Chatushloki Bhagwat / चतुःश्लोकी भागवत /चतुःश्लोकी भागवत के पठन व श्रवण के लाभ
चतुःश्लोकी भागवतब्रह्मा जी द्वारा भगवान् नारायण की स्तुति किये जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत - तत्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था। यही श्लोक मूल चतुः श्लोकी भागवत है।
इन चार श्लोकों की उत्पत्ति श्री विष्णु के मुखारविन्द से हुई है। भगवान नारायण ने ब्रह्मा जी को ये चार श्लोक दिये थे । ब्रह्मा जी ने ये चार श्लोक नारद जी को दिये और नारद जी ने ही ये श्लोक वेद व्यास जी को दिये थे। वेद व्यास जी ने इन चार श्लोकों का विस्तार करते हुए 18,000 श्लोकों का महा ग्रन्थ निर्मित कर दिया जिसका नाम हुआ श्रीमद्भागवत महापुराण।
चतुः श्लोकी भागवत के पठन - श्रवण के लाभ इस प्रकार हैं -
इन चार श्लोकों को पढ़ने और सुनने से पूरी भागवत कथा के श्रवण का फल प्राप्त होता है।
व्यक्ति सभी पापकर्मों से मुक्त होकर जीवन में सत्य मार्ग का अनुसरण करता है।
इसके पठन - श्रवण से अज्ञानता और अहंकार का नाश होता है और वास्तविक ज्ञान रूपी सूर्य का उदय होता है।
नकारात्मक शक्तियाँ दूर रहती हैं।
दुर्भाग्य तथा सभी प्रकार के क्रोध - शोक का नाश होता है।
व्यक्ति को मानसिक शान्ति मिलती है।
परिवार में सुख शान्ति रहती है।
पितरों को मुक्ति मिलती है।
पितृ दोष समाप्त होते हैं।
ये चार श्लोक इस प्रकार हैं -
अहमेवासमेवाग्रे
नान्यद्यत्सदसत्परम्।
पश्चादहं
यदेतच्च योSवशिष्येत सोSस्म्यहम् ।१।
ऋतेSर्थं यत्प्रतीयेत न
प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो
मायां यथाSSभासो यथा
तमः।२।
यथा
महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि
तथा तेषु न तेष्वहम् ।३।
एतावदेव
जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मन:।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां
यत स्यात सर्वत्र
सर्वदा।४।
इन चार श्लोकों का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है -
भगवान् कहते हैं -
(1) सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था , मेरे अतिरिक्त जो स्थूल , सूक्ष्म या प्रकृति हैं - इन में से कुछ भी नहीं था , सृष्टि के पश्चात भी मैं ही था , जो यह जगत (दृश्यमान) है , यह भी मैं हूँ और प्रलय काल में जो शेष रहता है वह मैं ही हूँ।(2) जो मुझ मूल तत्व के अतिरिक्त सत्य सा प्रतीत होता है अर्थात दिखाई देता है परन्तु आत्मा में प्रतीत नहीं होता अर्थात दिखाई नहीं देता है , उस अज्ञान को आत्मा की माया समझो जो प्रतिबिम्ब या अंधकार की भाँति मिथ्या है।
(3) जैसे पाँच महाभूत ( अर्थात पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु और आकाश ) संसार के छोटे - बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए उनमें प्रविष्ट नहीं हैं , वैसे ही मैं भी सबमें व्याप्त होने पर भी सबसे पृथक हूँ।
(4) आत्म तत्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय ( सृष्टि ) अथवा व्यतिरेक ( प्रलय ) क्रम में जो तत्व सर्वत्र एवं सर्वदा ( स्थान और समय से परे ) रहता है , वही आत्म तत्व है।