विदुर कौन थे? महात्मा विदुर का चरित्र चित्रण Vidur Kaun The / Vidur Ka Charitra Chitran
विदुर धृतराष्ट्र और पांडु के लघु भ्राता थे। दासी पुत्र होने के कारण वे राज्य के अधिकारी नहीं हुए। मांडव्य ऋषि के श्राप के कारण धर्मराज ने ही विदुर जी के रूप में जन्म लिया था।
वे परम बुद्धिमान, प्रज्ञा शक्ति से संपन्न तथा महान योग बल
से प्रतिष्ठित थे। उनके प्रज्ञा वैभव एवं बुद्धि चातुर्य के विषय में वेदव्यास जी
कहते हैं कि देवगुरु बृहस्पति और असुर गुरु शुक्राचार्य भी वैसे बुद्धिमान नहीं
हैं, जैसे पुरुष प्रवर विदुर हैं।
जब कभी पुत्र मोह
वश, धृतराष्ट्र पांडवों को दुख देने या उनके अहित की योजना
सोचते, तब विदुर जी उन्हें यानि धृतराष्ट्र को
समझते थे। जब दुरात्मा दुर्योधन ने लाक्षागृह में पांडवों को जलाने का षड्यंत्र
किया, तब विदुर ने उन्हें बचाने की व्यवस्था की
और कूट भाषा में संदेश भेजकर युधिष्ठिर को पहले से ही सावधान कर दिया, जिसके कारण पांडवों के प्राण बच गए।
जब पांडवों को 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास हुआ तो विदुर जी बहुत
दुखी हुए। पांडवों के वनवास के समय दुर्योधन के भड़काने से एक दिन धृतराष्ट्र ने
क्रोध में आकर विदुर जी को कहा कि तुम हमेशा पांडवों के प्रशंसा करते रहते हो, उनके पास चले जाओ, मेरे पास मत रहो। विदुर जी उसी समय पांडवों के पास
जाकर जंगल में रहने लगे। उनके चले जाने के बाद धृतराष्ट्र को उनके महत्व का पता
चला। वे विदुर जी की अनुपस्थिति में अपने आप को असहाय समझने लगे। उन्होंने दूत
भेजा, अपने अपराध के लिए क्षमा चाही और विदुर
जी से शीघ्र ही हस्तिनापुर आने की प्रार्थना की। धृतराष्ट्र की प्रार्थना स्वीकार
कर विदुर जी लौट आये।
महाभारत का युद्ध
प्रारंभ हुआ तो विदुर जी किसी के भी पक्ष में नहीं रहे। अवधूत वेश धारण करके 12 वर्ष तक पृथ्वी पर विचरते रहे। जो कंदमूल
मिल जाता, वही खा लेते, जहां रात्रि हो जाती वहीं सो जाते।
फल-फूल खाते हुए तीर्थ स्थानों पर घूमते रहे। मैत्रेय जी से ज्ञानोपदेश प्राप्त
करके वे हस्तिनापुर पहुंचे। पांडवों ने उनका बहुत सत्कार किया। कुछ दिन वहाँ रहे।
अंत में उन्होंने धृतराष्ट्र से वन में चलकर तपस्या करने के लिए कहा। उनकी बात
मानकर वे यानि धृतराष्ट्र , गांधारी और कुंती के साथ वन में चले गए। विदुर जी भी उनके
साथ थे। कुछ समय बाद विदुर जी ने एक पेड़ के सहारे खड़े-खड़े योगियों की तरह अपने शरीर को त्याग
दिया और अपने सत् स्वरूप में मिल गए।
महाभारत में वर्णन
आता है कि धृतराष्ट्र मोहवश अपने पुत्र दुर्योधन का अधिक पक्ष लेते थे। इस कारण वे
बहुत दुखी भी रहते थे। अधर्म नीति के परिणामों को जानकर वे अत्यंत विकल हो गए।
अनिश्चय की स्थिति में पहुंच गए तो उन्होंने एक दिन विदुर जी को बुलवाया और अपनी
चिंता मिटाने का उपाय पूछा। इस पर विदुर जी ने जो उपदेश धृतराष्ट्र को दिये, वही उपदेश विदुर नीति के नाम से जाने
जाते हैं। विदुर जी ने बहुत सी बातें समझाई हैं। हालांकि ये बातें धृतराष्ट्र को
संबोधित करके कहीं गई हैं, परंतु ये बातें सभी के लिए कल्याणकारी और उपयोगी हैं।