Wednesday 18 November 2020

(6.2.9) Ganesh chaturthi ko Chandra Darshan Kyon Nahin Karana Chahiye

 Ganesh chaturthi ko Chandra Darshan Kyon Nahin Karana Chahiye

गणेश चतुर्थी को चन्द्रमा को क्यों नहीं देखना चाहिए

गणेश अंक के पृष्ठ 247 के अनुसार यह कथा इस प्रकार है –

एक बार की बात है, कैलाश के शिव सदन में लोक पितामह ब्रह्मा भगवान् शिव के समीप बैठे हुये थे. उसी समय देवर्षि नारद वहाँ आये. उनके पास एक सुन्दर और स्वादिष्ट फल था. नारद जी ने यह फल भगवान् शिव को दे दिया,

उस अदभुद और सुन्दर फल को अपने पिता के हाथ में देखकर गणेश जी और षडानन जी  दोनों आग्रह पूर्वक उस फल को माँगने लगे. तब भगवान् शिव ने ब्रह्मा जी से पूछा “ ब्रह्मन, नारदजी द्वारा दिया हुआ यह अपूर्व फल एक ही है और इसे गणेश और षडानन दोनों लेना चाहते हैं; आप ही बताएं, यह फल किसे दूँ ?

ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया- “ प्रभो, षडानन छोटे हैं इसलिए इस फल के अधिकारी तो षडानन ही हैं.”

भगवान् शिव ने वह फल षडानन को दे दिया. इससे गणेश जी ब्रह्मा जी पर कुपित हो गए.

जब ब्रह्माजी ने अपने भवन पहुँच कर सृष्टि रचना का प्रयत्न किया तो गणेश जी ने विघ्न उत्पन्न कर दिया. वे अत्यन्त उग्र रूप में ब्रह्मा जी के सामने प्रकट हुए. ब्रह्मा जी गणेश जी के उग्र रूप को देखकर भयभीत हो गए.

गणेशजी का उग्र रूप और ब्रह्मा जी को भयभीत देख कर चन्द्रमा अपने गणों के साथ हँसने लगा.

चन्द्रमा को हँसते हुए देख कर गणेशजी को क्रोध आ गया. उन्होंने चन्द्रमा को शाप दे दिया – “हे चन्द्र, तुम्हारी अशिष्टता के कारण मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि अब से  तुम कुरूप और मलीन हो जाओगे. तुम किसी के लिए भी कभी देखने योग्य नहीं रहोगे और यदि किसी ने देख भी लिया तो वह पाप का भागी होगा.

गणेश जी के शाप के कारण चन्द्रमा श्री हीन, कुरूप और मलीन हो गया. वह सबके लिए अदर्शनीय हो गया अतः वह अपने आचरण पर पछताने लगा.

चन्द्रमा के अदर्शन से देवगण भी दुखी हुए. अग्नि और इन्द्र आदि देवता गणेश जी के समीप पहुँच कर भक्ति पूर्वक उनकी स्तुति करने लगे.

देवताओं के स्तवन से प्रसन्न होकर गणेशजी ने कहा – “मैं तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न हूँ. आप चाहो तो वर मांग लो.

देवताओं ने कहा, “ प्रभो, आप चन्द्रमा पर अनुग्रह करें और उनको दिए गए शाप से मुक्ति का उपाय बताएं.”

इस पर गणेश जी ने कहा,” देवताओं, मैं अपना वचन मिथ्या कैसे कर दूँ? परन्तु मैंने आपको वर माँगने के लिए कहा है,इसलिए मैं आपके आग्रह को भी टालना नहीं चाहता हूँ. इसलिए मैं मेरे शाप को सीमित कर सकता हूँ समाप्त नहीं. सीमित शाप यह है कि कोई भी जान बूझकर या अनजान में भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रमा को देखेगा, तो वह अभिशप्त होगा. उसे अधिक दुःख उठाना पड़ेगा.” इस प्रकार गणेश जी द्वारा चन्द्रमा के शाप को सीमित किये जाने से देवगण प्रसन्न हुए और गणेशजी को प्रणाम किया.

फिर वे चन्द्रमा के पास गए और उससे (चन्द्रमा से) कहा,”हे चन्द्र, गणेश जी पर हँस करके व उपहास करके तुमने अपराध किया है. हमने बहुत प्रयत्न पूर्वक गणेशजी को प्रसन्न और संतुष्ट किया है. इस कारण उन दयानिधि ने तुम्हें वर्ष में केवल एक दिन अदर्शनीय रहने का वचन देकर अपना शाप अत्यन्त सीमित कर दिया है. तुम भी उन करुणामय की शरण लो और उनकी कृपा से शुद्ध होकर यश प्राप्त करो.”

देवताओं की सलाह पर चन्द्रमा ने बारह वर्ष तक तप किया और गणेश जी के एकाक्षरी मन्त्र का जप किया. इससे गणेश जी प्रसन्न हुए और चन्द्रमा के सामने प्रकट हुये. चन्द्रमा ने हाथ जोड़ कर गदगद कंठ से उनकी स्तुति की और अपने द्वारा किये गए अपराध के लिए क्षमा मांगी. चन्द्रमा के तप और स्तुति से प्रसन्न होकर गणेश जी ने चन्द्रमा से कहा कि जैसे पहले तुम्हारा सुन्दर रूप था, वैसा ही हो जायेगा, परन्तु जो मनुष्य भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को तुम्हें देख लेगा, वह निश्चय ही अभिशाप का भागी होगा. उसे पाप, हानि, मूढ़ता और कलंक का सामना करना पड़ेगा.

इसलिए भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी यानि गणेश चतुर्थी को चन्द्रमा को नहीं देखा जाता है. भगवान् कृष्ण को भी इस दिन चन्द्रमा का दर्शन करने से झूठे कलंक का सामना करना पड़ा था.             

Sunday 18 October 2020

(9.1.4) Neend udaane wali chaar Baaten (Vidur Niti)

 Neend udaane wali chaar Baaten (Vidur Niti)

नींद उड़ाने वाली चार बातें

         महाभारत में एक प्रसंग आता है कि एक दिन महाराज धृतराष्ट्र बहुत दुखी थे। उन्होंने महामंत्री विदुर को बुलवाया। विदुर के आने पर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा कि आज मेरा मन बहुत व्याकुल है। मैं चिंता में जलता हुआ अभी तक जाग रहा हूं। मेरा मन पूर्ण रूप से अशांत है। मेरी सभी इंद्रियां विकल हो रही है। अतः मेरे लिए जो कल्याणकारी हो, वह कहो। इस पर महात्मा विदुर ने कहा कि, राजन ! इन चार कारणों से किसी व्यक्ति की नींद उड़ जाती है, उसे नींद नहीं आती, वह बेचैन और अशांत रहता है। वे चार कारण इस प्रकार है :-

1. जिसका बलवान व्यक्ति से विरोध हो गया हो, उस व्यक्ति को नींद नहीं आती है। कमजोर होने के कारण बलवान व्यक्ति से सीधा मुकाबला नहीं कर सकता। अतः वह इस चिंता में डूबा रहता है कि बलवान शत्रु से कैसे बचा जाए ? क्या उपाय किया जाए या किससे सहायता ली जाए ? बलवान शत्रु उसे कितना नुकसान पहुंचाएगा या उसके साथ कैसा व्यवहार करेगा यह डर उसे सताता रहता है। परिणाम स्वरूप उसका मन अशांत रहता है और उसको नींद नहीं आती है।

2. दूसरा जो साधन हीन और दुर्बल हो। दुर्बल और साधन हीन व्यक्ति के साथ किसी तरह का अन्याय हो जाए तो भी वह अन्यायी व्यक्ति का सामना नहीं कर पाता है। अतः वह चिंतित रहता है। दुर्बल होने के कारण बलवान और निर्दयी व्यक्ति उसकी संपत्ति या उसके पास जो कुछ भी है उसे छीन सकता है। जिससे व्यक्ति को अपनी संपत्ति के छिन जाने से और उसे वापस प्राप्त करने के बारे में सोचकर चिंता होती है और उसे नींद नहीं आती है।

3. तीसरा जो काम व्यक्ति हो, जिस व्यक्ति के मन में काम भावना जागृत हो गई हो उसे भी रात में नींद नहीं आती है अर्थात उसे रात में जागने का रोग लग जाता है। ऐसा कामी व्यक्ति अपने काम भावना की पूर्ति के प्रयास में सो नहीं पाता है काम भावना उस व्यक्ति को व्याकुल और शांत बनाए रखती है। परिणाम स्वरूप उसकी नींद उड़ जाती है

4. चौथा जिस की आदत चोरी करने की हो जिस व्यक्ति की चोरी करने की आदत हो या जो चोरी को अपना व्यवसाय बना ले तो उसे भी रात में नींद नहीं आती है। चोर हमेशा ही दूसरों की नजर बचाकर चोरी करता है दूसरों की चीजें चुराता है जहां चोरी करना चाहता है वहां रहने वाले सभी लोगों के सो जाने की प्रतीक्षा करता है इस प्रतीक्षा में उसे नींद नहीं आती है


(9.1.3) Mahatma Vidur (Neetigya and Mahabharat ke patra)

 Mahatma Vidur (Neetigya and Mahabharat ke patra)

महात्मा विदुर नीतिज्ञ और महाभारत के पात्र

विदुर धृतराष्ट्र और पांडु के लघु भ्राता थे। दासी पुत्र होने के कारण वे राज्य के अधिकारी नहीं हुए। मांडव्य ऋषि के द्वारा श्राप के कारण धर्मराज ने ही विदुर जी के रूप में जन्म लिया था। वह परम बुद्धिमान, प्रज्ञा शक्ति से संपन्न तथा महान योग बल से प्रतिष्ठित थे। इनके प्रज्ञा वैभव एवं बुद्धि चातुर्य के विषय में वेदव्यास कहते हैं कि देव गुरु बृहस्पति और असुर गुरु शुक्राचार्य भी वैसे बुद्धिमान नहीं है जैसे पुरुष प्रवर विदुर है।

जब कभी पुत्र स्नेहवश धृतराष्ट्र पांडवों को दुख देने या उनके अहित की योजना सोचते, तब विदुर उन्हें यानी धृतराष्ट्र को समझाते थे। जब दुरात्मा दुर्योधन ने लाक्षागृह में पांडवों को जलाने का षड्यंत्र किया, तब विदुर ने उन्हें बचाने की व्यवस्था की और कूट भाषा या (यावनी भाषा ) में संदेश भेजकर युधिष्ठिर को पहले ही सावधान कर दिया, जिसके कारण पांडवों के प्राण बच गए।

जब पांडवों को 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास हुआ तो विदुर जी बहुत दुखी हुए। पांडवों के वनवास के समय, दुर्योधन के भड़काने से एक दिन धृतराष्ट्र ने क्रोध में आकर विदुर को कहा," तुम हमेशा पांडवों की प्रशंसा करते रहते हो, उन्हीं के पास चले जाओ। मेरे यहां मत रहो।" विदुर उसी समय पांडवों के पास जाकर जंगल में रहने लगे। उनके चले जाने के बाद धृतराष्ट्र को उनके महत्व का पता चला। वे विदुर की अनुपस्थिति में अपने आपको असहाय समझने लगे। उन्होंने दूत भेजा। अपने अपराध की क्षमा चाही और शीघ्र ही विदुर जी से हस्तिनापुर आने की प्रार्थना की। धृतराष्ट्र की प्रार्थना स्वीकार कर विदुर जी लौट आए।

महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ तो विदुर जी किसी के भी पक्ष में नहीं रहे। अवधूत वेश बनाकर 12 वर्ष तक पृथ्वी पर विचरण करते रहे। जो मिल जाता, वही खा लेते। जहां रात्रि हो जाती ,वही सो जाते। फल फूल खाते हुए सभी तीर्थों में घूमते रहे। मैत्रेयजी से ज्ञानोपदेश प्राप्त करके वह हस्तिनापुर पहुंचे। पांडवों ने इनका बहुत सत्कार किया। कुछ दिन वहां रहे। अंत में, इन्होंने धृतराष्ट्र से वन में चलकर तपस्या करने के लिए कहा। इनकी बात मानकर वे गांधारी और कुंती के साथ वन में चले गए। विदुर जी भी उनके साथ थे। वन में जाकर विदुर जी ने एक पेड़ के सहारे खड़े खड़े ही योगियों की तरह अपने शरीर को त्याग दिया और अपने स्वरूप में मिल गए।

        महाभारत में वर्णन आता है कि धृतराष्ट्र मोह वश अपने पुत्र दुर्योधन का अधिक पक्ष लेते थे। इस कारण वे बहुत दुखी भी रहते थे। अधर्म नीति के परिणामों को जान कर वे अत्यंत विकल हो गए। अनिश्चय की स्थिति में पहुंच गए तो उन्होंने एक दिन अमात्य विदुर जी को बुलवाया और अपनी चिंता मिटाने का उपाय पूछा इस पर विदुर जी ने जो उपदेश धृतराष्ट्र को दिया वहीं विदुर नीति के नाम से जाने जाते हैं। विदुर जी ने बहुत सी बातें समझाई है। हालांकि यह बातें धृतराष्ट्र को संबोधित करके कही गई है परंतु यह बातें सभी के लिए कल्याणकारी व उपयोगी है।


Wednesday 12 August 2020

(6.6.1)Krishna Gayatri Mantra Ke Laabh

 Krishna Gayatri Mantra / Benefits Of Krishna Gayatri Mantra / कृष्ण गायत्री मन्त्र / कृष्ण गायत्री मन्त्र के लाभ 

कृष्ण गायत्री मन्त्र

भगवान् कृष्ण, भगवान् विष्णु के अवतार हैं. इनसे सम्बन्धित कई स्तोत्र, मन्त्र आदि हैं. कृष्ण गायत्री मन्त्र भी उनमें से एक है.  

कृष्ण गायत्री मन्त्र के लाभ इस प्रकार हैं-

कृष्ण गायत्री मन्त्र का जप करने से बौद्धिक स्तर बढ़ता है जिससे सोचने व समझने की क्षमता का विकास होता है.

तार्किक क्षमता बढ़ती है.

जपकर्ता को उसके प्रयासों में सफलता मिलती है.

आत्मविश्वास की वृद्धि होती है.

सभी प्रकार की सम्पन्नता आती है.

विद्यार्थियों को परीक्षा में सफलता मिलती है.

क्या करूं, क्या नहीं करूं की स्थिति नहीं रहती है अर्थात लक्ष्य स्पष्ट दिखने लगता है.

कृष्ण गायत्री मन्त्र जप की विधि –

दैनिक कार्य से निवृत्त होकर पूर्व या उत्तर की तरफ मुँह करके ऊन के आसन पर बैठ जायें. श्री कृष्ण का चित्र अपने सामने रख लें. धूपबत्ती व दीपक जलायें. अपनी आँखें बंद करके श्री कृष्ण का ध्यान करें. ध्यान इस प्रकार है –

जिनके अंग की कान्ति मेघ के सामान श्याम है, जो प्यारे व्रज चन्द्र, बडभागी और दिव्य लीलामय हैं, सदा आनन्द करने वाले और भ्रान्ति को भगाने वाले हैं, उन सब सुखों के सारभूत, परब्रह्म स्वरुप, नन्द नन्दन श्री कृष्ण को मैं वार बार प्रणाम करता हूँ. इस प्रकार ध्यान के बाद श्री कृष्ण गायत्री मन्त्र का पाँच, तीन या एक माला का जप करें.    

कृष्ण गायत्री मन्त्र इस प्रकार है –

ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो कृष्णः प्रचोदयात्  

मन्त्र जप के बाद भावना करें भगवान् कृष्ण का आशीर्वाद आपको मिल रहा है.  

 

 

Sunday 2 August 2020

(1.1.25) Gita/Geeta sambandhi prashn aur uttar (Questions and answers related to Geeta)

 श्री मद्भगवद्गीता सम्बन्धी प्रश्न और उत्तर (Questions and answers related to Geeta)

श्री मद्भगवद्गीता सम्बन्धी प्रश्न और उत्तर

(1)किसी महापुरुष की जयंती मनाई जाती है, परन्तु एक ग्रन्थ ऐसा है जिसकी भी जयंती मनाई जाती है, वह कौनसा ग्रन्थ है?

वह ग्रन्थ है गीता.

(2)गीता जयंती क्यों मनाई जाती है?

अन्य ग्रन्थ किसी न किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किये गए हैं, परन्तु गीता एक ऐसा ग्रन्थ है जिसका जन्म स्वयं भगवान् के श्रीमुख से हुआ है.

(3)गीता जयंती कब मनाई जाती है?

गीता जयंती प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष में शुक्लपक्ष की एकादशी को मनाई जाती है. इस तिथि को गीता का प्रतीकात्मक जन्म दिवस माना  जाता है.

(4)गीता किस ग्रन्थ का भाग है?

गीता महाभारत के भीष्मपर्व का भाग है.

(5)गीता को गीता क्यों कहा जाता है?

गीता शब्द का अर्थ है गायन किया हुआ. श्री कृष्ण ने छन्द रूप में यानि गाकर उपदेश दिया, इसलिए इसे गीता कहा जाता है.

(6)गीता को मद्भगवद्गीता क्यों कहा जाता है?

गीता उपदेश स्वयं भगवान् के द्वारा गायन के रूप में दिया गया,इसलिए इसे मद्भगवद्गीता कहा जाता है.

(7)गीता को गीतोपनिषद क्यों कहा जाता है?

गीता की गणना उपनिषदों में की जाती है, इसलिए इसी गीतोपनिषद कहा जाता है.

(8)गीता का उपदेश किसने दिया और किसको दिया ?

गीता का उपदेश श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिया। 

(9)अर्जुन के अतिरिक्त गीता का उपदेश किसने सुना ?

अर्जुन के अतिरिक्त गीता का उपदेश संजय ने सुना और उसने धृतराष्ट्र को सुनाया.

(10)संजय कौन था?

संजय धृतराष्ट्र की सभा के सम्मानित सदस्य थे. वे वेदव्यास के शिष्य और कृष्ण के भक्त थे.

(11)संजय को दिव्य दृष्टि किसने दी थी और क्यों दी थी?

संजय को दिव्य दृष्टि महर्षि वेदव्यास जी ने दी थी, ताकि वह महाभारत युद्ध की समस्त घटनाओं को देख सके, सुन सके और जान सके और धृतराष्ट्र को युद्ध का सारा वृत्तान्त सुना सके.

(12)संजय को दिव्यदृष्टि देने से पहले वेदव्यासजी दिव्य नेत्र किसे देना चाहते थे और क्यों देना चाहते थे?

धृतराष्ट्र अंधे थे इसलिए वेदव्यासजी उन्हें दिव्य नेत्र देना चाहते थे ताकि वे युद्ध की समस्त घटनाओं को देख सके. लेकिन उन्होंने (धृतराष्ट्र) ने दिव्य नेत्र लेने से मना कर दिया.    

(13)अर्जुन से पहले गीता ज्ञान किसको मिला था?

श्री मद्भगवद्गीता के अध्याय चार के श्लोक पहले में भगवान् कहते हैं कि मैंने यह अविनाशी योग सूर्य को कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा.   

(14)गीता में कुल कितने अध्याय हैं?

गीता में कुल 18 अध्याय हैं.

(15)गीता का सबसे लम्बा और सबसे छोटा अध्याय कौनसा है?

सबसे लम्बा अध्याय अठारहवाँ है, जिसमें 78 श्लोक हैं तथा सबसे छोटा अध्याय पन्द्रहवाँ है, जिसमें 20 श्लोक हैं। 

(16)गीता में कुल कितने श्लोक हैं?

गीता में कुल 700 श्लोक हैं। जिनमें से पहला श्लोक धृतराष्ट्र ने कहा है और अंतिम श्लोक संजय ने कहा है। 

(17)किसके द्वारा कितने कितने श्लोक कहे गए हैं?

धृतराष्ट्र ने एक श्लोक कहा है,संजय ने चालीस, अर्जुन ने 85 और श्री कृष्ण ने 574 श्लोक कहे हैं।

(18)महाभारत का युद्ध कहाँ हुआ था?

महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ था। 

(19)कुरु क्षेत्र को कुरुक्षेत्र क्यों कहा जाता है ?

कुरुक्षेत्र को कुरुक्षेत्र कहा जाता है,क्योंकि यह क्षेत्र राजा कुरु की तपोभूमि रहा है। 

(20)कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र क्यों कहा जाता है?

शतपथब्राह्मणादि शास्त्रों में कहा गया है कि यहाँ (कुरुक्षेत्र) अग्नि,इन्द्र, ब्रह्मा आदि देवताओं ने तप किया था; राजा कुरु ने भी यहाँ बड़ी तपस्या की थी तथा यहाँ मरने वालों को उत्तम गति प्राप्त होती है, इसलिए कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा जाता है.

(21)अर्जुन के रथ में कितने और किस रंग के घोड़े जुते हुए थे?

अर्जुन के रथ में सफ़ेद रंग के चार घोड़े जुते हुए थे.

(22)अर्जुन के रथ पर लगे झंडे पर किसका चिन्ह था?

अर्जुन के रथ पर लगे झंडे पर चन्द्रमा और तारों के चिन्ह थे और उस पर हनुमान जी विराजमान थे.

(23)युद्ध के प्रारम्भ करने की घोषणा किसने की?

भीष्म पितामह ने शंख बजा कर युद्ध के प्रारम्भ करने की घोषणा की.

(24)किसके शंख का क्या नाम था?

श्री कृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य था, अर्जुन के शंख का देवदत्त, भीमसेन के शंख का पौण्ड्र, युधिष्ठिर के शंख का अनन्तविजय, नकुल के शंख का सुघोष और सहदेव के शंख का नाम मणि पुष्पक था.

(25)अर्जुन के धनुष का नाम क्या था?

अर्जुन के धनुष का नाम गाण्डीव था.

(26)अर्जुन को दिव्य दृष्टि किसने और क्यों दी?

अर्जुन को दिव्य दृष्टि स्वयं भगवान् ने दी ताकि वह भगवान के दिव्य स्वरुप को देख सके. साधारण नेत्रों से भगवान् का अलौकिक रूप नहीं देखा जा सकता था.  

 

 


Tuesday 28 July 2020

(6.7.2) Ashta Lakshmi Mantra - Benefits

Ashta Lakshmi Mantra for Material and Spiritual Prosperity / Benefits of Ashtalakshmi Mantra / अष्ट  लक्ष्मी मन्त्र के लाभ

अष्ट लक्ष्मी मन्त्र के लाभ क्या हैं
देवी लक्ष्मी को विभिन्न स्वरूपों में पूजा जाता है।  मुख्य रूप से इनके आठ स्वरुप मने गए हैं। इन आठ स्वरूपों के समूह को अष्ट लक्ष्मी कहा जाता है।  ये आठ स्वरुप इस प्रकार हैं -

आदि लक्ष्मी, धन लक्ष्मी, धान्य लक्ष्मी, गज लक्ष्मी, संतान  लक्ष्मी, धैर्य  लक्ष्मी, विजय लक्ष्मी और विद्या लक्ष्मी। 
इन आठ  स्वरूपों के  मन्त्र का श्रद्धा और विश्वास के साथ जप करें तो, जपकर्ता के जीवन में भौतिक और आध्यात्मिक सम्पन्नता और सुखों की कोई कमी नहीं रहती है।
मन्त्र जप की विधि इस प्रकार है  

इन मन्त्रों के जप के लिए लक्ष्मी के आठ स्वरुप वाला चित्र तथा श्री यन्त्र अपने सामने रखले. उत्तर या पूर्व की तरफ मुँह करके ऊन के आसन पर बैठ जायें. कुछ समय तक देवी लक्ष्मी के चित्र की तरफ देख कर उनके विभिन्न स्वरूपों का ध्यान करें. ध्यान के बाद इन आठ मन्त्रों का कम से कम एक माला का जप करें. मन्त्र इस प्रकार है –

ॐ आद्यलक्ष्म्यै नमः

ॐ धनलक्ष्म्यै नमः

ॐ धान्यलक्ष्म्यै नमः

ॐ गजलक्ष्म्यै नमः

ॐ संतानलक्ष्म्यै नमः

ॐ धैर्यलक्ष्म्यै नमः

ॐ विजयलक्ष्म्यै नमः

ॐ विद्यालक्ष्म्यै नमः

मन्त्र जप के बाद मन ही मन भावना करें कि देवी लक्ष्मी की कृपा से आपको सभी प्रकार की भौतिक और आध्यात्मिक सम्पदा प्राप्त हो रही है. 

Wednesday 22 July 2020

(6.7.1)) Ashta Lakshmi - Eight Forms of Lakshmi

Ashta Lakshmi - Eight Forms of Lakshmi अष्ट लक्ष्मी - लक्ष्मी के आठ स्वरुप
अष्ट लक्ष्मी - लक्ष्मी के आठ स्वरुप कौनसे हैं

अष्ट लक्ष्मी - लक्ष्मी के आठ स्वरुप
लक्ष्मी भगवान् विष्णु की पत्नी है। उन्हें सम्पदा, सम्पन्नता व सौभाग्य की देवी के रूप में जाना जाता है। लक्ष्मी को आठ स्वरूपों में पूजा जाता है।  इन आठ स्वरूपों के समूह को अष्ट लक्ष्मी कहा जाता है। इन स्वरूपों में वह अपने उपासकों व भक्तों को  विभिन्न प्रकार की भौतिक और आध्यात्मिक सम्पदा प्रदान करती है।  लक्ष्मी के आठ स्वरुप इस प्रकार हैं -
(1) आदि लक्ष्मी -
लक्ष्मी के इस रूप में वे कमल पर विराजमान हैं। उनके चार हाथ हैं जिनमें से  एक में कमल है, दूसरे में पताका है, तीसरे में अभय मुद्रा और चौथे वरदा मुद्रा है।  इस रूप में ये पवित्रता और प्रसन्नता का प्रतीक हैं। इनकी साधना उपासना से मानसिक शांति व सम्पन्नता मिलती है।
(2) धन लक्ष्भी  -
लाल वस्त्र धारण किये देवी की इस छवि में छः भुजाएं हैं जिनमें चक्र,कलश, धनुष , कमल, अभय  मुद्रा (स्वर्ण मुद्रा सहित) हैं। वे धन और स्वर्ण की प्रतीक हैं।वे अपने भक्तों को आर्थिक सम्पन्नता प्रदान करती हैं।
(3) धान्य लक्ष्मी -
इस रूप में देवी हरित वस्त्र धारण किये हुए होती है। इनके आठ भुजाएं हैं जिनमें दो कमल, गदा, धान की फसल,गन्ना, केला, अभय मुद्रा तथा वरदा  मुद्रा हैं। वे अपने भक्तों को भोजन, अनाज और विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री के साथ साथ सांसारिक भोग की वस्तुएं भी प्रदान करती हैं।
(4) गज लक्ष्मी -
इस छवि में वे लाल वस्त्र धारण किये हुए हैं। उनके दोनों तरफ एक - एक हाथी है। उनके चार भुजाएं हैं, जिनमें दो कमल,अभय मुद्रा तथा वरदा मुद्रा हैं। इनको पशुधन की समृद्धि की दाता माना जाता है। ये कार्य में गतिशीलता प्रदान करती हैं।
(5) संतान लक्ष्मी -
इस रूप में देवी के छः भुजाएं हैं।  उनके दो हाथों में कलश हैं, दो हाथों में तलवार और ढाल हैं,  एक हाथ अभय मुद्रा में है , उनकी गोद में एक बच्चा है  जिसे एक हाथ से थामा हुआ है, बच्चे के हाथ में एक कमल है। संतान लक्ष्मी के रूप में वे अपने उपासकों को उत्तम संतान प्रदान करती हैं।
(6)धैर्य लक्ष्मी  -
इस रूप में वे लाल वस्त्र धारण किये हुए हैं।  उनके आठ भुजाएं हैं, जिनमें चक्र,शंख, धनुष, तीर, तलवार, ताड़ के पत्तों पर लिखी हुई पाण्डुलिपि, अभय मुद्रा तथा वरदा मुद्रा हैं।  ये वीरता, साहस की प्रतीक हैं , इसलिए इनको वीर लक्ष्मी भी कहा जाता है। वे अपने भक्तों को  सभी प्रकार की बाधाओं पर विजय पाने के लिए साहस , शक्ति और धैर्य प्रदान करती हैं।
(7) विजय लक्ष्मी -
इस छवि में देवी लाल वस्त्र धारण किये हुए है।  उनके आठ भुजाएं हैं , जिनमें चक्र, शंख, तलवार, कवच, कमल, पाशा, अभय मुद्रा और वरदा मुद्रा हैं। ये श्रेष्ठ वरदानों की प्रतीक हैं। यह अपने उपासकों को जीवन के सभी क्षेत्रों में विजय दिलाने के लिए जानी जाती है।  इनकी कृपा से शत्रु का दमन होता है।  नकारात्मक विचार प्रभावहीन  रहते हैं।
(8) विद्या लक्ष्मी -
इस छवि में देवी  सफ़ेद साड़ी पहने हुई है। वे सरस्वती की तरह दिखाई देती हैं। उनके चार भुजाएं हैं, जिनमें पुस्तक, कलम के रूप में मोर पंख, वरदा मुद्रा और अभय मुद्रा हैं।  वे अपने भक्तों को कला, विज्ञानं आदि सभी क्षेत्रों का  ज्ञान प्रदान करती हैं। वे सद्बुद्धि दायनी हैं। 

Wednesday 15 July 2020

(6.8.5) Shivling Ki Parikrama Ka Vidhan

Shvaling Ki Parikrama Kaise Ki Jati Hai ? Shivling Ki Kitani Parikrama Ki Jati Hai ?Shiv Ling Ki Adhi Parikrama Kyon Ki Jati Hai शिवलिंग की आधी परिक्रमा क्योंऔर कैसे की जाती है 

शिवलिंग की आधी परिक्रमा क्यों और कैसे की जाती है
भगवान शिव की पूजा - अर्चना करने से सम्पूर्ण मनोकामनाओं की पूर्ती होती है और भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है। शिवलिंग की परिक्रमा करना भी शिव पूजा का ही अंग है।
शिवलिंग की परिक्रमा  का विधान -
शिवलिंग की आधी परिक्रमा करने का ही विधान है। परिक्रमा करते समय सोम सूत्र लांघा नहीं जाता है। सोमसूत्र से तात्पर्य उस स्थान से है जिस स्थान की ओर शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल गिरता है। अतः जो व्यक्ति परिक्रमा करना चाहता है, उसे सोमसूत्र के पास इस तरह खड़ा होना चाहिए जिससे उसका दाहिना हाथ सोमसूत्र और शिवलिंग की तरफ रहे। परिक्रमा करते हुए सोमसूत्र तक जाकर बिना उसे लांघे पीछे मुड़कर वापस उस स्थान तक पहुँच जाये जहाँ से परिक्रमा शुरू की गई थी। इस प्रकार सोमसूत्र के पास से चल कर वापस सोमसूत्र तक आना शिवलिंग की आधी परिक्रमा पूर्ण होती है।
किस स्थिति में सोमसूत्र का लंघन किया जा सकता है - 
नित्य कर्म पूजा प्रकाश के पृष्ठ संख्या 297 के अनुसार यदि सोमसूत्र तृण, काष्ठ, पत्थर, ईंट आदि से ढका हुआ हो तो, उस सोमसूत्र का लंघन किया जा सकता है अर्थात लांघा जा सकता है। 

Wednesday 24 June 2020

(6.4.7) Sampannata Hetu Hanuman Chalisa Ki Chaupai

Sampannata Hetu Hanuman Chalisa ki Samputit Chaupai / Samputit Chaupai Of Hanuman Chalisa For Prosperity / आर्थिक सम्पन्नता हेतु हनुमान चालीसा की सम्पुटित चौपाई

आर्थिक सम्पन्नता हेतु हनुमान चालीसा की सम्पुटित चौपाई
हनुमान चालीसा में रामभक्त हनुमान जी के गुणों और कार्यों का सुन्दर वर्णन है। यों तो हनुमान चालीसा का पाठ सम्पूर्ण मनोकामनाओं की पूर्ति करता है और विपत्तियाँ दूर करता है; परन्तु हनुमान चालीसा की कुछ चौपाइयाँ मन्त्र के रूप में काम करती हैं।  इन चौपाइयों को सम्पुटित करके इनका पाठ किया जाए, तो पाठ करने  वाले व्यक्ति को अपेक्षित व चमत्कारी परिणाम प्राप्त होते हैं।
आगे बढ़ने से पहले हम समझेंगे कि किसी मन्त्र को सम्पुटित कैसे किया जाता है ?
किसी मन्त्र के पहले और बाद में किसी अन्य मन्त्र को बोलना सम्पुटित करना कहलाता है।
पाठ करने की विधि
दैनिक कार्य से निवृत्त होकर उत्तर या पूर्व की तरफ मुँह करके ऊन के आसन पर बैठ जाएँ। अपने सामने  हनुमान जी का चित्र रखें।  अपनी आँखे बंद करके हनुमान जी का ध्यान करें।
ध्यान इस प्रकार है -
अतुल बल के धाम , सोने के पर्वत सुमेरु के समान कान्ति युक्त शरीर वाले , दैत्य रूपी वन को ध्वंस करने के लिए अग्नि रूप , ज्ञानियों में अग्रगण्य , सम्पूर्ण गुणों के निधान , वानरों के स्वामी , श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवन पुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ।
इस प्रकार ध्यान के बाद , इस सम्पुटित चौपाई का मंगलवार या शनिवार से शुरू करके एक  माला का प्रति दिन जप करें और ग्यारह मंगलवार अथवा ग्यारह शनिवार को इस चौपाई का ग्यारह माला या सात माला या पाँच माला का जप करें।
चौपाई इस प्रकार है -
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता।
इस चौपाई के पहले और बाद में - "जै जै जै हनुमान गोसाईं , कृपा करो गुरुदेव की नाईं । " जोड़ा जायगा।
जैसे -
(1)जै जै जै हनुमान गोसाईं , कृपा करो गुरुदेव की नाईं।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता।
जै जै जै हनुमान गोसाईं , कृपा करो गुरुदेव की नाईं ।
(2)अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता।
जै जै जै हनुमान गोसाईं , कृपा करो गुरुदेव की नाईं।
(3)अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता।
जै जै जै हनुमान गोसाईं , कृपा करो गुरुदेव की नाईं।
(4)अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता।
जै जै जै हनुमान गोसाईं , कृपा करो गुरुदेव की नाईं।
(5)अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता।
जै जै जै हनुमान गोसाईं , कृपा करो गुरुदेव की नाईं ।
ये पाँच आवृत्तियाँ हुई। इसी प्रकार इसे 108 बार बोलने से एक माला का जप होगा।
जप के पश्चात् शान्ति पूर्वक बैठें, अपनी आँखें बंद करें और हनुमान जी के असीम स्नेह और शक्ति का चिंतन करें तथा पूर्ण विश्वास के साथ भावना करें कि आपकी प्रार्थना को सुन लिया है।  वे आपको आर्थिक सम्पन्नता का आशीर्वाद दे रहे हैं और आप उनकी कृपा व आशीर्वाद से आर्थिक रूप से सम्पन्न होते जा रहे हैं। इस चौपाई और हनुमान जी पर जितना ज्यादा विश्वास और आस्था होगी उतना ही अधिक फल प्राप्त होगा।

Tuesday 23 June 2020

(6.4.8) Hanuman Prarthana Mantra

Hanuman Prarthana Mantra / Hanuman Prayer Mantra For Fulfilling Desires / हनुमान प्रार्थना मन्त्र (मनोकामना पूर्ति हेतु ) हनुमान स्तुति मन्त्र

हनुमान प्रार्थना मन्त्र - मनोकामना पूर्ति  हेतु
भगवान् शिव के अवतार राम भक्त हनुमान जी कल्याणकारी शक्तियों के स्वामी हैं। वे उनके भक्तों के भक्ति भाव से प्रसन्न होकर उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं।
मनोकामना पूर्ति के लिए हनुमान जी का चित्र अपने सामने रखकर  उनके प्रार्थना मन्त्रों का नियमित रूप से पाँच या सात बार जप करें।
किसी विशेष उदेश्य की पूर्ति के लिए इन प्रार्थना मन्त्रों का जप करना हो तो कम से कम इकतालीस दिन तक प्रतिदिन ग्यारह बार जप करें।
जप के बाद शान्ति पूर्वक बैठ कर अपनी आँखें बंद करें और हनुमान जी के असीम स्नेह और शक्ति का चिंतन करें तथा पूर्ण विश्वास के साथ भावना करें कि हनुमान जी ने आप की प्रार्थना को सुन लिया है। वे आप को आप की मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद दे रहें है। इन प्रार्थना मन्त्रों और हनुमान जी पर जितना ज्यादा विश्वास और आस्था होगी उतना ही अधिक फल प्राप्त होगा।
उनके प्रार्थना मन्त्रों का नित्य स्मरण करने से मनोकामना पूर्ति के अतिरिक्त अन्य लाभ भी हैं जो इस प्रकार है -
(1) बुद्धि और विद्या प्राप्त होती है।
(2) सभी प्रकार के संकट दूर होते हैं।
(3) हनुमान जी की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त होते हैं।
(4) बंधनो से छुटकारा मिलता है।
(5) आत्मबल मजबूत होता है।
(6) नकारामक शक्तियाँ प्रभावहीन रहती हैं।
(7)आर्थिक सम्पन्नता आती है।
(8)कठिन कार्य सरल हो जाते हैं।
हनुमान जी के प्रार्थना मन्त्र (हिन्दी अर्थ सहित )इस प्रकार हैं -
(1)अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं  वातजातं नमामि।
अर्थ - अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन को ध्वंस करने के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन पुत्र, श्री  हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ।
(2)अंजनानन्दनं वीरं  जानकीशोकनाशनम्
कपीशमक्षहन्तारं वन्दे लंकाभयंकरम्।
अर्थ - श्री जानकी के शोक का नाश करने वाले, अक्ष कुमार का संहार करने वाले, लंका के लिये अत्यन्त भयंकर, वीर अंजना नन्दन श्री हनुमान जी की मैं वन्दना करता हूँ।
(3)मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं  श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये।
अर्थ - मैं मन के समान शीग्रगामी एवं वायु के समान वेग वाले, इन्द्रियों को जीतने वाले बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, वायु पुत्र, वानर समूह के प्रमुख, श्री राम दूत हनुमान जी की शरण ग्रहण करता हूँ।

Sunday 14 June 2020

(2.1.17) Udhyam - Purusharth

Uddhyam - Purusharth - Parishram / उद्यम - पुरुषार्थ - परिश्रम

उद्यम - पुरुषार्थ - परिश्रम
उद्यमेन हि सिध्यन्ति , कार्याणि न मनोरथैः
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखै मृगाः
अर्थात - उद्यम करने से ही कार्य पूर्ण होते है , केवल इच्छा करने से नहीं। सोये हुये शेर के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते हैं। उद्यम से ही किसी कार्य में सफलता मिलती है , न कि सफलता की कल्पना करने मात्र से। उद्यम से ही व्यक्ति सम्मान , महत्व और लक्ष्य प्राप्ति का हकदार बनता है।
परिश्र्म के बल पर ही व्यक्ति शिखर तक पहुँचता है। किसी की उन्नति या अवनति उसके परिश्रम के स्तर पर ही निर्भर करती है।
कर्मठ व्यक्ति के जीवन में उद्यम का बहुत  ऊँचा स्थान है। उद्यम या परिश्रम के बिना सफलता की कल्पना करने व्यर्थ है। - राजस्थानी भाषा में किसी कवि ने कहा है - 
राम कहे सुग्रीव नें , लंका केती दूर।
 आलसियां अलघी घणी , उद्यम हाथ हजूर।  
अर्थात -भगवान् राम ने सुग्रीव से पूछा - यहाँ से लंका कितनी  दूर है ? सुग्रीव ने उत्तर दिया - महाराज आलसी के लिए तो वह  बहुत दूर है ,परन्तु  उद्यमी के लिए मात्र एक हाथ की दूरी पर ही है ,अर्थात ज्यादा दूर नहीं है।
उद्यमी ही सब कुछ करने और पाने में समर्थ होता है। सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक जो भी विकास हुआ है ,वह किसी न किसी के परिश्रम का ही परिणाम है। परिश्रम या पुरुषार्थ से व्यक्ति का आत्म विश्वास बढ़ता है ,कुछ न कुछ नया करने की प्रेरणा मिलती है।
पुरुषार्थ से ही व्यक्ति सम्पदा ,मान ,ऐश्वर्य आदि प्राप्त कर सकता है, समय के प्रवाह को मोड़ कर उसकी दिशा अपने पक्ष में कर सकता है।
उद्यम जीवन का आवश्यक अंग है। ईश्वर भी उसकी सहायता करता है जो उद्यमी है। उद्यमी परिश्रम के बल पर अपने उद्देश्य प्राप्ति की ओर बढ़ता है और अंततः वह सफल भी होता है। असफलता उसे हताश नहीं करती है। वह काल्पनिक परेशानियाँ या चिंता पर समय नष्ट नहीं करता है, परस्थितियाँ कैसी भी हो ,उनका पूरे साहस से सामना करता है।
उद्यमी का ध्यान हमेशा अपने लक्ष्य की तरफ रहता है। अपने मन में दृढ विश्वास , संकल्प और सजगता के साथ सफलता व लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहता है। इस प्रयास से उसके हृदय में उत्साह उत्पन होता है जिससे वह बाधाओं से हतोत्साहित नहीं होता है।
उद्यमी ' चरैवेति - चरैवेति  ' अर्थात चलते रहो , के सिद्धांत का पालन करता है और उन्नति पथ पर आगे बढ़ता है। उद्यमी ठहरने को नकारता है क्योंकि ठहरने से जीवन नीरस बन जाता है। उद्यमी मानता है कि बैठे हुए व्यक्ति का भाग्य बैठ  जाता है ,खड़े होने वाले का भाग्य खड़ा हो जाता है तथा चलने वाले का भाग्य चलने लगता है। अतः वह शिथिलता का त्याग करके अपने कर्मपथ  पर आगे बढ़ता है।
तुलसी दासजी ने भी इस सन्दर्भ में कहा है - 
सकल पदारथ हैं जग माहीं , करमहीन  नर पावत नाहीं।
अर्थात - यह संसार सभी प्रकार के पदार्थों से भरा पड़ा है परन्तु उन्हें पाने के लिए परिश्रम आवश्यक है। परिश्रम या पुरुषार्थ ही मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र है; जिसके द्वारा इच्छित वस्तु को प्राप्त किया जा सकता है।  परिश्रमी व्यक्ति ही परिवार, समाज तथा  राष्ट्र की उन्नति कर सकता है।