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Sunday 18 October 2020

(9.1.3) Mahatma Vidur (Neetigya and Mahabharat ke patra)

 Mahatma Vidur (Neetigya and Mahabharat ke patra)

महात्मा विदुर नीतिज्ञ और महाभारत के पात्र

विदुर धृतराष्ट्र और पांडु के लघु भ्राता थे। दासी पुत्र होने के कारण वे राज्य के अधिकारी नहीं हुए। मांडव्य ऋषि के द्वारा श्राप के कारण धर्मराज ने ही विदुर जी के रूप में जन्म लिया था। वह परम बुद्धिमान, प्रज्ञा शक्ति से संपन्न तथा महान योग बल से प्रतिष्ठित थे। इनके प्रज्ञा वैभव एवं बुद्धि चातुर्य के विषय में वेदव्यास कहते हैं कि देव गुरु बृहस्पति और असुर गुरु शुक्राचार्य भी वैसे बुद्धिमान नहीं है जैसे पुरुष प्रवर विदुर है।

जब कभी पुत्र स्नेहवश धृतराष्ट्र पांडवों को दुख देने या उनके अहित की योजना सोचते, तब विदुर उन्हें यानी धृतराष्ट्र को समझाते थे। जब दुरात्मा दुर्योधन ने लाक्षागृह में पांडवों को जलाने का षड्यंत्र किया, तब विदुर ने उन्हें बचाने की व्यवस्था की और कूट भाषा या (यावनी भाषा ) में संदेश भेजकर युधिष्ठिर को पहले ही सावधान कर दिया, जिसके कारण पांडवों के प्राण बच गए।

जब पांडवों को 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास हुआ तो विदुर जी बहुत दुखी हुए। पांडवों के वनवास के समय, दुर्योधन के भड़काने से एक दिन धृतराष्ट्र ने क्रोध में आकर विदुर को कहा," तुम हमेशा पांडवों की प्रशंसा करते रहते हो, उन्हीं के पास चले जाओ। मेरे यहां मत रहो।" विदुर उसी समय पांडवों के पास जाकर जंगल में रहने लगे। उनके चले जाने के बाद धृतराष्ट्र को उनके महत्व का पता चला। वे विदुर की अनुपस्थिति में अपने आपको असहाय समझने लगे। उन्होंने दूत भेजा। अपने अपराध की क्षमा चाही और शीघ्र ही विदुर जी से हस्तिनापुर आने की प्रार्थना की। धृतराष्ट्र की प्रार्थना स्वीकार कर विदुर जी लौट आए।

महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ तो विदुर जी किसी के भी पक्ष में नहीं रहे। अवधूत वेश बनाकर 12 वर्ष तक पृथ्वी पर विचरण करते रहे। जो मिल जाता, वही खा लेते। जहां रात्रि हो जाती ,वही सो जाते। फल फूल खाते हुए सभी तीर्थों में घूमते रहे। मैत्रेयजी से ज्ञानोपदेश प्राप्त करके वह हस्तिनापुर पहुंचे। पांडवों ने इनका बहुत सत्कार किया। कुछ दिन वहां रहे। अंत में, इन्होंने धृतराष्ट्र से वन में चलकर तपस्या करने के लिए कहा। इनकी बात मानकर वे गांधारी और कुंती के साथ वन में चले गए। विदुर जी भी उनके साथ थे। वन में जाकर विदुर जी ने एक पेड़ के सहारे खड़े खड़े ही योगियों की तरह अपने शरीर को त्याग दिया और अपने स्वरूप में मिल गए।

        महाभारत में वर्णन आता है कि धृतराष्ट्र मोह वश अपने पुत्र दुर्योधन का अधिक पक्ष लेते थे। इस कारण वे बहुत दुखी भी रहते थे। अधर्म नीति के परिणामों को जान कर वे अत्यंत विकल हो गए। अनिश्चय की स्थिति में पहुंच गए तो उन्होंने एक दिन अमात्य विदुर जी को बुलवाया और अपनी चिंता मिटाने का उपाय पूछा इस पर विदुर जी ने जो उपदेश धृतराष्ट्र को दिया वहीं विदुर नीति के नाम से जाने जाते हैं। विदुर जी ने बहुत सी बातें समझाई है। हालांकि यह बातें धृतराष्ट्र को संबोधित करके कही गई है परंतु यह बातें सभी के लिए कल्याणकारी व उपयोगी है।