Tuesday 23 June 2015

(2.1.2) Dohe in Rajasthani / Inspirational Dohe in Rajasthani language

Prerak Dohe (राजस्थानी साहित्य में प्रेरणादायक दोहे) संकलित अंश 


Ethics ( Teachings ) in Rajasthani literature --
राजस्थान वीरों की भूमि रहा है। इसका इतिहास गौरव गाथाओं से भरा हुआ है। राजस्थानी साहित्य ने  ऐतिहासिक नर - नरियों  को स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य कार्य करने हेतु प्रेरित किया है। जो  रोचक, सुबोध और सरल  भी है।
1. सुख सम्पत अर औदसा , सब काहू के होय।
    ज्ञानी कटे ज्ञान सूं , मूरख काटे रोय।।
अर्थ - सुख - सम्पति और बुरे दिन तो समयानुसार  सभी के सामने आते रहते हैं, परन्तु ज्ञानी व्यक्ति बुरे दिनों को ज्ञान से काटता है और मूर्ख व्यक्ति उन्हें रोकर  कर काटता है।

2. राम कहे सुग्रीव नैं , लंका केती दूर।
  आलसियाँ अलधी घणी , उद्यम हाथ हजूर।।
अर्थ - राम चंद्र जी ने सुग्रीव  से पूछा , " लंका कितनी दूर है ? " सुग्रीव ने तत्काल उत्तर दिया , " आलसी के लिए तो वह बहुत दूर है , परन्तु उद्यमी के लिए मात्र एक हाथ की  दूरी पर ही है।  अर्थात कर्म वीर के लिए जीवन में उद्यम का ऊँचा स्थान है। बिना उद्यम किसी को भी अपने जीवन में  नहीं मिलती है।

3. कहा लंकपत ले गयो , कहा करण गयो  खोय।
   जस जीवन , अपजस मरण , कर देखो सब कोय।।
अर्थ - लंकापति रावण अपने साथ क्या ले गया और महारथी कर्ण ने संसार में क्या खोया ? सोने की लंका का स्वामी होते हुए भी रावण ने अपयश प्राप्त किया और महारथी कर्ण ने सोने का दान करके संसार में यश प्राप्त किया। कोई भी करके देख ले , यश और अपयश हीतो जीवन और मृत्यु है।

4. जननी जण ऐहडा जणे, के दाता  के सूर।
नातर रहजे बाझडी , मती गमाजे नूर।।
अर्थ - कोई भी माता ऐसी संतान को जन्म दे, जो या तो वीर हो अथवा दानी। ऐसी  संतान के अभाव में जननी का वन्ध्या रहना ही अच्छा  है। असत संतान को जन्म देकर यौवन सौन्दर्य नष्ट करना उचित नहीं है।

5. केहरी केस,  भुजंग मिण , सरणाई सुहड़ाह।
  सती पयोधर , क्रपण धन , पडसी हाथ मुवाँह।।
 अर्थ - सिंह के केश , नाग की मणि , शूरवीर का शरणागत व्यक्ति , सती के पयोधर और कृपण का धन उन के जीवित रहते किसी के हाथ में नहीं आ सकते , ये तो उनके मरने पर ही प्राप्त हो सकते हैं।  

6. रण - चढ़ण , कंकण - बंधण , पुत्र - बधाई चाव।
  ये तीनूं दिन त्याग रा , कहा रंक , कहा राव।।
अर्थ - जब कोई व्यक्ति रणक्षेत्र में जाता हो अथवा जब घर में विवाह का मांगलिक कार्य संपन्न हो या पुत्र का बधाई सन्देश सुनाया जाता हो तो, राजा अथवा रंक सबके लिए ये तीनों त्याग अर्थात दान के  शुभ अवसर हैं।

7. सत मत छोडो हे नराँ , सत  छोड्याँ पत जाय।
 सत  बांधी  लिच्छ्मी , फेर मिलेगी आय।।
अर्थ - अरे लोगों , सत्य अर्थात सन्मार्ग को कभी मत छोडो , उसे छोड़ने से प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है। यदि सन्मार्ग पर दृढ रहे , तो गई हुई लक्ष्मी फिर वापस मिल जाएगी।

8.  सील सरीरह अम्भरण , सोनो भारिम अंग।
    मुख - मण्डण सच्चउ वयण , विण तम्बोलह रंग।।
अर्थ - वास्तव में सील ही वास्तविक अलंकार है , सोना तो अंगों पर पड़ा हुआ भार है। मुख की शोभा सत्य वचन है , न कि ताम्बूल से उसे रँगना।

9. चन्दण , चन्द , सुमाणसां , तीनूं एक निकास।
     उण घसियाँ उण बोलिया , उण ऊँगा होय उजास।।
अर्थ - चन्दन , चन्द्रमा , तथा सज्जन - इन तीनों की उत्पत्ति का मूल स्थान एक ही है, इनके क्रमश: घिसने पर , उगने पर और बोलने पर चतुर्दिक प्रकाश हो जाता है।

10. सरुवर , तरुवर , संत जन , चौथो बरसण मेह।
      परमारथ रे कारणै , च्यारों धारी देह।।
अर्थ - सरोवर , तरुवर , संत जन और जल बरसाने वाला बादल - ये चारों परमार्थ के लिए ही उत्पन्न होते हैं।

11.  घर - कारज, सीलावणा , पर कारज समरत्थ।
      जां नैं राखै सांइयाँ , आडा दे दे हत्थ।।
अर्थ - जो व्यक्ति अपने घर के कार्य में भले ही ढिलाई कर दे  , परन्तु दूसरों का काम पूरा करने में कभी देर नहीं करते हैं, ऐसे व्यक्तियों  को भगवान दीर्घ जीवन प्रदान करे।

12. भल्ला जो सहजे भला , भूंडा किम हिंन हुंत।
      चन्दन विस हर ढंकिऊं, परिमल तउ न तजंत।।
 अर्थ -  जो भोले होते हैं , वे स्वभाव से ही भले होते हैं। वे किसी भी परिस्थिति में बुरे नहीं बनते। चन्दन पर सर्प लिपटे रहते  हैं; परन्तु वह अपना सुवास कभी नहीं छोड़ता।

13. कद सबरी चौका दिया , कद हरि पूछी जात।
     प्रीत पुरातन जाणकर , फल खाया रघुनाथ।।
 अर्थ - शबरी ने अपनी  कुटिया को चौका देकर पवित्र कब किया था और भगवान् श्री राम चन्द्र जी ने उसको अपनी जाति बतलाने के लिए कब कहा था ? पुरातन प्रीति  के कारण  ही तो श्री रामचन्द्रजी ने उसके जूठे बेर खाये  थे।  
14. साईं सूँ  सांचा रहो , बन्दा सूँ सत  भाव।
    भावूं लाम्बां कैस रख , भाबूं घोट मुंडाव।।
 अर्थ - भगवान के प्रति सच्चा रहना चाहिए और भगवद - भक्तों के प्रति सदैव सद्भावना रखनी चाहिए। इतना होने पर चाहे कोई लम्बे केश धारण करे अथवा मुण्डित - मस्तक रहे , इसमें कोई अंतर नहीं पड़ता।

15. जात वलै नहीं दीहड़ा, जिम गिर -निरझरणांह।
      उठरे आतम , धरमकर , सुवै निचंता काह।।
अर्थ - जिस प्रकार पहाड़ के झरने बह जाने के बाद वापस लौट कर नहीं आते , उसी प्रकार बीते हुए दिन लौटकर नहीं आते, ऐसी हालत में हे आत्मन! तुम कभी निश्चिन्त होकर मत सोओ , हर समय धर्म का आचरण करते रहो।
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