Tuesday 30 August 2016

(2.1.12) Chankya Niti in Hindi

 Chanakya Niti (selected Shloks)चाणक्य नीति हिंदी में 

अध्याय -1 श्लोक -12
बीमारी में ,विपत्तिकाल में , अकाल   के समय ,दुश्मनो से दुःख पाने या आक्रमण होने पर , राजदरबार में और श्मशान भूमि में जो साथ रहता है. ,वही सच्चा भाई अथवा बंधु है।
अध्याय -1 श्लोक -13
जो अपने निश्चित कर्मो  अथवा वस्तु का त्याग करके , अनिश्चित की चिंता करता है ,उसका अनिश्चित लक्ष्य तो नष्ट होता ही है , निश्चित भी नष्ट हो जाता है।
अध्याय-2-श्लोक-5:-
 जो मित्र प्रत्यक्ष रूप से मधुर वचन बोलता है और पीठ पीछे आपके सारे कार्यों में रोड़ा अटकाता हो ,ऐसे मित्र को उस  घड़े के समान त्याग देना चाहिए जिसके भीतर विष भरा हो और उपर मुँह के पास दूध भरा
अध्याय -2-श्लोक -9
हर एक पर्वत में मणि नहीं होती है और हर एक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होते हैं।इसी प्रकार साधु लोग सभी जगह नहीं  मिलते हैं,और हर एक वन में चन्दन के वृक्ष नही होते हैं।
अध्याय -3 श्लोक -1
संसार मे ऐसा कौन सा कुल अथवा वंश है ,जिसमें कोई न  कोई दोष अथवा अवगुण न हो ,प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी रोग का सामना करना ही पड़ता है ,ऐसा मनुष्य कौन सा है ,जिसने व्यसनों में पड़कर कष्ट न झेला हो और सदा सुखी रहने वाला व्यक्ति भी कठिनता से ही प्राप्त होता है ,क्योंकि प्रत्येक के जीवन में कभी न कभी कष्ट अथवा संकट उठाने का अवसर आ ही जाता है।
अध्याय -3 श्लोक 4 
दुष्ट व्यक्ति और सांप, इन दोनों में से किसी एक को चुनना हो तो दुष्ट व्यक्ति की अपेक्षा सांप को चुनना ठीक रहता है क्योंकि सांप समय आने पर ही काटता है जबकि दुष्ट व्यक्ति हर समय आपको हानि पहुँचाता है।
अध्याय -3-श्लोक-7
मूर्ख व्यकि से बचना चाहिए क्योंकि वह दो पैरों वाले जानवर से भिन्न नहीं है। वह (मूर्ख व्यक्ति )आपको शब्दों से उसी प्रकार पीड़ित करता है जैसे कोई बिना दिखने वाला कांटा चुभता है।
अध्याय -3-श्लोक-12
अत्यन्त रूपवती होने के कारण ही सीता का अपहरण हुआ ,अधिक अभिमान होने के कारण रावण मारा गया
अत्यधिक दान देने के कारण राजा बलि को कष्ट उठाना पड़ा।इसलिए चाणक्य कहते हैं की अति किसी भी कार्य में नहीं करनी चाहिए।
अध्याय -3-श्लोक-13
समर्थ को भार कैसा?व्यवसायी के लिए कोई स्थान दूर नहीं  है।विद्वान् व्यक्ति के लिए कोई भी देश विदेश नहीं है। जो व्यक्ति मधुर शब्द बोलता है उसके लिए कोई दुश्मन नहीं है।
अध्याय -3श्लोक -14
एक ही सुगन्धित फूल वाले वृक्ष से जिस प्रकार सारा वन सुगन्धित हो जाता है,उसी प्रकार एक सुपुत्र से सारा कुल सुशोभित हो जाता है।
अध्याय -3श्लोक -21
जहाँ मूर्खों का सम्मान नहीं होता है ,जहाँ अन्न भंडार सुरक्षित रहता है ,जहाँ पति -पत्नी में कभी झगड़ा नहीं होता ,वहां लक्ष्मी बिना बुलाये ही निवास करती है।
अध्याय -4-श्लोक -10
इस संसार में दुखी लोगों को तीन बातों से ही शांति प्राप्त हो सकती है -अच्छी सन्तान ,अच्छी पत्नी और भले लोगों की संगति।
अध्याय -4-श्लोक -18
बुद्धिमान व्यक्ति को बार -बार यह सोचना चाहिए कि उसके मित्र कितने हैं,उसका समय कैसा है -अच्छा है या बुरा है, और यदि बुरा है तो उसे अच्छा कैसे बनाया जाये।उसका निवास स्थान कैसा है,उसकी आय कितनी है ,वह कौन है ,उसकी शक्ति कितनी है अर्थात वह क्या करने में समर्थ है? व्यक्ति को ऐसा मनन करना चाहिए।अध्याय -5-श्लोक-15
विदेश में विद्या ही मनुष्य की सच्ची मित्र होती है,घर में उसकी पत्नी उसकी मित्र होती है,दवाई रोगी व्यक्ति की मित्र होती है और मृत्यु के समय उसके सत्कर्म ही उसके मित्र होते हैं।
अध्याय -5श्लोक -17
बादल के जल के समान दूसरा कोई जल शुद्ध नहीं होता है,आत्मबल के समान दूसरा कोई बल नही है,नेत्र ज्योति के समान दूसरी कोई ज्योति नहीं है और अन्न के समान दूसरा कोई भी प्रिय पदार्थ नहीं है।
अध्याय -5-श्लोक -20
इस संसार में लक्ष्मी (धन )अस्थिर है अर्थात चलाय मान है,प्राण भी नाश वान है ,जीवन और यौवन भी नष्ट होने वाले हैं,इस चराचर संसार में धर्म ही स्थिर है।
अध्याय -6-श्लोक -16
काम छोटा हो या बड़ा हो ,उसे एक बार हाथ में लेने के बाद छोड़ना नहीं चाहिए।उसे पूरी लगन और सामर्थ्य के साथ पूरा करना चाहिए।जैसे सिंह पकड़े हुए शिकार को कदापि नहीं छोड़ता है।सिंह का यह गुण मनुष्य को सीखना चाहिए।
अध्याय -6श्लोक -18
अत्यंत थक जाने पर भी बोझ को ढोना,ठंडे -गर्म का विचार न करना,सदा संतोष पूर्वक विचरण करना ,ये तीन बातें गधे से सीखनी चाहिए।
अध्याय -7-श्लोक -2
जो व्यक्ति धन धान्य के लेन देन  में, विद्या के सीखने में,भोजन के समय और अन्य व्यवहारों में संकोच नहीं करता है,वही व्यक्ति सुखी रहता है।
अघ्याय -7-श्लोक -4
अपनी पत्नी,भोजन और धन -इन तीनों के प्रति मनुष्य को संतोष रखना चाहिए ,परन्तु विद्या के अध्ययन ,तप और दान के प्रति कभी संतोष नहीं करना चाहिए।
अध्याय -8श्लोक -19
संसार में विद्वान् की ही प्रशंसा होती है ,विद्वान व्यक्ति ही सब जगह पूजे जाते हैं।विद्या से ही सब कुछ मिलता हैं ,विद्या की सब जगह पूजा होती है।
अध्याय -10-श्लोक -1
निर्धन व्यक्ति दीन हीन नहीं होता है यदि वह विद्वान् हो तो लेकिन व्यक्ति विद्या रूपी धन से हीन है तो वह निश्चित ही निर्धन समझा जाता है।अर्थात विद्या ही सच्चा  धन है।
अध्याय-10-श्लोक-2
भली प्रकार आँख से देखकर अगला कदम  रखना चाहिए,कपड़े से छानकर पानी पीना चाहिए ,शास्त्र के अनुसार कोई बात कहनी चाहिए और कोई भी कार्य मन में अच्छी प्रकार सोच कर करना चाहिए।
अध्याय -10-श्लोक -5
भाग्य की शक्ति बहुत प्रबल होती है।वह पल भर में ही निर्धन को राजा और राजा को निर्धन बना देती है।धनवान व्यक्ति निर्धन बन जाता है और  निर्धन के पास अनायास ही धन आ जाता है।
अध्याय -12-श्लोक-1
वही गृहस्थी सुखी  हो सकता है जिसके पुत्र और पुत्रियां
प्रतिभावान हो ,जिसकी पत्नी मधुर वचन बोलने वाली हो,जिसके पास इच्छा पूर्ति के लायक धन हो, जिसके मन में अपनी पत्नी के प्रति प्रेम भाव हो ,जिसके सेवक आज्ञाकारी हो ,जिसके घर में अतिथि का सत्कार होता हो ,जहां प्रतिदिन इश्वर की पूजा होती हो ,जिस घर में स्वादिष्ट भोजन और ठंडा जल उपलब्ध रहता हो और जिस गृहस्थी को सदा भले लोगों की संगति मिलती हो।
इस प्रकार के घर का मालिक सुखी और सौभाग्यशाली होता  है।
अध्याय -12-श्लोक -3
वही व्यक्ति इस संसार में सुखी है जो अपने सम्बन्धियों के प्रति उदार है ,अपरिचितों के प्रति दयालु है ,दुष्टों के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है,भले लोगों के प्रति स्नेह पूर्ण व्यवहार रखता है,अकुलीन व्यक्ति के प्रति चतुराई का व्यवहार करता है,विद्वानों के प्रति सरलता से पेश आता है, दुश्मनों के साथ साहस का व्यवहार करता है ,बुजर्गो के प्रति विनम्रता का व्यवहार करता है, और जो महिला वर्ग के प्रति चतुराई का व्यवहार करता है। ऐसे लोगों से ही इस संसार की मर्यादा बनी हुई है।
अध्याय -13-श्लोक -6
भविष्य में आने वाली संभावित विपत्ति और वर्तमान में उपस्थित विपत्ति पर जो व्यक्ति तत्काल विचार करके उसका समाधान खोज लेते हैं,वे सदा सुखी रहते हैं।इस के अलावा जो व्यक्ति यह सोचते हैं  कि  जो भाग्य में लिखा है,वही होगा,ऐसा सोचकर कोई उपाय नहीं करते हैं,ऐसे व्यक्ति विनाश को प्राप्त होते हैं।
अध्याय -13-श्लोक -15
अव्यवस्थित कार्य करने वाले को न तो समाज में और न ही जंगल में सुख प्राप्त होता है,क्योंकि समाज में लोग उसे भला बुरा कहकर दुखी करते है और जंगल में अकेला होने के कार वह  दुखी होता है।
अध्याय -16-श्लोक -5
आज तक न तो सोने के मृग की रचना हुई और न ही किसी ने सोने का मृग देखा और सुना ।फिर भी श्री राम ने सोने के मृग को पाने की इच्छा की और मृग को पाने के लिए दौड़ पड़े।यह बात ठीक ही है कि जब मनुष्य के बुरे दिन आते हैं,तो उसकी बुद्धि विपरीत बातें सोचने लगती है।
अध्याय -16-श्लोक -6
मनुष्य अपने अच्छे गुणों के कारण श्रेष्ठता प्राप्त करता है।उसके उचें आसन पर बैठ जाने के कारण श्रेष्ठ नहीं  माना जाता है।राज भवन की सबसे ऊँची चोटी पर बैठ ने पर भी कौआ,गरुड़ कभी नही बन सकता।
अध्याय -16-श्लोक -8
जिस मनुष्य के गुणों की प्रशंसा दूसरे लोग करते हैं,तो वह मनुष्य गुणों से रहित होने पर भी गुणी मान लिया जाता है,परन्तु अपने मुख से अपनी बड़ाई करने पर इंद्र भी छोटा हो जाता है।

(3.1.31) Sapt Shloki Geeta in Hindi

Sapt Shloki Gita (hindi men)( Original text of Sapt Shloki Geeta with Hindi translation सप्त श्लोकी गीता मूल पाठ एवं हिंदी अर्थ )

(1) ओमित्ये काक्षरं ब्रह्म व्याहरन मामनुस्मरन।
य: प्रयाति त्यजन देहं स याति परमां गतिम्।। 
हिन्दी अर्थ :-  " ॐ " इस एक अक्षर रूप ब्रह्म का  उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है , वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है। 
(2) स्थाने हृषिकेश तव प्रकीर्त्या,
जगत प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति,
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा:।।
हिन्दी अर्थ :- हे कृष्ण , यह योग्य ही है कि आप के नाम , गुण और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है और भयभीत राक्षस सब दिशाओं में भाग रहे हैं तथा सब सिद्ध गणों के समुदाय आपको नमस्कार करते हैं।
(3) सर्वत:पाणिपादम तत्सर्वतोSक्षिशिरोमुखम।
     सर्वत: श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।
हिन्दी अर्थ :-
वह सब ओर हाथ पैर वाला , सब ओर नैत्र , सिर  और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है , क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है।
(4) कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य:।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात।।
हिंदी अर्थ :-जो पुरुष सर्वज्ञ , अनादि  , सबके नियंता (अन्तर्यामी रूप   में सब प्राणियों के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार शासन करने  वाला ) , सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म , सबका धारण पोषण करने वाले , अचिन्त्य स्वरुप , सूर्य के समान नित्य चेतन प्रकाश स्वरुप और अविद्या से अति परे , शुद्ध सच्चिदानंद घन परमेश्वर का स्मरण करता है, वह उस परम पुरूष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। 
(5) उर्ध्वमूलमध:शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित।।
हिन्दी अर्थ :-
( भगवान बोले ) - आदि पुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले और ब्रह्मा रूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं , तथा वेद जिसके पत्ते कहे गए हैं - उस संसार रूपी वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता है , वह वेद  के तात्पर्य को जानने वाला है। ( अर्थात भगवान की योग माया से उत्पन्न हुआ यह संसार क्षण भंगुर और नाशवान है , इसके चिंतन को त्यागकर केवल परमेश्वर का ही नित्य निरंतर अनन्य प्रेम से चिन्तन करना  , वेद  के तात्पर्य को जानना  है।)
(6) सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टोमत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम।।
हिंदी अर्थ :-
मै ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ तथा मुझ से ही स्मृति , ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदों द्वारा मै  ही जानने योग्य हूँ तथा वेदांत का कर्ता  और वेदों को जानने वाला भी मै ही हूँ।
(7) मन्मना भव मद्भक्तो  मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:।।
हिंदी अर्थ :- 
हे  अर्जुन - तू  मुझमें मन वाला हो , मेरा भक्त बन , मेरा पूजन करने वाला हो , और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा ।

(3.1.30) Geeta Saar in Hindi

Geeta Saar (गीता सार )

गीता हमें आध्यात्मिक सुख देती है जो जीवन के लिए सर्वाधिक आवश्यक बात है। जब कठिन समय होता है तब गीता हमें सहायता और सांत्वना देती है। गीता हमें उचित कर्म  का भाव देती है जो आध्यात्मिक संतुष्टि के लिए आवश्यक है। 
  •  तुम चिंता क्यों करते हो ? तुम किससे डरते हो ?
  •  तुम्हे कौन मार सकता है और नष्ट कर सकता है ? आत्मा कभी पैदा नहीं होती है अतः यह कभी मरती भी नहीं है। 
  •  जो भी कुछ हुआ , वह अच्छाई के लिए हुआ। 
  •  जो भी कुछ हो रहा है , वह अच्छाई  के लिए हो रहा   है। 
  •  जो कुछ होगा वह अच्छाई  के लिए होगा। 
  •  तुमने क्या खोया है , जिसके लिए तुम रोते हो ?
  •  तुम क्या साथ लाये थे , जिसे तुमने खो दिया है ? 
  •  तुमने क्या उत्पन्न किया था , जो नष्ट हो गया है ?
  •  जब तुम पैदा हुए थे तो तुम कुछ भी साथ नहीं लाये थे। 
  •  जो कुछ तुम्हारे पास है , तुम्हे ईश्वर से प्राप्त हुआ है।
  •  जो भी  कुछ तुम दोगे , तुम उसे ईश्वर को दोगे।
  •  तुम खाली हाथ आये थे और खाली हाथ जाओगे।
  •  जो आज तुम्हारा है , कल किसी और का था , और कल किसी अन्य का होगा।
  •  परिवर्तन प्रकृति का नियम है।

(1.1.17) Subhashitani

Subhashitani /सुभाषितानि 

(१) विवेक पूर्ण कार्य का परिणाम 

सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः। 

ज्ञाना ज्ञान विशेषातु मार्गामार्ग प्रवृत्तयः। 

अर्थ :- सभी प्राणी सुख की कामना करते हैं और उनकी मनोवृत्ति भी सुख पाने की होती है पर जो मनुष्य विवेक से युक्त होकर करने योग्य कार्य करता है , वह सुखकारी मार्ग में रहता है अर्थात सुख पाता है। तथा जो विवेकहीन होकर नहीं करने योग्य कार्य करता है वह दुःख का भागी होता है।
(२) स्वर्ग कहाँ है ?
यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्यां छन्दानुगामी। 
विभवे यश्च संतुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि।। (चाणक्य निति २/३ )
अर्थ :- जिसका पुत्र अपने वश में हो , स्त्री आज्ञाकारिणी हो तथा जिसे अपनी उपलब्ध सम्पत्ति  पर संतोष हो , उसके लिये यहीं स्वर्ग है।
(3) दान की तीन गतियाँ 
दानं भोगो नाशस्तित्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य। 
यो न ददाति न भुंक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।। (भर्तृहरि नीतिशतक )
अर्थ - दान देना, उपभोग करना और नष्ट होना - धन की ये तीन गतियाँ होती हैं। जो न तो दान देता है और न ही धन का उपभोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है अर्थात वह धन नष्ट हो जाता है। 

(1.1.16) Rahim ke Dohe ( in Hindi) Dohe of Rahim (in Hindi )

Rahim ke Dohe with Hindi Meaning / रहीम के दोहे हिंदी में 

रहीम के बारे में संक्षेप में जानकारी :-
(१) रहीम का पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना है।
(२) पिता का नाम - बैरम खाँ
(३) जन्म स्थान - लाहौर
(४) जन्म - सन 1556 ई.
(५) वे भारतीय संस्कृति के उपासक थे।
(६) वे अरबी,फ़ारसी, तुर्की, हिंदी और संस्कृत के विद्वान थे।
(७) रहीम के दोहे सरलता और अनुभूति की मार्मिकता के लिये प्रसिद्द हैं।
(८) रहीम के दोहों में लोक व्यवहार, नीति ,भक्ति तथा अन्य अनुभूतियों समन्वय हुआ है।
रहीम के दोहे :-
(१) बिगरी बात बनै नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय।।
भावार्थ :- कवि रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार दूध के फट जाने(ख़राब हो जाने) के कारण उसके मथने पर उससे मक्खन नहीं निकलता है।  उसी प्रकार कोई बात (काम) बिगड़ जाये तो, उसे ठीक नहीं किया जा सकता चाहे कितना भी प्रयास क्यों न किया जाये।
(२) रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहाँ करै तलवारि।।
भावार्थ:- किसी बड़े व्यक्ति या ज्यादा महत्वपूर्ण वस्तु को पाकर किसी छोटे व्यक्ति या कम महत्त्वपूर्ण वस्तु का अपमान नहीं करना चाहिये। क्योंकि सभी अपनी-अपनी जगह पर महत्वपूर्ण होते हैं, जैसे सुई छोटी होती है और तलवार बड़ी होती है, परन्तु सिलाई करने के लिए सुई के स्थान पर तलवार का उपयोग नहीं किया जा सकता।
(३) रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनसे पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।
भावार्थ :- कवि रहीम कहते हैं कि किसी व्यक्ति का माँगने जाना, मरने के समान है अर्थात माँगना निम्न स्तर की बात है। परन्तु जो किसी के माँगने पर देने से मना करता है, यह बात (मना करना) उसके (मना करने वाले के) लिए माँगने से भी ज्यादा ख़राब है अर्थात माँगने से भी निम्न स्तर की बात है।
(४) बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। 
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।। 
भावार्थ :- यदि कोई व्यक्ति अपने पद, सामाजिक स्थिति या उम्र के कारण बड़ा हो लेकिन वह समाज के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं हो, दूसरे लोगों की सहायता नहीं करे, तो उसके बड़े होने का कोई लाभ नहीं है अर्थात उसका बड़ा होना व्यर्थ है। ऐसे  व्यक्ति की तुलना कवि ने खजूर के पेड़ से की है जो बड़ा तो है, परन्तु किसी राहगीर को उसकी छाया का लाभ नहीं मिल पाता है, और उसके लम्बे होने से उसके फल भी ऊंचे लगते हैं। अर्थात खजूर के पेड़ के बड़े होने का कोई उपयोग नहीं है।
(५) रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। 
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।। 
भावार्थ :- कवि रहीम कहते हैं कि प्रेम रुपी धागे को मत तोड़ो। यदि एक बार धागा टूट जाये तो वह फिर जुड़ता नहीं है। यदि टूटे हुए धागे को जोड़ा जाये तो उसमें गाँठ लग जाती है। प्रेम भी धागे के समान है। यदि एक बार प्रेम टूट जाये ,तो उसे फिर से जोड़ने पर पहले जैसी प्रगाढ़ता नहीं आती है।

Sunday 7 August 2016

(3.1.29) Abhishek / Rudrabhishek

अभिषेक / शिव अभिषेक / रुद्राभिषेक / अभिषेक क्या होता है ? Abhishek 

अभिषेक का तात्पर्य सामान्य भाषा में स्नान कराने से है। शिव अभिषेक का तात्पर्य शिव प्रतिमा या शिवलिंग के ऊपर जल चढ़ाना या जल की धारा प्रवाहित करना है। अभिषेक को शिव पूजा का अभिन्न भाग माना जाता है  इससे भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। अभिषेक करते समय साधक को भगवान शिव से सम्बंधित मन्त्र या स्तोत्र का जप करना चाहिए। मुख्य रूप से पंचाक्षर मन्त्र, रूद्र मन्त्र, महामृत्युंजय मन्त्र आदि।
रुद्राभिषेक -
भगवान शिव का अभिषेक करते समय व्यक्ति किसी न किसी मन्त्र का उच्चारण / जप करता है। यदि वह वैदिक रुद्रसूक्त ( रुद्री ) का पाठ / जप करता हुआ अभिषेक करें तो इसे रुद्राभिषेक कहा जाता है। रुद्राभिषेक गंगा जल, गाय के दूध, पंचामृत आदि से किया जा सकता है। रुद्राभिषेक करने से व्यक्ति के दुःख दर्दो का विनाश होता है, बिमारी से मुक्ति मिलती है, संभावित खतरों से रक्षा होती है और जीवन में प्रसन्नता और सम्पन्नता  आती है।
अभिषेक करने के लिए विभिन्न सामग्री / वस्तुएं -
सामान्तया शिव प्रतिमा / शिव लिंग पर जल धारा  प्रवाहित करके अभिषेक किया जाता है। लेकिन जल के अतिरिक्त अन्य पदार्थों से भी अभिषेक किया जाता है। अलग - अलग पदार्थों से किये गए अभिषेक का फल या उद्देश्य अलग - अलग होता है।
1.गंगा का पानी - सभी चारों पुरषार्थों की प्राप्ति व मानसिक शांति के लिए गंगा जल से अभिषेक किया जाता है।
2.घी से अभिषेक करने पर वंश वृद्धि होती है।
3.शुद्ध पानी से अभिषेक करने पर मानसिक शान्ति मिलती है और कामना की पूर्ति होती है।तथा अच्छी वर्षा होती है।
4.दूध से अभिषेक करने पर समस्याओं  से छुटकारा मिलता है और परिवार में सुख शान्ति रहती है।
5.गन्ने के रस से अभिषेक करने पर सम्पन्नता व प्रसन्नता आती है।
6.शहद से अभिषेक करने पर सामान्य इच्छा पूर्ति होती है।