु" तथा सर्प का अर्थ है "साँप" जो बहुत ही कष्ट दायक स्थिति का  संकेत देता है।इसके अतिरिक्त कुछ लोग इसके प्रभाव का इस भयावह तरीके से वर्णन करते हैं जिससे व्यक्ति काल्पनिक भय से भर जाता है और जीवन में अमंगल या अशुभ घटनाओं की कल्पना करने लगता है |
काल सर्प योग कैसे बनता है ?
वर्तमान परिभाषा के अनुसार   कुंडली में सात ग्रह - सूर्य ,चन्द्रमा , मंगल ,बुध , गुरु , शुक्र और शनिजब राहु और केतु के बीच स्थित हों तो ऐसी कुंडली में काल सर्प दोष बनता है।
कुछ दैवज्ञ मानते हैं कि जब ये सात ग्रह केतु और राहु के बीच होते हैं तब भी कुण्डली में कालसर्प योग का निर्माण हो जाता है |
जबकि कुछ कहते हैं कि सातों ग्रह राहु – केतु के बीच आतें हैं तब ही काल सर्प योग बनता है न कि केतु – राहु के बीच आने पर |
कुछ देवज्ञ मानते हैं कि कोई भी ग्रह राहु - केतु के बीच में न होकर बाहर आ जाये, तो यह आंशिक कालसर्प  योग कहलाता है और कुछ अन्य के अनुसार इस स्थिति में काल सर्प योग का निर्माण ही नहीं होता है |
कुछ विद्वान मानते हैं कि कालसर्प योग 12 प्रकार का होता है जबकि कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार कालसर्प योग 288 प्रकार का होता है | कालसर्प योग 288 प्रकार का होने पर तो यह योग अधिकांश व्यक्तियों की कुण्डली में उपस्थित होगा तो क्या वे सब इस योग से पीड़ित होंगे ? 
ये सब मतान्तर क्यों हैं ? क्योंकि ज्योतिष के प्राचीन तथा प्रमाणिक ग्रंथों में कालसर्प योग का कोई उल्लेख नहीं होने से अलग – अलग लोगों ने अपने अपने अनुभव तथा ज्ञान के आधार पर इस योग के बारे अपनी – अपनी व्याख्या कर दी है |
काल सर्प योग का अशुभ प्रभाव
जो लोग कालसर्प योग को मानते हैं, उनका कहना है कि जिस व्यक्ति की कुंडली में काल सर्प योग होता है उसके शिक्षा में रूकावट आती है, विवाह में विलम्ब होता है,जीवन में तनाव रहता है, संतान पक्ष से असंतुष्टि रहती है, आये दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं, व्यवसाय में बाधा आती है, कुंडली के अच्छे योग भी कालसर्प योग के कारण शुभ प्रभाव उत्पन्न नहीं करते,. ऐसा भी कहा जाता है कि उस व्यक्ति को डरावने स्वप्न आते हैं और स्वप्न में साँप दिखते हैं. (जबकि वास्तविकता यह नहीं है. यह केवल डराने वाला पक्ष है. ये बातें कुंडली में अन्य अशुभ योग या योगों के उपस्थित होने से भी हो सकती हैं )
मनोवैज्ञानिक बात – कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनका हमारे मन पर शुभ या अशुभ प्रभाव पड़ता है | जैसे किसी को कहा जाये कि जब आप किसी मंत्र का आँखें बंद करके जप करें तो उस समय आपके दिमाग में जल में तैरती हुई मछली  की आकृति नहीं आनी चाहिए या नहीं दिखनी चाहिये, तभी यह मंत्र अपना प्रभाव दिखायेगा I तो यह मानकर चलो यह आकृति आपको अवश्य दिखेगी I ऐसे ही आपको कहा जाये कि कुंडली में काल सर्प योग होने पर उस व्यक्ति को स्वप्न में साँप दिखाई देता है तो निश्चित ही आपको सपने में साँप दिखने लगेगा | इसी प्रकार आपके जीवन में कोई कठिनाई आयी तो आप उसे कालसर्प योग से जोड़ कर देखने लगेंगे,यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है|    
कालसर्प योग की वास्तविकता  -
कुंडली में राहु - केतु  की स्थिति से ही सब कुछ तय नहीं हो जाता। शेष सात ग्रहों का और उनकी स्थिति का भी अपना महत्व है।उनकी शुभ या अशुभ स्थिति कुंडली को प्रभावित करती है।कुंडली में उच्च राशि  में स्थित ग्रह , शुभ योग जैसे - गज केसरी योग , राज योग या अन्य कोई शुभ योग हो या राहु और केतु भी अच्छी स्थिति में हो या अपनी उच्च राशि में हो, तो तथाकथित काल  सर्प योग प्रभाव हीन हो जाता है।
इसके अतिरिक्त वैदिक ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में काल सर्प योग का कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन बाद के विद्वानों ने इस योग का उल्लेख किया है और धीरे  - धीरे इसे भयावह योग के रूप में पहचान मिलती जा रही है।लोग इसके नाम से ही हताश और निराश हो जाते हैं। जबकि  वास्तविकता यह है कि कठिनाइयाँ हरेक व्यक्ति के जीवन में आती हैंअसफलता प्रत्येक को मिलती  हैं, कष्ट , बीमारियाँ ,दुर्घटनायें जीवन के साथ जुडी हुई हैं। इनको यों ही कालसर्प योग से जोड़ दिया जाता है. कुंडली में कुछ दूसरे अशुभ योग, शनि साढ़ेसाती या शनि  की ढेया आदि भी इन घटनाओं के कारण बनते हैं न कि कालसर्प योग | इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण बात है कि प्रत्येक ग्रह एक राशि पर एक निश्चित समय तक रहता है | यदि चन्द्रमा केतु के पास वाले भाव में हो तो उसे जिस राशि  पर राहु है उस राशि से आगे बढ़ने में (अर्थात कालसर्प योग की स्थिति समाप्त होने में) लगभग बारह दिन या  अधिक दिन का समय लग जाता है तो क्या इस बारह दिन की अवधि में जन्में लाखों लोग इस अशुभ काल सर्प योग से ग्रसित होंगे ? यह सोचनीय और विचारणीय बात है |
अत: यदि किसी की  कुंडली में तथाकथित काल सर्प योग है  तो उसे इस योग से  भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है इसके साथ साथ इस तथ्य को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कुण्डली का विश्लेषण केवल एक योग को देखकर नहीं किया जा सकता इसके लिए ग्रहों की दशा, अन्तर्दशा, प्रत्यंतर दशा व ग्रहों की गोचर स्थिति का भी ध्यान रखना होता है |
हालाँकि इस योग के प्रति एक बार जमे हुए कुविश्वास को दूर करना बहुत मुश्किल  है अत: व्यक्ति अपने अन्दर आत्म विश्वास भरने व निराशा की भावना को दूर करने के लिए भगवान् शिव की उपासना करे तथा विशेष रूप से महा मृत्युंजय मंत्र या त्र्यक्षर मृत्युंजय मंत्र का जप करे।    
यह भी याद रखिये –
पुण्य से व्याधि का हरण होता है , पुण्य से ग्रह जनित प्रकोपों की शान्ति होती है, पुण्य से शत्रु भी दबाते हैं, जहाँ धर्म है, वहीं विजय है |
उल्लेखनीय बात
यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक कि कई ऐसे व्यक्ति भी हैं जिनकी कुंडली में तथाकथित काल सर्प योग उपस्थित है लेकिन उन्होंने अपने जीवन में अपार सफलता और प्रसिद्धि प्राप्त की है. उनमें से मुख्य- मुख्य निम्नांकित हैं -  
पण्डित जवाहर लाल नेहरु , मोरारी बापू , धीरुभाई अम्बानी, अमिताभ बच्चन, मोहनलाल सुखाडिया, दिलीप कुमार फिल्म अभिनेता , सचिन तेंदुलकर, आचार्य रजनीश आदि जो विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्ध रखते हैं.


कुंडली विश्लेषण
नाम धीरुभाई अम्बानी , जन्म दिनांक -28.12-1932, जन्म समय 06:37 प्रातःकाल, जन्म स्थान – Veraval 
यदि धीरुभाई अम्बानी की जन्म कुंडली का विश्लेषण करें तो आप पाएंगे कि यह धनु लग्न की कुण्डली है, लग्न में सूर्य और चन्द्रमा हैं , दूसरे भाव में शनि है  तीसरे भाव में राहु है, नवेँ भाव में मंगल और केतु हैं, दशवें भाव में गुरु है और बारहवें भाव में शुक्र और बुध स्थित हैं | इस कुण्डली के तीसरे भाव में राहु के होने से अन्य ग्रह राहु और केतु के बीच में आ गए जिससे तथाकथित कालसर्प योग का निर्माण हो गया |
लेकिन इस कुण्डली में कई शुभ योग हैं जिनके कारण इसमें तथाकथित काल सर्प योग होने पर भी उन्होंने जीवन में सफलता प्राप्त की है. इनकी कुंडली में ग्रहों की शुभ स्थिति और शुभ योग निम्नानुसार हैं
(1)चन्द्रमा से केंद्र स्थान यानि दसवें भाव में गुरु के स्थित  होने से गज केसरी योग का निर्माण हो रहा है. यह योग जातक को तेजस्वी, धनवान, मेधावी, गुणवान, और राजप्रिय बनाता है.
(2)लग्न में भाग्येश सूर्य स्थित है और गुरु का लग्न पर केन्द्रीय प्रभाव है.
(3)गुरु की पाँचवी पूर्ण दृष्टि धन भाव पर है और धनेश स्वयं धन भाव में स्थित है. यह स्थिति व्यक्ति को धनवान बनाती है. गुरु की सातवी पूर्ण दृष्टि सुख भाव पर है. यह जातक को सुखी, संतुष्ट, आवास-वाहनादि सुखों से युक्त करती है.
(4)तीसरे भाव में स्थित राहु जातक को साहसी बनता है और ख्याति भी देता है. 
(5)पंचम भाव का स्वामी मंगल भाग्य भाव में मित्र राशि में स्थित है जो भाग्य को बढ़ा रहा है.
(6)भाग्य भाव का स्वामी सूर्य मित्र राशि में लग्न में स्थित होकर भाग्य वृद्धि का योग बना रहा है.
(7)शुक्र बारहवें भाव में स्थित है यह स्थिति  जातक को जीवन के सभी भौतिक सुख देती है.    
यदि उपर्युक्त विवरण को ध्यान में रखें और रचनात्मक तथा सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें तो कालसर्प योग वाले व्यक्ति बहुत सफलता पाते हैं और बहुत ऊंचाई पर पहुँच जाते हैं, लेकिन साथ ही यह भ्रम भी न रखें कि उन्हें यह सफलता राहु केतु से निर्मित तथाकथित कालसर्प योग के कारण मिली है. वास्तव में यह सफलता उनकी  कुंडली के अन्य शुभ योगों के कारण मिली है. अतः कालसर्प योग का भय मन निकाल दें और ईश्वर में विश्वास रखते हुये अपना कार्य करें सफलता अवश्य मिलेगी.