Wednesday 21 December 2016

(7.1.11) Shani ki Dhaiya / Dhaiya of Shani

Shani ki Dhaiya / Dhaiya of Shani /शनि की ढैया या लघु कल्याणी 

शनि की ढैया क्या होती है ? What is Dhaiya of Shani ?
किसी व्यक्ति की जन्म राशि से शनि गोचर भ्रमण करते हुए चौथे या आठवें भाव में आये तो इस ढाई वर्ष की अवधि को शनि की ढैय्या या लघु कल्याणी  कहा जाता है।
शनि की ढैया का व्यक्ति के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ? What is the effect of the Dhaiya of Shani ?
जब शनि जातक की जन्म राशि से चौथे भाव में हो तो उस व्यक्ति (जातक ) को अपनी माता , शिक्षा , जमीन , मकान , वाहन , प्रसन्नता , सम्पन्नता , पारिवारिक जीवन से सम्बंधित परेशानियाँ आ सकती हैं।
जब शनि  व्यक्ति की जन्म राशि  से आठवें भाव में हो तो उस व्यक्ति को स्वास्थ्य ,गंभीर बीमारी , उत्तराधिकार में प्राप्त धन , यात्रा , ससुराल पक्ष से सम्बंधित परेशानियाँ आ सकती हैं।
  • हालाँकि सम्पूर्ण अवधि में शनि एक जैसा फल नहीं देता है। अन्य ग्रहों की गोचर की स्थिति और दशा अंतर दशा की स्थिति के कारण परिणाम में अन्तर आ जाता है।
  • इसके अतिरिक्त  शनि जन्म कुंडली में योग कारक, षडबल से युक्त, उच्च, स्व, मित्र राशि  या शुभ स्थान में हो तो व्यक्ति को  सुख सम्पति एवं व्यापार में अनायास ही सफलता दिला  देता  है। उसका विवाह, बच्चों  का जन्म या नौकरी में तरक्की , चुनाव में जीत , विदेश यात्रा , आदि  शुभ कार्य इस साढ़ेसाती के दौरान होते हैं।
  • शनि को न्याय का ग्रह माना जाता है। इसलिए यह व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए कर्मों के अनुसार उसे अच्छा या बुरा फल देता है। बुरे कार्य के लिए सजा देता है और अच्छे कार्य के लिए पुरुस्कृत करता है।
  • शनि की ढैय्या (लघु कल्याणी ) के उपाए :-Remedial measures to remove the adverse effect of Dhaiya of Shani 
  • शनि की ढैय्या  के दौरान दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए निम्नांकित उपाय लाभकारी हैं :-
  • कम से कम सात शनिवार तक हनुमान जी के मंदिर में जाकर सात या पाँच बार हनुमान चालीसा का पाठ  करें। (यदि मंदिर में नहीं जाया जा सके तो घर में किसी शांत स्थान पर बैठकर हनुमान चालीसा का ग्यारह बार पाठ  करें।
  • ( या ) शनि वार को सुन्दर कांड का पाठ करें।
  •  (या) सात शनिवार व्रत रखें , हनुमान जी के मंदिर में जायें , हनुमान जी को 100 ग्राम गुड व 100 ग्राम भुने हुए चने प्रसाद के रूप में चढ़ाएं।
  •  (या) निम्नांकित मन्त्र का जितना अधिक जप कर सकें उतना जप  करे - ॐ शं  शनैश्चराय नमः।
  • उपरोक्त उपायों के साथ - साथ यथा शक्ति तेल , तिल ,छाता , कम्बल , जूते आदि का  दान करें। कबूतरों को दाना खिलाएं व चीटियों के बिल के पास शक्कर मिला हुआ आटा डालें।

Monday 19 December 2016

(8.1.21) Nag Panchami

Nag Pancham / Nag Panchami Ka Tyohar नाग पंचमी / नाग पंचमी - साँपों को सम्मान देने का दिन 

When is Nag Panchami celebrated ? नाग पंचमी कब है ? 
श्रावण शुक्ल पंचमी को नाग पंचमी के नाम से जाना जाता है।  लोकाचार या देश-भेदवश श्रावण की कृष्ण पक्ष की पंचमी को नागपंचमी के रूप में जाना जाता है।
नाग पंचमी का महत्व - (Importance of Nag Panchami)
भारतीय ज्योतिष के अनुसार अलग-अलग तिथियों के अलग -अलग  स्वामी हैं , जैसे प्रतिपदा के स्वामी अग्नि हैं , द्वितीया के ब्रह्मा, तृतीया के गौरी, चतुर्थी के गणेश और पंचम तिथि के स्वामी सर्प (नाग ) है। इसी प्रकार  अन्य तिथियों के अलग -अलग स्वामी हैं । इसके साथ ही हिन्दू मान्यता के अनुसार साँपों को सम्मान देने की परम्परा भी है।  अत : नाग पंचमी के दिन व्रत रखा जाता है।
नाग पंचमी से जुड़े रीति रिवाज - 
 नाग पंचमी  के दिन आटे  में हल्दी मिलाकर नाग की  आकृति बनाई जाती है या घर के द्वार के दोनों और नाग (सर्प) की आकृति बनाई जाती है।  फिर दही, दूर्वा, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, मोदक और मालपुआ आदि से पूजा की जाती है।  फिर ब्राह्मणो को भोजन  करा कर एक भुक्त व्रत करने से घर  में सर्पों का भय नहीं रहता है।  

Saturday 17 December 2016

(8.1.20) Karawa Chauth / Karak Chaturthi Vrat

When is Karawa Chauth / karva chauth Vrat vidhi / Karva Chauth story करवा चौथ / करवा चौथ कब है ?

When is Karwa Chauth ? करवा चौथ कब है ?
कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को मनाया जाने वाला करवा चौथ व्रत उत्तर भारत में विवाहित स्त्रियों का लोकप्रिय व्रत है। इस दिन स्त्रियाँ अपने पति के स्वास्थ्य, दीर्घायु, एवं मंगल की कामना  करती हैं। वामन पुराण के अनुसार करवा चौथ या करक चतुर्थी का व्रत कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चंद्रोदय व्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है। 
Karwa Chauth Vrat Vidhi in Hindi / करवा चौथ व्रत विधि -
इस व्रत में शिव , पार्वती , कार्तिकेय और चंद्रमा का पूजन किया जाता है।  पूजन में मिट्टी का एक करवा पानी से भरा जाता है। इस करवे  में पैसे , काचरा , आंवला , पुष्प आदि डाले जाते हैं। करवे पर शक्कर से भरी हुई कटोरी और कटोरी पर ब्लाउज का टुकड़ा रखा जाता है। महिलाएं सुंदर वस्त्र पहन कर एक स्थान पर एकत्रित होती हैं और पूजा करती हैं। पूजन के बाद करवा चौथ की व्रत कथाएं सुनती हैं और चंद्रोदय होने पर चन्द्रमा की पूजा करके अर्घ्य दिया  जाता है और इसके बाद भोजन किया जाता है।
Karwa Chauth Story/करवा चौथ से जुडी कहानी - शाकप्रस्थपुर  के वेद धर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरवती ने करवा चौथ का व्रत किया था। नियम यह था कि चंद्रोदय के बाद भोजन करे परन्तु उससे भूख सहन नहीं हुई और वह व्याकुल हो गई। तब उसके भाई ने पीपल की आड़ में आतिश बाजी का सुंदर प्रकाश फैलाकर चंद्रोदय दिखा दिया और वीरवती को भोजन करवा दिया। परिणाम यह हुआ कि उसका पति अलक्षित हो गया। तब वीरवती ने बारह महिने तक चतुर्थी का व्रत किया और अगली करवा चौथ व्रत के बाद उसे उसका पति वापस प्राप्त हुआ।  
( सन्दर्भ - व्रत परिचय पेज- 132 )

(7.1.10) Kumbh Vivah / Ghat Vivah /कुंभ विवाह / घटविवाह

कुंभ विवाह / घट विवाह  Kmbh Vivah / Ghat Vivah 


Kumbh Vivah kya hota hai? GhatVivah kya hota hai ? कुंभ विवाह क्या होता है / घाट विवाह क्या होता है ?
कुम्भ विवाह का अर्थ है 'घट या घड़े' के साथ विवाह। यदि कन्या की कुंडली में मंगल दोष का परिहार नहीं हो रहा हो या वैधव्य योग हो तो कुम्भ विवाह इस का परिहार है।
Kumbh Vivah Process / Kumbh vivah ki vidhi कुम्भ विवाह या घाट विवाह की विधि 
इस प्रक्रिया  में  कन्या और मिट्टी  से बने हुए घट के बीच प्रतीकात्मक विवाह का आयोजन किया जाता है। कुम्भ विवाह ,एक सामान्य विवाह की तरह ही होता है जिसमें कन्या को विवाह की पौशाक पहनाई जाती है , कन्या के माता  पिता द्वारा कन्या दान किया जाता है, फेरों की रस्म भी निभाई जाती है। पंडित के द्वारा विवाह के मंत्रो का भी उच्चारण किया जाता है।जब सम्पूर्ण प्रक्रिया पूरी  हो जाती है तो घट को तालाब  या नदी के बहते पानी में प्रवाहित कर दिया जाता है।घट विवाह के बाद कन्या का विवाह वास्तविक वर के साथ किया जाता है। 
कुम्भ विवाह, कन्या का प्रथम विवाह माना  जाता है  और घट (कुम्भ ) कन्या के प्रथम पति का प्रतीक होता है। इस कुम्भ विवाह से कन्या की कुंडली में मंगल दोष, मंगल की खराब स्थिति या वैधव्य योग का दोष समाप्त हो जाता है।

Friday 16 December 2016

(8.1.19) Gangaur /गणगौर - लोक प्रिय त्यौहार

Gangaur - a popular festival of women गणगौर - लोक प्रिय त्यौहार / गणगौर मेला 

गणगौर पर्व/  Gangaur festival 
गणगौर राजस्थान का एक लोकप्रिय त्यौंहार है, इसे गुजरात और मध्य प्रदेश के कुछ भागों में भी मनाया जाता है। 'गण'  भगवान शिव का पर्याय है और 'गौर' देवी पार्वती का पर्याय है जो प्रसन्न  वैवाहिक जीवन के प्रतीक हैं (कभी कभी 'गण' के स्थान पर 'ईसर जी ' का भी प्रयोग किया जाता है)।यह त्यौंहार महिलाओं के द्वारा मनाया जाता है।वे अपने घरों में गण(ईसर जी )और गौरी (पार्वती )की मिट्टी की प्रतिमाएं बनाती हैं।
Why is Gangaur festival celebrated ? गणगौर का पर्व क्यों मनाया जाता है ?
विवाहित महिलाएं अपने पति के अच्छे स्वास्थ्य व दीर्घायु होने के लिए इन प्रतिमाओं की   पूजा करती हैं  और अविवाहित लडकियाँ अच्छा पति पाने के लिए इन प्रतिमाओं की पूजा करती हैं।
When is Gangaur festival celebrated / How is Gangaur festival celebrated ?गणगौर पर्व कब मनाया जाता है तथा कैसे मनाया जाता है ?
गणगौर का त्यौंहार होली के अगले दिन अर्थात चैत्र कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से शुरू होकर चैत्र  शुक्ल  तृतीया तक,कुल अठारह दिन तक चलता है। इस अवधि के दौरान विवाहित महिलाएं और अविवाहित लड़कियां प्रतिदिन गण और गौरी की प्रतिमाओं की पूजा करती हैं और कुछ महिलाएं व्रत भी रखती हैं।अठारवें दिन महिलाएं अपने हाथो में मेहन्दी लगाती हैं।गण और गौरी की प्रतिमाओं की पूजा करके अपने सिर पर रखती हैं और गीत गाती हुई पास के तालाब या झील तक जाती हैं और इन प्रतिमाओं को वहाँ विसर्जित कर देती हैं। इस विसर्जन का सम्बन्ध देवी पार्वती को अपने पति के  घर के लिए विदाई देने से है।ऐसी मान्यता है कि इन अठारह दिनों में देवी पार्वती अपने पिता के घर आती है और इस अवधि में वहीं ठहरती है।  और अठारहवें दिन चैत्र शुक्ल तृतीया को महिलाएं  उसे अपने पति के घर के लिए विदा करती हैं।इस विदाई के साथ ही यह त्यौंहार समाप्त हो जाता है।

Monday 21 November 2016

(3.2.1) Tulsi plant / Importance of Tulsi in Hinduism / तुलसी का महत्व

Tulsi ka Mahatv /तुलसी का महत्व / हिन्दू धर्म तथा तुलसी / Importance of Tulsi plant in Hindusm / 

तुलसी का महत्त्व -
हिन्दू संस्कृति में तुलसी के पौधे को बहुत महत्व दिया जाता है। कहा जाता है कि -
जिसके घर में तुलसी के पौधे लगे हुए हो, वह घर तीर्थ रूप हो जाता है, वहाँ यम दूत नहीं आते हैं। जो मनुष्य तुलसी मञ्जरी से भगवान् हरि हर की पूजा करता है, वह फिर दुबारा जन्म नहीं लेता है , वह मुक्ति का भागी हो जाता है।
तुलसी काननं चैव गृहे यस्यावतिष्ठे। 
तदगृहं तीर्थभूतं हि नायांन्ति यमकिंकराः। 
तुलसी मंजरीभिर्य कुयाद्ध रि हरार्चनम। 
न स गर्भगृहं याति मुक्ति भागी भवेन्नरः। 
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Sunday 20 November 2016

(7.1.9) Mangal Dosh / Kuj Dosh मंगल दोष / मंगल दोष का परिहार

Mangal Dosh / Kuj Dosh / What is Mangal Dosh ? मंगल दोष / मंगल दोष का परिहार / मंगल दोष का फल / मंगल दोष क्या है ? कुज दोष क्या है ? Mangal Dosh Kya Hai ? Mangal Dosh Ke Upay kya Hain ?

Mangal Dosh kya hai aur kaise hotahai ? मंगल दोष क्या है और कैसे होता है ?
जन्म कुंडली में जब मंगल जन्म लग्न से पहले ,चौथे ,सातवें ,आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो तो ऐसी कुंडली मांगलिक कुंडली कहलाती है।मंगल की इसी स्थिति  को मंगल दोष कहा जाता है। इसे विवाह के लिए शुभ नहीं माना जाता है। 
कुछ विद्वानों के अनुसार और विशेष रूप से दक्षिण भारत में कुंडली के दूसरे भाव में मंगल हो तो भी जातक को मांगलिक माना  जाता है। इस प्रकार बारह भावों में से छ भावों में मंगल होने पर मंगल दोष माना जाता है।
लेकिन -
जन्म कुंडली में अन्य बातें जैसे -मंगल की  मजबूत स्थिति ,उच्च ग्रहों का मंगल पर प्रभाव या कुंडली में इसी प्रकार की अन्य शुभ स्थितियां हो तो मंगल दोष अप्रभावी या  दोष रहित हो जाता है। इस के अतिरिक्त शास्त्रों में मंगल दोष दूर करने के उपाय भी उपलब्ध हैं, इस लिए मंगल दोष के होने पर डरने की आवश्यकता नहीं है। 
Mangal Dosh ka Parihar मंगल दोष का परिहार :-
ज्योतिष के शास्त्रों में जहाँ मंगल दोष का उल्लेख है,वहीँ इस दोष के निवारण या परिहार  का भी उल्लेख है।
मंगल दोष का परिहार दो प्रकार से होता है। 
(अ) स्वयं जातक की कुंडली से। (ब) साथी की कुंडली से।
 (अ) स्वयं जातक की कुंडली से परिहार  :-
1. मेष का मंगल लग्न में ,बारहवां धनु का हो, चौथा वृश्चिक का हो , सातवां मीन का हो और आठवां कुम्भ का मंगल हो तो उस कुंडली में मंगल दोष नहीं होता है।
2. मंगल पर गुरु की पूर्ण दृष्टि हो तो मंगल हानिकारक  नहीं होता है।
3. मंगल , गुरु के साथ अथवा चन्द्रमा के साथ हो या चन्द्रमा केंद्र में हो तो मंगल दोष का परिहार हो जाता है।
4. कन्या की कुंडली में गुरु केंद्र या त्रिकोण में हो तो मंगल दोष का परिहार हो जाता है।
5. यदि मंगल स्वराशि में हो,उच्च राशि में हो,मित्र राशि में हो,उच्च नवांश या मित्र नवांश में हो या वर्गोत्तमी हो तो भी मंगल दोष नहीं होता है।
(ब) साथी की कुंडली से मंगल दोष का परिहार :-
1. एक की कुंडली में मांगलिक स्थान में मंगल हो तथा दूसरे  की कुंडली में भी इन्ही स्थानों में मंगल हो तो इस से मंगल दोष का परिहार हो जाता है।
2. एक की कुंडली में मांगलिक स्थान में मंगल हो तथा दूसरे की कुंडली में  इन्ही स्थानों पर शनि या राहु हो तो यह मंगल दोष का परिहार है।
Mangal Dosh ke upay मंगल दोष के उपाय :-
यदि विवाह अनिवार्य हो और मंगल दोष का पूर्ण परिहार नहीं हो रहा हो या मंगल कष्टकारी स्थिति में हो तो इस के लिए निम्नांकित में से किसी एक उपाय को करना चाहिए  - घट/कुम्भ विवाह या  विष्णु विवाह  या महामृत्यंजय मंत्र का जप या मंगला गौरी व्रत या वट सावत्री व्रत करना चाहिए।  
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Saturday 19 November 2016

(7.1.8) Gand Mool Nakshatra / गंड मूल नक्षत्र या गण्डान्त मूल नक्षत्र

गंड मूल नक्षत्र या गण्डान्त मूल नक्षत्र / गंड मूल नक्षत्र क्या होते हैं ?अभुक्त मूल क्या होता है ?Gand Mool Nakshatra / Which are Gand Mool Nakshatra ? What is the effect of Gand Mool Nakashatra on the native 

Gand Mool Nakshatra kaunase Hote Hain / गण्ड मूल नक्षत्र कौनसे होते हैं ?
मूल , जेष्ठा ,अश्लेषा ,रेवती ,अश्विनी और मघा ,ये छ नक्षत्र गंड मूल नक्षत्र कहलाते हैं।इन में भी मूल,जेष्ठा व अश्लेषा विशेष गंड कारक होते हैं।अश्विनी ,रेवती व मघा ये उपगंड नक्षत्र हैं। 
गंड मूल नक्षत्र में जन्मे बालक - बालिका के लिए शांति कर्म करवाना चाहिए।यह  शांति कर्म वही नक्षत्र फिर लौट कर आये तब उसी नक्षत्र में  करना चाहिए।लेकिन किसी कारण वश उस समय का अतिक्रमण हो जाये  तो शांति कर्म - सूतकान्त समय में या तेरहवें  दिन , आठवें वर्ष में या जब कभी भी शुभ समय में जन्म नक्षत्र लौट कर आये , तब करवानी चाहिए। 
हालांकि गंड मूल नक्षत्रों में जन्म होना अच्छा नहीं माना जाता है।परन्तु इन नक्षत्रों में से कुछ नक्षत्रों के कुछ चरण ऐसे होते हैं  जो बालक -बालिका के लिए शुभ होते हैं।(और जो चरण ख़राब होते हैं , वे शांति कर्म से शुभ होते हैं।)
गंड मूल नक्षत्रों का जातक पर प्रभाव :-
नक्षत्र चरण के अनुसार जातक पर निम्नानुसार प्रभाव पड़ता है:-
1. अश्विनी नक्षत्र - 
पहला चरण - पिता को कष्ट।
दूसरा चरण - सुख सम्पति।
तीसरा चरण - मंत्री पद।
चौथा चरण - राज सम्मान।
2.  अश्लेषा नक्षत्र - 
पहला चरण -राज्य सुख (शांति कर्म से )।
दूसरा चरण - धन हानि ।
तीसरा चरण - माता के लिए कष्ट दायक ।
 चौथा चरण - पिता के लिए ख़राब ।
3. मघा नक्षत्र :-
पहला चरण - माता के लिए ख़राब ।
दूसरा चरण - पिता के लिए ख़राब ।
तीसरा चरण - सुख सम्पति ।
चौथा चरण - धन लाभ ,विद्या लाभ ।
4. जेष्ठा नक्षत्र :-
पहला चरण -बड़े भाई के लिए ख़राब ।
दूसरा चरण - छोटे भाई के लिए ख़राब ।
तीसरा चरण - पिता के लिए ख़राब ।
चौथा चरण - स्वयं के लिये ख़राब।
5. मूल नक्षत्र :-
पहला चरण - पिता को कष्ट।
दूसरा चरण - मात के लिए ख़राब ।
तीसरा चरण - धन नाश ।
चौथा चरण - शांति कर्म से शुभ।
6. रेवती :-
पहला चरण - राज सम्मान।
दूसरा चरण - मंत्री पद ।
तीसरा चरण - सुख सम्पति ।
चौथा चरण - अनेक कष्ट।
अभुक्त मूल :- 
नारद संहिता के अनुसार जेष्ठा की अंतिम चार घटी तथा मूल नक्षत्र की शुरू की चार घटी(एक घटी में 24 मिनट होते हैं) अभुक्त मूल कहलाता है।
आचार्य वशिष्ठ के अनुसार - जेष्ठा की अंतिम एक घटी और मूल नक्षत्र के प्रारम्भ की दो घटी  मिलाकर अभुक्त मूल है।
बृहस्पति के अनुसार जेष्ठा के अंत की आधी घटी और मूल नक्षत्र के प्रारम्भ की आधी घटी ,कुल एक घटी अभुक्त मूल है।
इस अभुक्त मूल की अवधि को बहुत  ख़राब माना  जाता है।इस अवधि में जन्मे बच्चे के लिए नक्षत्र शांति करानी चाहिए।यह नक्षत्र शांति कर्म जब वही नक्षत्र दुबारा लौट कर आये, उस दिन कराना चाहिए।   
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(7.1.3) Terah Din Ka Paksh / तेरह दिन का पक्ष

Teraha Din ka Paksh तेरह दिन का पक्ष 
एक माह में दो पक्ष होते हैं और प्रत्येक पक्ष में पंद्रह दिन होते हैं।कभी किसी पक्ष में दो तिथियों के क्षय होने से उस पक्ष में तेरह दिन रह जाते हैं।इस तेरह दिन के पक्ष को विश्व घस्त्र पक्ष का नाम दिया गया है।इस पक्ष में विवाह,सगाई आदि शुभ कार्य को वर्जित बताया गया है।
लेकिन कश्यप मुनी  के अनुसार विवाह आदि शुभ कार्य के समय लग्न से केंद्र में शुभ ग्रह हो तो यह (विश्व घस्त्र पक्ष )दोष समाप्त हो जाता हैं।पीयूष धारा कार ने भी यही मत प्रकट किया है।
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Tuesday 8 November 2016

(8.1.18) Akshay Navami / Amala Navami अक्षय नवमी /आमला नवमी

अक्षय नवमी / आमला नवमी / आमला नवमी का महत्व Akshay Navami / Aanvala Navami, /Kushmand Navami, /Dhatri Navami./ Important things about Akshay Navami 

When is Akshay Navami or Amla Navami अक्षय नवमी / आमला नवमी 
कार्तिक शुक्ल नवमी को अक्षय नवमी कहा जाता है।  अक्षय नवमी को अन्य नामों से भी जाना जाता है , जैसे - आँवला नवमी , कुष्मांड नवमी , धात्री नवमी आदि। 
Important things about Akshay Navami अक्षय नवमी के बारे में अन्य बातें :- 
(१) अक्षय का अर्थ होता है , जिसका क्षय नहीं हो। अक्षय नवमी के दिन किया हुआ पूजा - पाठ , दिया हुआ दान - पुण्य अक्षय हो जाता है ,इस कारण इसका नाम अक्षय नवमी है। 
(२) अक्षय नवमी को पूजा, व्रत , तर्पण , अन्नादि का दान करने से अनंत फल होता है। इस दिन गाय , भू और वस्त्र - आभूषण आदि का दान किया जाये तो यथा भाग्य इन्द्रत्व ,शूरत्व या नराधिपत्व की प्राप्ति होती है और पापों का नाश होता है। 
(३) कार्तिक शुक्ल नवमी को कुष्मांड नवमी भी कहा जाता है। इस दिन कुष्मांड (काशीफल / कद्दू ) में गुप्त दान (स्वर्ण ,चाँदी ,रूपया ,पैसा आदि) रख कर गंध ,अक्षत ,पुष्प आदि से पूजा कर गौ घृत ,फल ,अन्न आदि दक्षिणा के साथ योग्य ब्राह्मण को दान देने से विशेष फल मिलता है। 
(४) अक्षय नवमी के दिन स्नानादि करके पूर्व की ओर मुख करके आँवले के वृक्ष की षोडशोपचार या पंचपोचार विधि से पूजन करते हैं।  फिर वृक्ष की जड़ में दूध की धारा देकर ,पेड़ के चारों ओर सूत लपेट कर ,कपूर या घी की बत्ती से आरती करके एक सौ आठ परिक्रमा लगाते हैं। पूजन सामग्री में जल,रोली ,अक्षत, गुड ,बतासे ,दीपक और आँवला होने चाहिए। ब्राह्मण तथा ब्राह्मणी को भोजन करा कर ,तिलक करके दक्षिणा दें। फिर स्वयं भोजन करे।

(8.1.17) Haritalika Teej हरितालिका तीज व्रत विधि तथा महत्व

When is Haritalika Teej / Haritalika Teej Vrat process / Hari Talika Teej story in Hindi
हरितालिका तीज / हरितालिका तीज व्रत विधि तथा महत्व 

When is Haritalika Teej हरितालिका तीज कब है ?
भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हरतालिका व्रत किया जाता।
Haritalika Teej Vrat Vidhi हरितालिका तीज व्रत विधि 
सुहागिन स्त्रियाँ इस दिन शंकर पार्वती की बालू की मूर्ति बनाकर पूजा करती हैं। सुंदर वस्त्रों,कदली स्तम्भों  से घर को सजा कर नाना प्रकार के मंगल गीतों से रात्रि जागरण करती हैं। इस दिन व्रत रखने वाली स्त्रियाँ स्नान कर के नये कपड़े पहनती हैं।  थाली में पूजा की सामग्री रख कर शिवजी और पार्वती की पूजा करके प्रसाद चढ़ाती हैं।  कहानी सुनने के बाद शिवजी और पार्वती को धोती ,अंगोछा चढ़ा कर आरती उतारती  हैं। पार्वती  के लिए एक सुहाग पिटारी व तेरह मिठाई चढ़ाती हैं। फिर ब्राह्मण को धोती और अंगोंछा दान में देती हैं और सुहाग पिटारी किसी ब्राह्मणी को दिया जाता है। विवाहित स्त्रियाँ रुपये और तेरह मिठाइयाँ अपनी सासू माँ को देकर उनके पैर छूती हैं और आशीर्वाद लेती हैं। इस व्रत को करने वाली स्त्रियाँ संसार में सुख भोग करके शिव लोक को जाती हैं।
इसी दिन 'हरिकाली', 'हस्तगौरी',और 'कोटीश्वरी' आदि के व्रत भी होते हैं। इन सब व्रतों में पार्वती  के पूजन का प्राधान्य है। इन व्रतों को स्त्रियाँ करती हैं। 
Haritalika Teej Vrat story हरितालिका तीज से जुड़ी कथा -
हिमालय पुत्री ने शंकर को पति रूप में पाने के लिये कठिन तपस्या प्रारम्भ की। उसी घोर तपस्या के समय नारद जी राजा हिमालय के पास आये और कहा कि आपकी कन्या पार्वती का विवाह विष्णु भगवान  के साथ कर दें। नारद की बात को हिमालय ने स्वीकार कर लिया। फिर नारदजी विष्णु के पास गए और कहा कि आपका विवाह हिमालय ने पार्वती के साथ करना तय कर दिया है। इसकी स्वीकृति दें। पिता हिमालय ने पार्वती को भगवान विष्णु के साथ विवाह के बारे में बतलाया तो यह सुनकर पार्वती  को बहुत दुःख हुआ और एक सखी के पास जाकर बोली के मैं भगवान शंकर के साथ विवाह करने के लिए कठोर तपस्या प्रारम्भ  कर रही हूँ उधर मेरे पिता मेरा विवाह भगवान विष्णु के साथ करना चाहते हैं। यदि तुम मेरी सहायता कर सको तो बोलो ,अन्यथा मैं प्राण त्याग दूंगी। सखी ने सांत्वना देते हुये कहा कि मैं तुम्हें ऐसे वन में ले चलूँगी कि तुम्हारे पिता को कोई पता नहीं चलेगा। 
इस प्रकार पार्वती अपनी सखी के साथ घने जंगल में चली गई। इधर पिता हिमालय को पार्वती नहीं मिली तो वे बहुत दुखी हुए। वचन भंग की चिंता ने उनको मूर्छित कर दिया। तब सभी लोग पार्वती की खोज में लग गये। उधर सखी सहित पार्वती एक गुफा में शंकर के तपस्या करने लगी। भाद्रपद शुक्ला तृतीया को उपवास रखकर पार्वती  ने शिवलिंग स्थापित करके पूजन तथा रात्री जागरण किया। पार्वती के इस कठिन तप से भगवान शंकर को आना पड़ा तथा पार्वती  की मांग और इच्छा के अनुसार उसे अर्धांगिनी रूप में स्वीकार करना पड़ा। तत्पश्चात शंकर तुरन्त कैलाश पर्वत पर चले गए प्रात: बेला में जब पार्वती पूजन सामग्री नदी में छोड़ रही थी कि  हिमालय राजा उस स्थान पर पहुँच गए।  वे पार्वती को देखकर रोते हुए पूछने लगे बेटी !तुम यहाँ कैसे आ गयी ? तब पार्वती ने विवाह वाली प्रतिज्ञा सुना दी। पार्वती की इच्छा पूर्ति करने हेतु उन्होंने शास्त्र विधि से पार्वती का विवाह शिव से कर दिया।  सखी द्वारा हरी जाने पर इसका हरितालिका नाम पड़ गया।  जो स्त्री इस व्रत को परम श्रद्धा से करेगी उसे पार्वती के समान ही अचल सुहाग मिलेगा।      

Monday 7 November 2016

(8.8.4) Chaturmaas / Chaturmaas Vrat चातुर्मास / चातुर्मास के नियम

Chaturmaas / Chaturmaas kab Hai?/ Chaturmaas ke Niyam / Chaturmaas me kya karen
चातुर्मास / चातुर्मास के नियम / चातुर्मास में क्या करें / चातुर्मास में क्या दान दें 

When is Chaturmaas (Chaturmaas kab hai?) चातुर्मास कब है 
देव शयनी एका दशी के दिन से चातुर्मास प्रारम्भ हो जाता है। यह अवधि विष्णु भगवान के शयन की है। इस अवधि में भगवान विष्णु की प्रतिमा को स्नान कराकर श्वेत वस्त्र धारण कराकर शयन कराना चाहिए। उनका दीप , नैवेद्य आदि से पूजन करके स्तुति करनी चाहिए।  भगवान से प्रार्थना करें कि आप चार मास तक मेरे इस चातुर्मास व्रत को निर्विघ्न रखें। देव शयनी एका दशी से देव उठनी एकादशी  तक यह चातुर्मास का व्रत किया जाता है।
What to do during Chaurmaas चातुर्मास में क्या करें Chaturmaas me kya karen :-
1. चातुर्मास के दिनों में भगवान  विष्णु को दही , दूध , घी ,और शहद तथा मिश्री के स्वर स्नान कराना चाहिए तथा धूप , दीप , पुष्प नैवेद्य आदि से पूजा करनी चाहिए।
2. नित्य भोजन के भोग में तुलसी पत्र अर्पित करें।  प्रति दिन संध्या समाय दीप दान करना चाहिए। साथ ही वस्त्र आदि का दान पुण्य भी करना चाहिए।  प्रतिदिन भगवान  का चरणामृत लेना चाहिए।
3. विष्णु भगवान के मंदिर में नित्य प्रति एक सौ आठ बार गायत्री मंत्र या भगवान  विष्णु से सम्बंधित मंत्र का जप करना चाहिए। पुराणों और धर्मशास्त्रों का पठन या श्रवण करना चाहिए।
4. इस समयावधि में भगवान सूर्य को अर्घ्य दें। और गायत्री मंत्र द्वारा तिल या अन्न से हवन करें। और चातुर्मास की समाप्ति पर तिल या अन्न का दान करें।
What to donate during Chaturmaas चातुर्मास में क्या दान करें Chaturmaas men kya daan karen ?
चातुर्मास में दान पुण्य के कार्यो को विशेष महत्व दिया जाता है। जैसे - उत्तम ध्वनि वाले घंटे का दान , ताम्बे के पात्र का दान , तिल , तेल ,अन्न एवं वस्त्रों  का दान , गौ दान , स्वर्ण दान ,चांदी के पात्र में गुड का दान , शैया दान , शाक या फलों का दान , चांवल , मिर्च हल्दी आदि वस्तुओं का दान अपने सामर्थ्य के अनुसार करना चाहिए। और ब्राह्मण भोजन करना चाहिए।
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Saturday 5 November 2016

(8.8.3) Mangala Gauri vrat मंगला गौरी व्रतविधि तथा मंगला गौरी व्रत के लाभ

मंगला गौरी व्रत विधि तथा मंगला गौरी व्रत के लाभ Mangala Gauri Vrat Vidhi and benefits /मंगला गौरी व्रत कथा /मंगल गौरी व्रत उद्यापन 

When is Mangala Gauri Vrat observed /मंगला गौरी व्रत कब किया जाता है 
मंगला गौरी  व्रत विवाह के बाद स्त्री को पाँच वर्षों तक प्रतिवर्ष श्रावण के महीने में प्रत्येक मंगलवार को करना चाहिए। विवाह के बाद पहले श्रावण माह में पीहर में तथा अन्य चार वर्षों पतिगृह में ही यह व्रत करना चाहिये।
Mangala Gauri Vrat process मंगला गौरी व्रत विधि -
मंगलवार के दिन स्नान आदि करके स्वच्छ वस्त्र पहनकर पाटे पर लाल तथा सफ़ेद वस्त्र बिछायें। सफ़ेद वस्त्र पर नौ ढेरी चांवल और लाल वस्त्र पर सोलह ढेरी गेंहू की बना कर थोड़े से चांवल और रख कर उस पर गणेश जी को विराजित करें। पाटे के एक तरह गेंहू की छोटी ढेरी पर जल से भरा कलश रखें। फिर आटे का सोलह  मुँख वाला दीपक और सोलह बत्तियों से युक्त घी का दीपक  जलाये तथा पूजा करने का संकल्प लें। सबसे पहले गणेश जी की पूजा करें तथा आरती करें। फिर कलश की पूजा करें। फिर मंगला गौरी का  पूजन करें। इस पूजन के लिए एक थाली में चकला रखें, आटे की एक लोई बनाये और मिट्टी से गौरी की मूर्ति बनायें। पहले मंगला गौरी की मूर्ति को  पंचामृत से स्नान कराएँ फिर जल से स्नान करा कर वस्त्र और आभूषण धारण कराएँ। फिर रोली , चांवल , चन्दन, सिंदूर, हल्दी, मेहंदी, काजल लगा कर सोलह प्रकार के पुष्प चढ़ाएं।  माला, आटे के लड्डू , फल , पञ्च मेवा, पान, सुपारी आदि चढ़ाएं। एक सुहाग की डिब्बी , तेल ,रोली , काजल आदि भी चढ़ाएं। फिर सोलह  बत्ती वाले  दीपक और कपूर को जला  कर आरती करें। व्रत के दूसरे दिन प्रात: काल नदी या तालाब में  गौरी की प्रतिमा का विसर्जन कर दें।
मंगला गौरी व्रत का फल :-
जो महिला यह व्रत करती उसका पति स्वस्थ रहता है व दीर्घायु होता है। वह सफल और प्रसन्न विवाहित जीवन जीती है। परिवार में शांति व सम्पन्नता रहती है।
 मंगला गौरी व्रत का उद्यापन -
पाँच साल में मंगला  गौरी के सोलह या बीस व्रत  पूर्ण हो जाने पर उद्यापन करने हेतु इस दिन उपवास रखें। सदा की भांति मंगला गौरी का पूजन किसी पंडित से करवाकर उन्हें वस्त्र , माला , लोटा आदि दक्षिणा  में दें। सोलह लड्डुओं पर ब्लाउज पीस और रुपये रख कर अपनी सासू माँ के पैर छू कर उन्हें दें। दूसरे दिन भी सभी देवी देवताओं और मंगला गौरी का पूजन  करें। फिर एक  थाली  में सुहाग की सभी  सामग्री और रुपये रख कर संकल्प करके सासू माँ के पैर छू कर उन्हें देने चाहिए। फिर सोलह जोड़ों को भोजन करा कर श्रद्धा अनुसार दक्षिणा दें और प्रसाद वितरित करें।
 मंगला गौरी व्रत से जुडी कथा इस  प्रकार है - 
कुण्डिन नगर में धर्म पाल नाम का एक सेठ रहता था। उसके कोई पुत्र नहीं था इस लिए दंपति बड़े व्याकुल रहते थे। उनके यहाँ प्रति दिन एक जटा - रुद्राक्ष माला धारी भिक्षुक आया करता था। पति की सलाह से एक दिन सेठानी ने भिक्षुक की झोली में छिपा कर सोना डाल दिया। इस पर भिक्षुक ने उसे संतान  हीनता का  शाप दे दिया। फिर बहुत अनुनय करने पर गौरी की कृपा से उसे एक अल्प आयु पुत्र प्राप्त हुआ, जिसे गणपति ने सोलवें वर्ष सर्प दंशन का शाप दे दिया था परन्तु  उस बालक का विवाह एक ऐसी कन्या के साथ हुआ जिसकी माता ने मंगला गौरी व्रत किया  था, इस लिए वह शतायु हो गया और मंगला गौरी की कृपा से न तो उसे सांप काट  सका और न ही यमदूत ही सोलवें वर्ष में उसके प्राण ले जा सके।

(8.8.2) Pradosh Vrat प्रदोष व्रत विधि (हिंदी में )

प्रदोष व्रत / प्रदोष व्रत विधि (हिंदी में ) / प्रदोष व्रत के लाभ /प्रदोष व्रत का उद्यापन / Pradosh Vrat Vidhi / Pradosh Vrat benefits 

प्रदोष व्रतकब किया जाता है When is Pradosh vrat observed 
प्रदोष व्रत शिवजी की प्रसन्नता और प्रभुत्व प्राप्ति के उद्देश्य से प्रत्येक माह  के कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में आने वाली त्रयोदशी को किया जाता है। शिव पूजन और रात्रि भोजन के अनुरोध से इसे 'प्रदोष' कहते हैं। इसका समय सूर्यास्त से दो घड़ी रात बीतने तक है। जो मनुष्य प्रदोष के समय परमेश्वर ( शिवजी ) के चरण कमल का अनन्य भाव से आश्रय लेता है उसके धन - धान्य, स्त्री - पुरुष, बंधु  - बांधव और सुख - शांति  सदैव बढ़ते रहते हैं।
 पूजा विधि - प्रदोष व्रत करने वाले को त्रयोदशी के दिन, दिनभर  भोजन नहीं करना चाहिए। शाम के समय जब सूर्यास्त से तीन घटी  का समय शेष रह जाये तब स्नानादि कर्मों से निवृत्त  होकर, श्वेत वस्त्र धारण करे। फिर संध्या वंदन के बाद शिव जी का पूजन शुरू करे। पूजा के  स्थान पर कुश या ऊन का आसन बिछाकर उस आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके बैठ जाये। फिर भगवान महेश्वर  की स्थापित मूर्ति का इस प्रकार ध्यान करे -
ध्यान का स्वरूप 
करोड़ों चन्द्रमा के समान कांतिमान, त्रिनेत्र धारी, मस्तक पर चन्द्रमा का भूषण धारण करने वाले, पिंगल वर्ण के जटा जूठ धारी, नीलकंठ तथा अनेक हारों से सुशोभित वरद हस्त, परशुधारी, नागों के कुंडल पहने, व्याघ्र चरम धारण किये हुए, रत्न जटित सिंहासन पर विराजमान शिवजी का ध्यान करे।
मानसिक संकल्प :-
फिर मानसिक संकल्प करे इस के लिए हाथ जोड़कर मन में देवादिदेव शंकर का ध्यान करते हुए कहना चाहिए कि हे भगवान शंकर, आप सम्पूर्ण पापों के नाश निमित्त  प्रसन्न होइये। शोक रूपी अग्नि में दग्ध, संसार के भय से भयभीत एवं अनेक प्रकार के रोगों से आक्रांत इस अनाथ की आप रक्षा कीजिये। आप देवी  पार्वती सहित  पधार कर मेरी पूजा ग्रहण कीजिये। ऐसा करने के बाद 'ॐ नमः शिवाय' इस मन्त्र द्वारा उन का आव्हान करना चाहिए।  इस के बाद जल से शिवजी को स्नान कराये फिर वस्त्र, यज्ञोपवीत, गंध, द्रव्य और आभूषण आदि अर्पित करें। पुष्प और बेलपत्र चढाने चाहिए।  धूप दीप देकर नैवेद्य अथवा शक्कर या गुड से युक्त मिष्ठान्न  अर्पित करें। फिर ताम्बुल आदि चढ़ाकर आरती करनी चाहिए। अंत में 'ॐ नमः शिवाय' मन्त्र का एक हजार बार जप करना चाहिए। पूजा समाप्ति के बाद ब्राह्मण को भोजन करा कर यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिए।
कामना के लिये प्रदोष व्रत :-
प्रदोष व्रत को किसी कामना के लिए करना हो तो वह इस प्रकार है -
1.पुत्र प्राप्ति की कामना हो तो शुक्ल पक्ष की जिस त्रयोदशी को शनिवार हो, उससे प्रारंभ करके वर्ष पर्यंत या फल प्राप्त होने तक व्रत करे।
2.ऋण मोचन की कामना हो तो, जिस त्रयोदशी को मंगलवार हो, उससे आरम्भ करना चाहिए।
3.सौभाग्य और स्त्री की समृद्धि की कामना को तो, जिस त्रयोदशी को शुक्रवार हो, उससे आरम्भ करे।
4.अभीष्ट सिद्धि की कामना हो तो, जिस त्रयोदशी को सोमवार हो, उससे आरम्भ करना चाहिये।
5.आयु आरोग्यादि की कामना हो तो, जिस त्रयोदशी को रविवार हो, उससे आरम्भ करके प्रत्येक शुक्ल कृष्ण त्रयोदशी को एक वर्ष तक करे।
व्रत का उद्यापन
व्रत का उद्यापन करने के पहले दिन गौरी - गणेश पूजन करके घर में या किसी शिवालय में बंधु - बांधवों सहित कीर्तन करते हुए रात्रि भर जागरण करे। अगले दिन स्नानादि से निवृत्त होकर एक मंडप का निर्माण करके भगवान शिव और देवी पार्वती  के चित्र को स्थापित करे, उनका विधिवत पूजन करे। फिर खीर से हवन  करे। अपने वरण  किये हुए आचार्य या ब्राह्मण को वस्त्र आदि वस्तुएं अपने सामर्थ्य के अनुसार दे। ब्राह्मणों को भोजन कराये  और उन्हें दक्षिणा देकर संतुष्ट करे।
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Friday 4 November 2016

(2.2.6) Buddha Quotes in Hindi / गौतम बुद्ध के उपदेश

गौतम बुद्ध के उपदेश / बुद्ध के अनमोल विचार / गौतम बुद्ध की शिक्षा / Teachings of Gautam Buddha in Hindi 

> इस संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होता है, यही सनातन धर्म (नियम ) है। (धम्म पद 1 /5 )
> जैसे ठोस पहाड़ हवा से कम्पायमान नहीं हॉट, ऐसे ही पण्डित निंदा और प्रंशसा से विचलित नहीं होतें हैं।  (धम्म पद  6 /6 )
> यदि व्यक्ति कभी पाप कर डाले तो उसे बार बार न करे, उसमें रत न हो , क्योंकि पाप का संचय दुःख का कारण होता है। (धम्म पद 9 /2 )
> यदि पुरुष पुण्य करे, तो उसे बार बार करे, उसमें रत हो, क्योंकि पुण्य का संचय सुखकर होता है। (धम्म पद 9 /3)
> उत्साही बनें, आलसी न बनें, सुचरित धर्म का आचरण करें, धर्मचारी पुरुष इस लोक और परलोक में सुख पूर्वक सोता है। (धम्म पद 13 /3 )
> क्रोध को अक्रोध से जीतें असाधु को साधुता (भलाई ) से जीतें। कृपण को दान से जीतें, झूंठ बोलने वाले को सत्य से जीतें।(धम्म पद 17 /3)  

(5.1.11) Tulsi Vivah / Importance of Tulsi Vivah / तुलसी विवाह

Tulsi Vivah / Importanceof Tuulsi Vivah / तुलसी विवाह / तुलसी विवाह का महत्व / तुलसी विवाह कब किया जाता है / Marriage of Tulsi plant 

तुलसी विवाह / Tulsi Vivah ( For English translation click here) 
तुलसी एक पवित्र पौधा है। इसे विष्णु प्रिया के रूप में भी जाना जाता है।  तुलसी  विवाह को हिन्दू मान्यता के अनुसार धार्मिक कृत्य माना गया है। 
When to solemnize Tulsi Vivah तुलसी विवाह कब किया जाता है 
पद्म पुराण में कार्तिक शुक्ल नवमी को  तुलसी विवाह करने का उल्लेख किया गया है , परन्तु अन्य ग्रंथों के अनुसार देव प्रबोधिनी एकादशी से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक के पाँच दिनों में तुलसी विवाह करने को  अधिक फल दायी  माना  गया है।  
How is Tulsi Vivah solemnized तुलसी विवाह कैसे किया जाता है 
तुलसी के जिस पौधे का विवाह किया जाना है , उस पौधे को विवाह से तीन माह पूर्व से जल सींचना शुरू किया जाता है , प्रति दिन दीपक जलाया जाता है और पूजा की जाती है। देव प्रबोधिनी एकादशी या भीष्म पंचक अथवा ज्योतिष शास्त्रोक्त विवाह मुहूर्त में तोरण - मंडप आदि बना कर ब्राह्मण से गणपति , मातृका का पूजन , नान्दी श्राद्ध और पुण्याह वाचन  करा के मंदिर की साक्षात विष्णु  मूर्ति के साथ स्वर्ण के लक्ष्मीनारायण और पोषित तुलसी के पौधे के साथ स्वर्ण और चाँदी की तुलसी को शुभासन पर पूर्व की ओर  मुख करवा कर विराजमान करें आर यजमान ( दम्पत्ति जो तुलसी विवाह करा रहा है ) उत्तर की ओर  मुख करके बैठ जाये और गो धूलि वेला में 'वर ' ( भगवान विष्णु ) का पूजन , 'कन्या ' ( तुलसी ) का दान , हवन और अग्नि परिक्रमा आदि करके वस्त्र - आभूषण दे और यथा शक्ति ब्राह्मण भोजन करा कर स्वयं भोजन करे। 
Importance of Tulsi Vavah  तुलसी विवाह का महत्व   
जो व्यक्ति तुलसी विवाह का आयोजन करता है उसे कन्या दान का फल मिलता है पुण्य लाभ होता है।  

(9.3.1) Ramayan /रामायण / Important things about Ramayan

Ramayan / Raamaayan / रामायण - एक अनुपम महाकाव्य / रामायण के बारे में प्रमुख बातें 

> रामायण आदि कवि वाल्मीकि जी द्वारा संस्कृत में रचित एक अनुपम महाकाव्य है।यह भूतल का आर्ष ग्रन्थ है।  इसमें भगवान् राम की मर्यादाओं के आदर्श का निरूपण हुआ है।
> वाल्मीकीय  रामायण की वेदतुल्य प्रतिष्ठा है।  ब्रह्मा जी के वरदान से ही इस दिव्य महाकाव्य का प्राकट्य हुआ है। यह भूतल का प्रथम महा काव्य है।
> रामायण के रचियेता महर्षि वाल्मीकि प्रचेता के पुत्र हैं।  स्कन्द पुराण में इन्हें जन्मान्तर में व्याध बतलाया गया है।  व्याध जन्म के पहले भी ये स्तम्भ नाम के श्रीवत्स गोत्रीय ब्राह्मण थे।  व्याध जन्म में शङ्ख ऋषि के सत्संग से  तथा राम नाम के जप से दूसरे जन्म में ये अग्नि शर्मा हुए।  लेकिन व्याघ्यों की संगति से व्याध कर्म में लग गए।  फिर सप्त ऋषियों के सत्संग से ये 'मरा - मरा' जप कर  - बांबी पड़ने से ये वाल्मीकि नाम से विख्यात हुए और उन्होंने आर्ष ग्रन्थ वाल्मीकीय रामायण की रचना की।
> भक्ति, ज्ञान , सदाचार , सत - नीति, जप, तप, उपासना ,तथा नाम -महिमा के गौरव से यह ग्रन्थ भरा पड़ा है।
> रामायण में 24 00 हजार श्लोक हैं।
> रामायण में सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं।  इन कांडों के नाम हैं - बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दर काण्ड , लंकाकाण्ड (युद्ध काण्ड), उत्तर काण्ड।
> रामायण के सारे चरित्र (पात्र ) अपने धर्म का पालन करते हैं। 

Thursday 3 November 2016

(8.1.16) Vasant Panchami / Basant Panchami / Sarswati Puja

वसंत पंचमी / सरस्वती पूजा / बसंत पंचमी /Vasant Panchami / BasantPanchami / Sarswati Pooja 

वसंत पंचमी / बसंत पंचमी का महत्व  (for English translation click here
बसंत पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। प्रतिवर्ष माघ माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन इस त्यौहार को मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन देवी सरस्वती जो ज्ञान , बुद्धि, विद्या, कला व संगीत की देवी के रूप में मानी  जाती है, का प्रादुर्भाव (आविर्भाव) हुआ था।  इस लिए माघ शुक्ल पंचमी के दिन देवी सरस्वती की विशेष पूजा अर्चना की जाती है।
बसंत पंचमी के साथ ही बसंत ऋतु  का भी आगमन हो जाता है। बसंत आगमन की ख़ुशी में भी इस पर्व को मनाया जाता है। बसंत ऋतु में प्रकृति का सौन्दर्य विशेष छटा लिए हुए होता है जो बरबस ही सभी प्राणियों  को आकर्षित करता है। बसंत पंचमी कामदेव और रति के स्मरण एवं पूजन का भी दिन है। इस दिन भगवान कृष्ण व भगवान विष्णु की भी पूजा होती है।
कुछ अंचलों में फागोत्सव का आरम्भ भी इसी दिन से हो जाता है। इस दिन पीले वस्त्र पहनने और पीले रंग की खाद्य सामग्री का सेवन करने की भी परम्परा है। सरस्वती ज्ञान, विज्ञान, कला, बुद्धि, संगीत आदि की देवी है अत: शिक्षार्थी अपने कठिन परिश्रम के साथ - साथ देवी सरस्वती की भी पूजा अर्चना करे या  देवी से सम्बंधित किसी मन्त्र  का प्रतिदिन जप करे तो उसकी ( शिक्षार्थी) को सहज ही सफलता मिल जाती है। पूजा अर्चना अथवा मन्त्र जप की शुरुआत बसंत पंचमी के दिन से करना शुभ माना जाता है। बसंत पंचमी को अबूझ मुहूर्त के रूप में भी माना जाता है। अत: जब विवाह का उपयुक्त मुहूर्त उपलब्ध नहीं हो तो बसंत पंचमी के दिन विवाह संपन्न किया जाता है।
सरस्वती पूजन - विद्या प्राप्ति के लिए लाभकारी होता है। पूजन के लिये आप अपने हाथ में चांवल और पुष्प ले  लें और देवी सरस्वती का आव्हान  और ध्यान करें ( मानसिक रूप से देवी के स्वरुप का ध्यान करें।) सोलह उपचार या पांच उपचार से देवी का पूजन करे। यह  पूजा मानसिक पूजा के रूप में भी की जा सकती है। मानस पूजा में व्यक्ति किसी देवता को कोई भौतिक पदार्थ नहीं चढ़ाता है बल्कि वह किसी पदार्थ के चढ़ाने की मानसिक भावना करता है।
पंचपोचार से मानस पूजा - देवी का चित्र अपने सामने रखें। कुछ समय मौन होकर देवी के स्वरूप का ध्यान करें फिर मानस पूजा के निम्नांकित क्रम से पूजा करें:-
1. हे देवी, मैं पृथ्वी रूपी गंध ( चन्दन ) आपको अर्पित करता हूँ।
2. हे देवी, मैं आकाश रूपी पुष्प आपको अर्पित करता हूँ।
3. हे देवी, मैं वायु देव के रूप में धूप आपको प्रदान करता हूँ।
4. हे देवी, मैं आपको  अग्नि  देव के रूप में दीपक प्रदान करता हूँ।
5. हे देवी, मैं अमृत के समान नैवेद्य आपको प्रदान करता हूँ।
मानस पूजा के बाद देवी सरस्वती से संबंधित किसी भी मन्त्र, स्तोत्र, प्रार्थना का जप किया जाना चाहिए। पूजा के बाद देवी सरस्वती की आरती करें, पुष्पांजलि, प्रार्थना आदि करके प्रसाद चढ़ावें।  

Saturday 15 October 2016

(8.1.15) Sharad Poornima / Kojagari Vrat

Sharad Poornima / Kojagari Vrat /शरद पूर्णिमा / कोजागरी व्रत 

When is Sharad Poornima /शरद पूर्णिमा कब है ?
आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को ही शरद पूर्णिमा कहा जाता है। (For day and date CLICK HERE))
Important things about Sharad Poornima शरद पूर्णिमा के बारे में महत्वपूर्ण बातें 
(For English translation click here) 
इसे  कोजागरी पूर्णिमा भी कहा जाता है। भगवान कृष्ण ने जगत की भलाई के लिए इस दिन को रासोत्सव का दिन  निर्धारित किया था। इस दिन चन्द्रमा पृथ्वी के काफी नजदीक होता है। चन्द्रमा को कल्पना , मन, प्रेम और पुण्य का प्रतीक माना जाता है।ऐसा माना जाता है कि इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत बरसता है अत: शरद पूर्णिमा की रात्रि को गाय के दूध की खीर बना कर चन्द्रमा की किरणों में रखा जाता है। ठाकुर जी के भोग लगा कर अगले दिन प्रात: काल इस खीर को प्रसाद के रूप में दी जाती है। ऐसा माना जाता है कि यह खीर अमृतमयी होती है और शारीरिक व्याधियों से मुक्ति दिलाती है।
कोजागरी व्रत -
आश्विन शुक्ल निशीथ व्यापिनी पूर्णिमा को ऐरावत पर आरूढ़ हुए इन्द्र और महालक्ष्मी का पूजन कर के उपवास किया जाता है और रात्रि में कम से कम सौ दीपक प्रज्ज्वलित कर , देव मंदिर , बाग़ बगीचों , तुलसी , बस्ती के रास्तों , चौराहे , गली और वास भवनों की छतों पर रखें तथा प्रात:काल होने पर ब्राह्मणों को घी शक्कर मिली हुई खीर का भोजन करा कर दक्षिणा दें। यह अनंत फलदायी होता है। इस दिन रात्रि के समय इंद्र और लक्ष्मी घर - घर जाकर पूछते हैं , " कौन जागता है ?" इस के उत्तर में उनका पूजन और दीप ज्योति का प्रकाश देखने में आये तो उस घर में अवश्य ही लक्ष्मी और प्रभुत्व प्राप्त होता है। (सन्दर्भ -व्रत परिचय पृष्ठ 129 -130 )

Thursday 13 October 2016

(8.2.9) Gupt Navratra / गुप्त नवरात्र / गुप्त नवरात्रि

Gupt Navratra / Gupt Naratri / गुप्त नवरात्र / गुप्त नवरात्रि 

गुप्त नवरात्र कब है / When is Gupt Navratra (For day and date click here)
हिन्दू पँचांग के अनुसार एक वर्ष में चार बार नवरात्रा आते हैं। जिनमें से दो को प्रकट नवरात्रा और अन्य दो को गुप्त नवरात्रा कहा जाता है। 
गुप्त नवरात्रा एक वर्ष में दो बार आते हैं। जो नवरात्रा आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होते हैं , उन्हें आषाढ़ी गुप्त नवरात्रा या वर्षा ऋतु नवरात्रा कहा जाता है। और जो नवरात्रा माघ माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होते हैं , उन्हें माघी गुप्त नवरात्रा या शिशिर नवरात्रा कहा जाता है।   
साधक अपनी इच्छानुसार दुर्गासप्तशती का पाठ या दुर्गा के किसी मन्त्र का जप करे।
(या ) सुन्दर काण्ड का पाठ
 (या ) राम रक्षा स्त्रोत का पाठ
(या) गायत्री मन्त्र जप 
(या )रामचरित मानस पाठ
पाठ या मन्त्र जाप  का  फल - नवरात्रि  का समय वर्ष के श्रेष्ट समय में से एक है अत: इस अवधि में किये गए जप - तप , व्रत, उपवास का फल तुलनात्मक रूप से ज्यादा मिलता है।जप - तप  या पाठ निष्काम भाव से किया जाये या सकाम  भाव से, सभी का सुफल मिलता है, सुख समृद्धि में वृद्धि होती है। यदि  किसी विशेष उद्देश्य के लिए जप या पाठ किया जाता है तो उस उद्देश्य की अवश्य पूर्ति होती है।
अन्य उपयोगी लेख :-
1. नवरात्रा / नवरात्रि त्यौहार 
2. बसंत नवरात्रि 
3. शारदीय नवरात्रा  

(8.1.14) Mahashivratri / Shivratri Vrat / Shivratri ka Mahatva

Shivratri / Mahashivratri/ Shivratri Vrat / शिवरात्रि / महाशिवरात्रि/ शिवरात्रि व्रत/ शिवरात्रि कब मनाई जाती है ? 

When is Mahashivratri / शिवरात्रि कब मनाई  जाती है ?
फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को महाशिवरात्रि पर्व का आयोजन किया जाता है।  ( For day and date click here)
फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को ही शिव रात्रि का पर्व क्यों -
भारतीय पंचाग के अनुसार प्रतिपदा से लेकर सोलह तिथियाँ हैं । जिस तिथि का स्वामी जो देवता होता है , उसी देवता का उस तिथि में व्रत पूजन करने से उसकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान् शिव हैं। इस लिए इस तिथि में भगवान् शिव की पूजा अर्चना करना उतम माना जाता है। यदपि प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी शिव रात्रि होती है किन्तु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के निशीथ ( रात्रि ) में " शिव  लिङ्ग तयोद्भूत: कोटि सूर्य समप्रभ:। ईशान संहिता के इस वाक्य के अनुसार ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ था, इस कारण यह महा शिव रात्रि मानी जाती है। 
महा शिव रात्रि व्रत -
महा शिव रात्रि के दिन प्रात: काल स्नान करके व्रत का संकल्प लें और भगवान् शिव की विधि विधान पूर्वक पूजा करें तथा सायं काल शिव मंदिर में जाकर , गंध , पुष्प , बिल्व पात्र , धतूरे के फूल , घृत मिश्रित गुग्गल की धूप , दीप, नैवैद्य और नीराजनादि आवश्यक सामग्री समीप रख कर रात्रि के प्रथम प्रहर में 'पहली', द्वितीय प्रहर में 'दूसरी', तृतीय प्रहर में 'तीसरी' और चतुर्थ प्रहार में 'चौथी' पूजा करें। चारों पूजा पञ्च- पोचार या षोडशोपचार , जिस विधि से बन सके समान रूप से करें और साथ में रूद्र पाठ आदि भी करें। इस प्रकार करने से पाठ , पूजा , जागरण व उपवास सभी संपन्न हो सकते हैं। शिव रात्रि के व्रत में कठिनाई तो इतनी है कि वेद पाठी विद्वान् ही यथा विधि संपन्न कर सकते हैं और सरलता इतनी है कि पढ़ा हुआ अथवा अनपढ़ , धनी  या निर्धन सभी अपनी - अपनी सुविधा व सामर्थ्य के अनुसार भारी समारोह के साथ  या थोड़े से गाजर , बेर , मूली आदि सर्व सुलभ फल फूल से भी पूजन किया जा सकता है और दयालु भगवान् छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी सभी पूजा से प्रसन्न हो जाते हैं। 
महा शिव रात्रि व्रत का महत्व -
भगवान् शिव को प्रसन्न करने व अपनी मनोकामना पूर्ण करने का महोत्सव है , महा शिव रात्रि। इसके ठोस प्रमाण शिव पुराण  व स्कन्द  पुराण  में देखने को मिलते हैं।स्कंद पुराण का कथन है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिव जी का पूजन , जागरण व उपवास करने वाले व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता है। उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। विद्येश्वर संहिता के अनुसार महा शिव रात्रि के दिन जो प्राणी निराहार व जितेन्द्रिय रह कर उपवास रखता है, शिव लिंग के दर्शन , स्पर्श करता है वह जन्म मरण के बंधन से मुक्त होकर शिवमय हो जाता है। इस दिन भगवान् शिव की पूजा अर्चना करने से साधुओं को मोक्ष प्राप्ति , रोगियों  को रोगों से मुक्ति तथा सभी साधकों को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। इस दिन पूजा करने से गृहस्थ जीवन में चल रहा मत भेद समाप्त हो जाता है, अखंड सौभाग्य की  प्राप्ति होती है और साधक को शुभ फलों की प्राप्ति होती है।

(5.1.10) Hindu Marriage / Hindu Vivah Ke Prakar

Hindu Marriage / Types of Hinu Marriage / Aims of Hindu Marriage / हिन्दू विवाह / हिन्दू विवाह के उद्देश्य / हिन्दू विवाह के प्रकार 

हिन्दू विवाह क्या है ? What Hindu Marriage ?
हिंदुओं में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार के रूप में स्वीकार किया गया है। हिन्दू विवाह को इस प्रकार परिभाषित किया गया है -
 "हिन्दू विवाह एक संस्कार है , धार्मिक कृत्य है, जिसमें स्त्री - पुरुष के समन्वय से जन्म - जन्मान्तर का मिलन ,धर्माचरण का प्रजनन और सर्वतोमुखी उन्नति का रहस्य छिपा है।"  
हिन्दू विवाह के उद्देश्य - (objects of Hindu Marriage)
१. धार्मिक कार्यों की पूर्ति
२. पुत्र प्राप्ति
३. रति आनंद
४. व्यक्तित्व का विकास
५. परिवार के प्रति दायित्वों का निर्वाह
६. समाज के प्रति दायित्वों का निर्वाह
हिन्दू विवाह की प्रकृति और विशेषताएं जो इसे धार्मिक संस्कार बनातें हैं  - ( characteristics  of Hindu Marriage)
१. विवाह का आधार धार्मिक है।
२. धार्मिक दृष्टि से विवाह विच्छेद की स्वीकार्यता कम है।
३. विवाह का महत्वपूर्ण उद्देश्य ऋणों से मुक्ति है।
४. पतिव्रत का आदर्श।
५. स्त्री के लिए एकमात्र संस्कार।
६. पत्नी के लिए  "धर्म - पत्नी" तथा "सह-धर्मचारिणी" जैसे सम्बोधन।
७. धार्मिक अनुष्ठान और विधि विधान।
८. ब्राह्मणों की उपस्थिति में विवाह।
९. वेद मन्त्रों का उच्चारण।
१०. पवित्र अग्नि की साक्षी।
११. कन्यादान का आदर्श।
१२. धार्मिक आदेशों एवं निषेधों का महत्व।
स्मृति शास्त्रों में हिंदु विवाह के आठ प्रकार अथवा स्वरुप माने गये हैं  -(types of Hindu Marrage) 
ब्राह्मो देवास्तथैवार्षः प्रजापत्यस्तथासुरः। 
गान्धर्वॊ राक्षस श्चव पैशाचश्चाष्टमोघम।। (मनु 3/21) 
१. ब्रह्म विवाह - इसमें वेदों के ज्ञाता विद्वान, शीलवान वर को घर बुलाकर वस्त्र-आभूषण से सुसज्जित कन्या का दान किया जाता है। वर्तमान में इसी प्रकार का विवाह प्रचलित है।
२. देव विवाह - इसमें यज्ञ करने वाले पुरोहित को यजमान (जजमान ) अपनी कन्या का दान करता है।
३. आर्ष विवाह -  इसमें पिता गाय और बैल का एक जोड़ा लेकर विधि पूर्वक अपनी कन्या का दान करता है।
४. प्रजापत्य विवाह - इसमें लड़की का पिता लड़की व लड़के को साथ रहकर आजीवन धर्म निर्वाह का आदेश देकर कन्यादान करता है।
५. असुर विवाह - वर, कन्या के पिता को धन देकर विवाह करता है।
६. गन्धर्व विवाह -  गन्धर्व विवाह का स्वरुप वर्तमान  प्रेम विवाह के समान है।
७. राक्षस विवाह - इसमें कन्या को जबरन उठा लाकर या अपहरण करके विवाह किया जाता है।
८. पैशाच विवाह - इसमें सोई हुई, उन्मत, घबराई हुई, कन्या के साथ एकांत में सम्बन्ध स्थापित करके जो विवाह किया जाता है, वह पैशाच विवाह है। 
मनु स्मृति में मनु ने उपर्युक्त विवाहों में से प्रथम चार को ही प्रशस्त (मान्य) घोषित किया है।

(8.6.2) Maghi Amavasya / Mauni Amavasya माघी अमावस्या

Maghi Amavasya / Important things about Maghi Amavasya / Importance of Maghi Amavasya ? माघी अमावस्या 

When is Maghi Amavasya माघी अमावस्या कब है? 
हिन्दू पंचांग के अनुसार माघ माह की अमावस्या को माघी अमावस्या कहा जाता है।  इसे मौनी अमावस्या भी कहा जाता है।
माघी अमावस्या / मौनी अमावस्या का महत्व 
(1) इस दिन मौन रखने का बहुत महत्व माना जाता है।
(2) यह दिन सृष्टि के संचालक मनु का जन्म दिवस भी है।  इस दिन गंगा स्नान और दान दक्षिणा का विशेष महत्व है।  इस दिन, मौन रहकर गंगा स्नान या किसी पवित्र सरोवर में स्नान करना चाहिए।
(3) यदि यह अमावस्या सोमवार के दिन आये तो इस का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। माघ स्नान का सबसे अधिक महत्वपूर्ण दिन अमावस्या ही है।  
(4) माघ अमावस्या को गुरु वृष राशि में हो तथा सूर्य व चन्द्र मकर राशि में हो तब तीर्थराज प्रयाग में कुम्भ महापर्व का योग बनता है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार माघ माह की अमावस्या को प्रयागराज में तीन करोड़ दस हजार अन्य तीर्थों का समागम होता है।  
(5) जो नियम पूर्वक उत्तम व्रत पालन करते हुए माघ मॉस  में प्रयाग में स्नान करता है , वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में जाता है।
(6) पद्म पुराण के उत्तर खंड में भी माघ मास के माहत्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि  व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान् श्री हरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती है , जितनी के माघ मास  में स्नान से होती  है। इसलिए स्वर्ग लाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान् वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान करना चाहिए। 
(7)अमावस्या और पूर्णिमा ये दोनों पर्व तिथियाँ है।  इस दिन पृथ्वी के किसी न किसी भाग में सूर्य या चन्द्रमा का ग्रहण हो ही जाता है।और लोकान्तर में कहीं भी ग्रहण हुआ होगा - इस सम्भावना से धर्म प्राण हिन्दू इस दिन अवश्य दान-पुण्य आदि कर्म करते है।  
पूजा विधि  - माघी अमावस्या को प्रतिदिन के स्नान दान आदि के पश्चात वस्त्राच्छादित वेदी  पर वेद -वेदांग भूषित ब्रह्मा जी का गायत्री सहित पूजन  करे और वस्त्र, छत्र, शय्या आदि का दान देवे व सजातियों सहित भोजन करे।  
अर्घ्योदय - (महाभारत)- माघ कृष्णा अमावस्या को रविवार, व्यतिपात और श्रवण नक्षत्र हो तो 'अर्घ्योदय' योग होता है।  इस  योग में स्कन्द पुराण के अनुसार सभी स्थानों का जल गंगा तुल्य हो जाता है और सभी ब्राह्मण ब्रह्मा संनिभ शुद्धात्मा हो जाते हैं।  अत : इस योग में यत्किंचित किये हुए स्नान-दान आदि का फल मेरु (पर्वत ) समान हो जाता है।  यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि इस व्रत में जो भी दान दिया जाए उसकी संख्या तीन  हो।
अर्घ्योदय योग के अवसर पर सत्ययुग में वशिष्ठ जी ने, त्रेता में राम चन्द्र जी ने, द्वापर में धर्मराज ने अनेक प्रकार के दान, धर्म किये थे।  अत : धर्मघ्य सत्पुरुषों को अब भी दान पुण्य करते रहना चाहिए।

(5.2.1) Swaroday/ Shiv Swaroday / Swar Vigyan

Swaroday / Shiv Swaroday / शिव स्वरोदय / स्वरोदय / चन्द्र स्वर / सूर्य स्वर  

स्वर विज्ञानं / स्वरोदय के बारे में मुख्य बातें ( Important Things about Swaroday the science of Breathing )
What is Sarvoday / Swar Vigyan(स्वर विज्ञान क्या है )
 मानव सभ्यता के साथ साथ ज्ञान विज्ञान की अनेक शाखाओं का भी जन्म हुआ। स्वरोदय विज्ञान भी इन्ही में से एक है। स्वरोदय विज्ञान का सम्बन्ध श्वास -प्रश्वास से है। स्वर तीन प्रकार के होते हैं - सूर्य स्वर , चन्द्र स्वर और सुषुम्ना स्वर।   
What is Surya Swar (सूर्य स्वर क्या होता है) 
नासिका - नाक के दक्षिण (दाहिने) छिद्र से चलने वाले स्वर को पिंगला अथवा सूर्य स्वर कहा जाता है। इसे शिव का प्रतीक माना जाता है। 
What is Chandra Swar(चन्द्र स्वर क्या होता है )
वाम नासिका छिद्र (नाक के बाएँ छिद्र) से श्वास आगमन को इड़ा अथवा चन्द्र स्वर चलना कहा जाता है।इसे शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
What is Sushumna Swar (सुषुम्ना स्वर क्या होता है) 
दोनों नासा छिद्र से श्वास चलने को सुषुम्ना  स्वर की संज्ञा दी जाती है।
कब कौनसा स्वर चल रहा होता है 
किस समय कौनसे स्वर संज्ञा से श्वास प्रक्रिया हो  रही है,इस हेतु एक नासा छिद्र को दबा कर दूसरे नासा छिद्र से श्वास बाहर निकालने का अभ्यास करने से यह सहज ही विदित होगा कि कौन स्वर संज्ञा से श्वास प्रक्रिया हो रही  है। 
स्वर तथा यात्रा - Swar and journey 
(१) स्वरोदय विज्ञान के मतानुसार पूर्व तथा उत्तर दिशा में चन्द्र तथा पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में सूर्य रहता है।अतः दाहिना स्वर चलने पर पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में गमन नहीं करना चाहिए। बायां (चन्द्र स्वर )चलने पर पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर गमन नहीं करना चाहिए। 
(२) जब चन्द्र स्वर चले तो बायाँ पैर और  सूर्य स्वर चले तो दाहिना पैर आगे बढ़ाना चाहिये अर्थात जिस तरफ का स्वर चल रहा हो उसी तरफ का पैर पहले आगे बढाना  चाहिये। 
(What to do when Chandra Swar is on)चन्द्र स्वर और कार्य 
(१) चन्द्र स्वर के चलते समय किये गए कार्य का शुभारम्भ यश ,विजय तथा कीर्ति प्राप्ति का सूचक है। 
(२) जब चन्द्र स्वर चल रहा हो तो उस समय गृह प्रवेश ,शिक्षा ,विद्या ,कला का शुभारम्भ ,धार्मिक अनुष्ठान ,लेन - देन ,नवीन वस्त्र धारण ,जमीन जायदाद खरीदना ,व्यापार एवं सेवा कार्य ,विविध मांगलिक कार्य ,संपर्क ,मित्रता ,संधि ,कृषि ,स्वागत ,तिलक ,योगाभ्यास आदि सोम्य कार्य करना श्रेष्ठ व शुभ माना जाता है। 
What to do when Surya Swar is on (सूर्य स्वर और कार्य)
जब सूर्य स्वर चल रहा हो तो श्रम साध्य कठिन कार्य ,पशु क्रय-विक्रय ,तंत्र-मन्त्र साधना,औषध सेवन ,चिकित्सा कार्य करना चाहिए। 
What to do when Sushumna Swar is on (सुषुम्ना स्वर तथा कार्य ) -
जब सूर्य- चन्द्र अर्थात पिंगला - इडा दोनों  स्वर चल रहे हो, उस सुषुम्ना नाड़ी काल में सभी कार्य वर्जित रखने चाहिए। इस काल में योगाभ्यास ,स्व ईष्ट देव की आराधना ,पूजा आदि कार्य करना शुभ रहता है। 
Question and Swar (प्रश्न और स्वर)
(1) प्रश्न शास्त्र के अनुसार- यदि कोई व्यक्ति प्रश्न पूछे और उस समय श्वास अंदर जा रहा हो तो यह कार्य सिद्धि का बोधक है। और जब श्वास बाहर निकल रहा हो, उस समय प्रश्न पूछे तो यह  असिद्धि का बोधक है। 
(2) यदि बायां (चन्द्र स्वर )चलते समय प्रश्न पूछे, तो यह कार्य सिद्धि का सूचक है। और दाहिना स्वर (सूर्य स्वर )चलते समय प्रश्न पूछे, तो कार्य सिद्धि में संदेह की सम्भावना रहती है। 
(3) पुत्र या कन्या के जन्म संबधी प्रश्न हो तो ऐसे प्रश्न के समय देवज्ञ का सूर्य  स्वर चल रहा हो और सूर्य स्वर की तरफ ही बैठ कर प्रश्न कर्ता  प्रश्न पूछ रहा हो तो पुत्र होगा ऐसा समझे। यदि देवज्ञ का चन्द्र स्वर चल रहा हो तथा  प्रश्न कर्ता चन्द्र स्वर क़ी ओर बैठ कर प्रश्न करे तो पुत्री होगी, ऐसा समझे। यदि सुषुम्ना नाड़ी चल रही हो तो अभी सन्तान का कोई योग नहीं है, ऐसा समझे।

(1.1.22) Dohe of Bihari / बिहारी के दोहे / Bihari ke Dohe

Bihare ke Dohe / Dohe of Bihari / Kavi Bihari Ke Dohe / बिहारी के दोहे       

बिहारी के नीतिपरक दोहे उनकी लौकिक, व्यवहारपटुता और पर्यवेक्षण-शक्ति के परिचायक हैं। बिहारी के काव्य में भाव और भाषा का मणि-काञ्चन योग है। 
(१) कनक-कनक तै सौ गुनो, मादकता अधिकाइ। 
उहिं खायें बौराइ नर, इहिं पायें बौराइ।। 
(२) नर की अरु नल नीर की, गति एकै करि जोइ। 
जेतौ नीचौ ह्वै चलै, तेतौ ऊँचौ होइ।।
(३) बढ़त-बढ़त सम्पति सलिल, मन सरोज बढ़ि जाइ। 
घटत-घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ।।
(४) मीन न नीति गलीतु ह्वै, जौ धरियै धनु जोरि। 
खाएैं खरचैं जौ जुरै, तौ जोरियै  करोरि।।   
(५)चटक न छौंडत घटत हूँ, सज्जन नेह गंभीरु। 
फीकौ परै न बरु फटै, रैंग्यौ चोल रँग चीरु।।
(६) कोटि जतन कोउ करौ, परै न प्रकृतिहिं बीच। 
नल-बल जल ऊँचैं चढैं, अंत नीच कौ नीच।।   

Wednesday 5 October 2016

(8.5.9) Nirjala Ekadashi / Nirjala Ekadashi Vrat ( in Hindi )

Nirjala Ekadashi ? Nirjala Ekadashi Vrat / Nirjala Ekadashi Vrat Katha निर्जला एकादशी / निर्जला एकादशी व्रत / निर्जला एकादशी व्रत की कथा तथा महत्व 

When is Nirjala Ekadashi ? निर्जला एकादशी कब है ?
यह व्रत जेष्ठ शुक्ल एकादशी को किया जाता है।  इस एकादशी का नाम निर्जला है।
निर्जला एकादशी व्रत का महत्व -
निर्जला एकादशी के व्रत करने से आयु और आरोग्य वृद्धि के तत्व विशेष रूप से विकसित होते है। व्यास जी के कथनानुसार 'यह सत्य है कि  अधिक मास  सहित एक वर्ष की पचीस एकादशी का व्रत नहीं किया जा सके तो केवल निर्जला एकादशी का व्रत करने से ही पूरा फल प्राप्त हो जाता है।'
निर्जला एकादशी का व्रत करने वाले पुरुष या महिला को बूंदमात्र जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिए।यदि किसी प्रकार उपयोग में लिया जाए तो, उससे व्रत भंग हो जाता है । दृढ़तापूर्वक नियम पालन करने के साथ निर्जला एकादशी को  उपवास करके द्वादसी को स्नानादि से निवृत होकर सामर्थ्यानुसार मुद्रा आदि तथा जलयुक्त कलश दान देकर भोजन करे तो सम्पूर्ण तीर्थों में जाकर स्नान, दानादि करने के सामान फल प्राप्त हो जाता है। 
निर्जला एकादशी से जुड़ी कथा -
एक बार बहुभोजी भीमसेन ने व्यास जी के मुख से प्रत्येक एकादशी को निराहार रहने का नियम सुनकर विनम्रभाव से निवेदन किया कि  'महाराज, मुझसे कोई व्रत नहीं किया जाता है।  दिनभर बड़ी क्षुधा बनी रहती है।  अत: आप कोई ऐसा उपाय बतला दीजिये जिसके प्रभाव से स्वत: सद्गति हो जाये।'  तब व्यास जी ने कहा 'तुमसे वर्षभर की सम्पूर्ण एकादशी का व्रत नहीं हो तो केवल  निर्जला एकादशी का व्रत कर लो, इसी से साल भर की एकादशी का व्रत करने के समान फल हो जायेगा। ' इसके बाद भीम ने वैसा ही किया और स्वर्ग को गए।
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(8.1.13) Govardhan Puja / Ann Koot (in Hindi)

Govardhan Pooja / Anna Koot / गोवर्धन पूजा / अन्न कूट 

गोवर्धन पूजा - 
कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा के दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। पहले ब्रज के सम्पूर्ण नर -नारी अनेक  पदार्थों से इंद्र का पूजन करते थे और नाना प्रकार के व्यंजनों का भोग लगाते थे। किन्तु श्री कृष्ण ने इंद्र की पूजा को निषिद्ध बता कर गोवर्धन का पूजन करवाया। यह देख कर इंद्र ने ब्रज  पर प्रलय करने वाली वर्षा की, किन्तु श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठा लिया और ब्रज  वासियों  को उसके नीचे खड़ा रख कर बचा लिया। तब से ही गोवर्धन पूजा के पर्व को मनाया जाता है। 
दीपावली के दूसरे दिन प्रात: काल घरों के बाहर गोवर्धन पर्वत के प्रतीक के रूप में गोबर का गोवर्धन बनाया जाता है, इसे पुष्पादि से सजाया जाता है।  गोवर्धन पूजा के दिन प्रात: काल एक जलता हुआ दीपक और पूजा सामग्री से गोवर्धन की पूजा की जाती है।  इस के अतिरिक्त रोली, मौली , नैवेध्य , चाँवल और गंध आदि से पूजा की जाती है और दही को गोवर्धन पर डाला जाता है। 
अन्नकूट - 
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को भगवान के नैवेध्य में नित्य के नियमित प्रदार्थों के अतिरिक्त यथा सामर्थ्य के अनुसार  दाल , भात , साग आदि कच्चे , हलवा , पुड़ी , खीर आदि पक्के , केले, नारंगी, अनार आदि फल  का प्रयोग करके नैवेध्य तैयार किया जाता है।  इसे भगवान को अर्पित कर के प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता  है।   
नव वर्ष - 
भारत के कुछ भागों में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से नव वर्ष का प्रारंभ माना जाता है।  वे इसे नए वर्ष के प्रथम दिवस के रूप में ,मनाते हैं। इस दिन को साढ़े तीन स्वयं सिद्ध मुहूर्त के रूप में भी माना जाता है।  इस लिए किसी भी नए कार्य को शुरू करने के लिए उपयुक्त मुहूर्त नहीं हो तो उस कार्य को इस दिन से शुरू  किया जा सकता है।

Tuesday 4 October 2016

(8.1.12) Narak Chaturdashi / Roop Chaturdashi

Roop Chaturdashi / Narak Chaturdashi / रूप  चतुर्दशी / नरक चतुर्दशी 

When is Narak Chaturdashi ?When is Roop Chaturdashi ?/ नरक चतुर्दशी कब है ? रूप चतुर्दशी कब है ?
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन नरक चतुर्दशी अथवा रूप चतुर्दशी का पर्व मनाया जाता है।
इस दिन नरक से मुक्ति पाने के लिए प्रात: काल तेल लगा कर अपामार्ग अर्थात चिचड़ी के पौधे से मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। इस दिन शाम को यमराज की प्रसन्नता के लिए दीपदान करना चाहिए।  
इसे रूप चतुर्दशी भी कहा जाता है।  इस दिन प्रात: काल उठकर आटा , तेल , हल्दी से उबटन कर के स्नान करना चाहिए।  
दीपदान:- 
शाम को भोजन करने से पूर्व एक थाली में एक चौमुखा दीपक और छोटे दीपक रख कर उनमे तेल और बत्ती डालकर जला लें । फिर रोली , अबीर , गुलाल , पुष्प आदि से पूजा करें।  पूजन के पश्चात् सब दीपकों को घर में विभिन्न स्थानों पर रखें जैसे पूजा के स्थान पर , परिंडे पर ( जल रखने के स्थान पर ), तुलसी के पौधे के नीचे आदि। शेष दीपकों को घर के पास स्थित देवालयों में , पीपल के वृक्ष के नीचे तथा यमराज के लिए तेल का दीपक जलाकर दक्षिण दिशा की ओर मुह कर के चौराहे पर दीपदान करना चाहिए।  
यम तर्पण - 
कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को सायं काल के समय दक्षिण दिशा की ओर मुँह  कर के जल , तिल और कुश लेकर देव तीर्थ से  "यमाय  धर्मराजाय मृत्युवे अनन्ताय वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय औदुम्बराय  दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने वृकोदराय चित्राय और चित्रगुप्ताय। " इन में से प्रत्येक नाम का ' नमः ' सहित उच्चारण कर के जल छोड़े।  यज्ञोपवीत को कंठी की तरह रखे और काले तथा सफ़ेद दोनों प्रकार के तिलों को काम में लें।  कारण  यह है कि यम में धर्म राज के रूप में देवत्व और यमराज के रूप में पितृत्व - ये दोनों अंश विद्यमान हैं। 
 हनुमान जयंती - 
यद्यपि अधिकांश उपासक कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ही हनुमान जयंती के रूप में मानते हैं और व्रत करते हैं , परन्तु शास्त्रांतर में चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हनुमान जन्म का उल्लेख किया गया है। 
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमान जयंती मनाने का कारण यह है कि लंका विजय के बाद श्री राम अयोध्या आये। भगवान रामचन्द्रजी ने और भगवती जानकी  जी ने वानरादि को विदा करते समय यथा योग्य पारितोषिक दिया था।  उस समय इसी दिन ( कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ) सीता जी ने हनुमान जी को पहले तो अपने गले की माला पहनायी ( जिसमें बड़े - बड़े बहुमूल्य मोती और अनेक रत्न थे ) परंतु उस माला में राम - नाम नहीं होने से हनुमान जी उससे संतुष्ट नहीं हुए।  तब सीता जी ने अपने ललाट पर लगा हुआ सौभाग्य द्रव्य 'सिंदूर' प्रदान किया और कहा कि  इससे बढ कर मेरे पास अधिक महत्त्व की कोई वस्तु नहीं है, अतएव तुम इस को हर्ष के साथ धारण करो और सदैव अजर - अमर रहो।  यही कारण है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमान जन्म उत्सव मनाया जाता है और तेल सिंदूर चढ़ाया जाता है। (सन्दर्भ - व्रत परिचय पेज 136 -137 )   

(2.2.5) Bible Quotes / Quotations of Bible in Hindi

Bible ke quotation / बाइबल के कोटेसन / Bible quotes 

(१) जिनका भला करना चाहिए, यदि तुझमें शक्ति रहे, तो उनका भला करने से न रुकना। 
(२) यदि तेरे पास देने को कुछ हो, तो तेरे पड़ौसी से कभी यह न कहना कि - 'जा कल आना,मैं कल तुझे दूँगा। '
(३) दूसरों को तुच्छ समझने वालों को प्रभु तुच्छ समझता है, परन्तु जो मनुष्य नम्र और दीन हैं, उन पर प्रभु अनुग्रह करता है। 
(४) बुद्धिमान को सम्मान मिलता है, पर मूर्ख का हर जगह अपमान होता है। 
(५) कोई भी मनुष्य दुष्टता के कारण स्थिर नहीं होता, परन्तु धर्मियों की जड़ कभी नहीं उखड़ती है। 
(६) बिना सोचे विचार बोले गए वचन तलवार के समान चुभते हैं,परन्तु बुद्धिमानी के वचन घाव पर मरहम का काम करते हैं। 
(७) सच्चाई सदा बनी रहेगी, जबकि झूठ पल भर का ही होता है। 
(८) मनुष्य का सारा आचरण उसे अपनी दृष्टि में ठीक लगता है, परन्तु प्रभु तो मन को जाँचता है। 
(९) जो धन झूठ के  द्वारा प्राप्त हो, वह वायु से उड़ जाने वाला कुहरा है,उसे ढूँढने वाले मृत्यु को  ही ढूँढ़ते हैं। 
(१०) जो उपद्रव दुष्ट जन करते हैं,उससे उन्ही का नाश होता है,क्योंकि वे न्याय का काम करने से इनकार करते हैं।
(११) पाप से भरे हुए मनुष्य का मार्ग बहुत टेढ़ा होता है, परन्तु जो मनुष्य पवित्र है, उसका आचरण निष्कपट होता है। 
(१२) जो मनुष्य गरीब की दुहाई को अनसुना करता है, वह भी जब सहायता के लिए पुकारेगा, तब उसकी दुहाई भी सुनी नहीं जाएगी। 
(१३) न्याय पूर्ण कार्य करना धर्मी जनों को आनंद प्रदान करता है, परन्तु अत्याचारी को यही विनाश का कारण जान पड़ता है। 
(१४) जो मनुष्य अपने मुँह और जीभ को वश में रखता है, वह अपने प्राण को अनेक विपत्तियों से बचा लेता है। 
(१५) बुरा मनुष्य अपने दुर्वचनों के कारण जाल में फँसता है, जबकि धर्मात्मा अपने सदवचन से बच निकलता है।

(8.1.11) Anant Chaturdashi अनंत चतुर्दशी कब है

Anant Chaturdashi / अनंत चतुर्दशी व्रत कब है / Anant Chaturdashi Vrat  

When is Anant Chaturdashi /अनंत चतुर्दशी कब है ?
भाद्रपद शुक्ल पक्ष  चतुर्दशी  को अनंत चतुर्दशी के नाम से जाना जाता है। 
 इस व्रत के लिए उदय व्यापिनी तिथि ली जाती है।  पूर्णिमा  का सहयोग होने से इसका फल बढ़ जाता है।यह व्रत (दिवस ) भगवान विष्णु से सम्बन्धित है।   व्रती को चाहिए की वह उस दिन प्रातः काल  स्नान  आदि से निवृत्त  होकर 'ममाखिल  पाप क्षय पूर्वक शुभ  फल वृद्धये  श्री मदनंत प्रीति कामनया अनंत व्रतमहं करिष्ये ' ऐसा  संकल्प कर के अपने स्थान को स्वच्छ और सुशोभित करे।  लकड़ी के पाटे या चौकी पर भगवान अनंत जो भगवान विष्णु  के ही रूप हैं , की एक प्रतिमा स्थापित करे।  इसके आगे किसी धागे को हल्दी में रंगकर उस धागे के 14  गाठें लगाकर अनंत दोरक रखे।  फिर  गंध, पुष्प , धूप , दीपक,नैवेध्य  आदि से पूजन करे।  पूजन में पंचामृत , पंजीरी ,केले ,मोदक आदि का प्रसाद अर्पण करे और उस अनंत दोरक (धागे ) को बांध ले।  इस के बाद भगवान अनंत की कथा सुने तथा 14 युग्म ब्राह्मण को भोजन कराये।  फिर स्वयं भोजन करे।  भोजन में नमक नहीं डाले।
अनंत चतुर्दशी की कथा :-
वनवास के दौरान एक दिन वन में युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से अपना दुःख कहा तथा दुःख के दूर करने का उपाय पूछा।  श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा की तुम विधि पूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो।  इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जायेगा और तुम्हारा गया हुआ राज्य भी तुम्हे मिल जायेगा।  इस सन्दर्भ में उन्होंने  युधिष्ठिर को यह कथा सुनाई :-" प्राचीन काल में सुमन्तु नाम के ब्राह्मण के एक कन्या थी जिसका नाम सुशीला था।  ब्राह्मण ने उस कन्या का विवाह ऋषि कौडिन्य से कर दिया।  कौडिन्य ऋषि सुशीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए।  रास्ते में रात हो गयी।  वे नदी के तट पर संध्या करने लगे।  सुशीला ने देखा - वहाँ बहुत सी स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्र धारण करके किसी देवता की पूजा कर रही हैं।  सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधि पूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बता दी।  सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान  कर 14 गांठों वाला धागा अपने हाथ के बांध लिया और अपने पति के पास वापस आ गयी।  कोडिन्य ने सुशीला से धागे  के बारे में पूछा तो उसने सारी  बात स्पष्ट कर दी। कौडिन्य सुशीला की बात से प्रसन्न नहीं हुए।  उन्होंने धागे को तोड़कर आग में जला दिया।  यह भगवान  अनंत का अपमान था।  परिणामस्वरूप कौडिन्य मुनि हर तरह से दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पति नष्ट हो गयी।  इस दरिद्रता का कारण पूछने पर सुशीला ने अनंत भगवान के धागे को जलाने की बात दोहराई। पश्चाताप स्वरुप ऋषि कौडिन्य भगवान अनंत को ढूढ़ने के लिए वन में चले गए।  जब वे भटकते हुए निराश होकर गिर पड़े तो भगवान अनंत  एक बूढ़े ब्राह्मण के रूप में उनके पास प्रकट होकर बोले, " हे, कौडिन्य तुमने भगवन अनंत का तिरस्कार किया है इस लिए तुम दुखी हुए हो।  तुमने पश्चताप कर लिया है इसलिए भगवान तुम पर प्रसन्न हो गए हैं।  अब घर जाकर विधि पूर्वक 14 वर्ष तक अनंत चतुर्दशी  का व्रत करो।  इससे तुम्हारा दुःख दूर हो जायेगा।  तुम्हे अनंत सम्पति मिलेगी। कौडिन्य ने वैसा ही किया।  इससे उसके सारे दुखों से मुक्ति मिल गयी।
भगवान कृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए  तथा  चिरकाल तक राज्य किया।"
नोट :-  अनन्त चतुर्दशी गणेश उत्सव का अंतिम दिवस होता है। इस दिन भगवान गणेश की प्रतिमाओं का विसर्जन भी किया जाता है। 

(8.1.10) Vaman Dwadashi / Vaman Jayanti / वामन द्वादशी / वामन जयंती

Vaman Jayanti / Vaman Dwadashi / वामन द्वादशी / वामन जयंती 

वामन जयंती कब है ? When is Vaman Jayanti 
भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को वामन जयंती अथवा वामन द्वादशी के नाम से जाना जाता है। जो व्यक्ति इस दिन व्रत रखता है , वामन देव की पूजा करता है, भगवान वामन की कृपा से उसकी सम्पूर्ण इच्छाएं पूर्ण होती हैं।
वामन और बलि की कहानी 
भगवान वामन भगवान विष्णु के  अवतार है इनके पिता का नाम कश्यप और माता का नाम अदिती था। भाद्रपद शुक्ल पक्ष में द्वादशी के दिन श्रवण नक्षत्र और अभिजीत मुहूर्त में मध्यान्ह के समय भगवान वामन का जन्म हुआ था।  इस द्वादशी को विजया द्वादशी भी कहा जाता है। भगवान वामन शस्त्र, आभूषण आदि धारण किये हुए रूप में प्रकट हुए थे तथा अपने स्वरूप को वामन रूप में बदल लिया था।  उस वामन रूप को देखकर सभी प्रसन्न हुए और जात कर्म आदि संस्कार करने लगे।  यज्ञोपवीत के समय सूर्य ने इन्हें गायत्री का उपदेश किया, देव गुरु वृहस्पति ने यज्ञोपवीत व कश्यप ने मेखला दी।  तदनन्तर वामन जी ने सुना कि शुक्राचार्य की सलाह से बलि ने बहुत से अश्वमेघ  यज्ञ  कराये हैं। यह यज्ञ सौवां था। यह नर्बदा के उत्तर तट पर भृगु कच्छ तीर्थ पर हो रहा था।  भगवान वामन उस यज्ञ स्थल पर पहुंचें। बलि  ने उनका स्वागत कर चरणों को धोकर उनका पूजन किया।  फिर बलि बोले - आप के आने से हमारा यह यज्ञ सफल को गया है। आपकी जो इच्छा हो सो मांगिये।  वामन बोले - मैं केवल तीन पैर ( डग ) पृथ्वी मांगना चाहता हूँ , और मैं स्वयं ही इसे अपने पैरों से नापूंगा।  राज बलि हंस कर बोले - आप के वचन तो वृद्धों के समान हैं, परन्तु आपकी बुद्धि बालकों के समान है।  हे ब्राह्मण , आप चाहो तो मैं आपको एक द्वीप दे दूँ।  इस पर वामन जी बोले - हे नृप , जो तीन पैर पृथ्वी से संतुष्ट नहीं हुआ है , वह वन खंड मिलाने से भी संतुष्ट नहीं हो सकता है।  इसीलिए जो मिल जाये उसी पर संतोष करना मुक्ति का हेतु होता है।  अत: आप मुझे केवल तीन डग पृथ्वी ही दीजिये।  राजा  बलि के दान देने की सहमति पर भगवान वामन ने अपना रूप विराट  बना लिया और एक पग से बलि की साडी पृथ्वी नाप ली , शरीर से आकाश  और भुजाओं से दिशाएं घेर ली।  दूसरे  पग से  उन्होंने स्वर्ग को नाप लिया।  तीसरा पैर रखने के लिए बलि के पास कोई जगह नहीं बची।  अपने वचन को पूरा करने के लिये बलि ने भगवान वामन से कहा कि आप अपना तीसरा पैर मेरे सिर पर रख दीजिये।  भगवान वामन बलि की उदारता और दान शीलता से प्रभावित होकर उनको पटल लोक का साम्राज्य दे दिया और स्वयं ने द्वारपाल का पद स्वीकार कर लिया।

(8.1.9) Kajali Teej / Badi Teej / Saatoodi Teej / Kajli Teej Vrat, Puja

Badi Teej / Kajaji Teej / Satudi Teej / कजली तीज / सातुड़ी तीज / बड़ी तीज / कजली तीज व्रत - पूजा सामग्री तथा पूजा विधि 

रक्षा बंधन के दो दिन बाद भाद्रपद कृष्ण तृतीया को कजली तीज , बड़ी तीज या सातुड़ी  तीज का त्यौहार व्यापक रूप से मनाया जाता है।  
व्रत के पूर्व की तैयारी  - बड़ी तीज के एक  दिन पूर्व सिर  धोकर , चारों  हाथ पैरों के मेहंदी लगाई  जाती है। सवा किलो या सवा पाव चने की दाल  को सेक कर और पीस  कर उसमें पिसी  हुई शक्कर और घी मिला कर सातू तैयार किया  जाता है। सातू जौ , गेहूं ,चावल या चने आदि का भी मनाया जा सकता है।  
पूजन सामग्री - एक छोटा सातू  का लड्डू , नीम के पेड़ की एक छोटी टहनी , दीपक , केला ,अमरुद , ककड़ी , दूध मिश्रित जल , कच्चा दूध , मोती की लड़ , पूजा की थाली  व जल का कलश।  
पूजन की तैयारी  - मिट्टी व गोबर से दीवार के सहारे एक छोटा सा ढेर बनाकर उसके बीच में नीम के पेड़ की टहनी रोप   देते हैं। इस नीम की टहनी के चारों तरफ कच्चा दूध मिश्रित जल डाल देते हैं।  इसके पास एक दीपक जलाकर रख देते हैं।  
पूजा विधान - इस दिन पूरे दिन उपवास किया जाता है और शाम को नीमडी  माता  का पूजन किया जाता हैं सर्वप्रथम नीमडी  माता  के जल के छींटे , फिर रोली के छींटे दें और चाँवल  चढ़ाएँ।  इसके बाद पीछे दीवार पर रोली , मेहंदी और काजल की तेरह बिंदियाँ अपनी अंगुली से लगायें।  फिर नीमडी  माता  के मोली चढ़ाएं , मेहंदी , काजल और वस्त्र भी चढ़ाएं।  दीवार  पर लगायी गयी बिंदियों पर भी मेहंदी की सहायता से लच्छा चिपका दें।  फिर नीमडी  माता  के ऋतु  फल दक्षिणा चढ़ाएं।  पूजन करके कथा या कहानी सुननी चाहिये। रात  को चाँद उगने पर उसकी तरफ जल के छींटे देवें फिर चाँदी  की अंगूठी व गेहूं हाथ में लेकर जल से चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है।  अर्घ्य देते समय निम्नांकित शब्द बोलती है - सोना को साकलो , गोल मोतियों को  हार, चन्द्रमा ने अर्घ्य देऊ , जिओ  वीर भरतार।     

Monday 3 October 2016

(8.5.8) Jal Jhulani Ekadashi Vrat / Padma Ekadashi

Padma Ekadashi Vrat / Jaljhulani Ekadashi Vrat Vidhi / जल झूलनी एकादशी व्रत विधि / पद्मा एकादशी / जल झूलनी एकादशी के महत्व / कटि परिवर्तन उत्सव 

जल झूलनी एकादशी/ पद्मा एकादशी 
भाद्रपद शुक्ल एकादशी को जलझूलनी एकादशी , पद्मा एकादशी ,जल झूलनी  ग्यारस , कटि परिवर्तनी एकादशी आदि नामों  से जाना जाता है। राजस्थान में इसे जल झूलनी ग्यारस (एकादशी) के नाम से जाना जाता है।   मंदिरों में रखी देवताओं की प्रतिमाओं  को नजदीक के तालाब, नदी या झील तक जुलूस के रूप में ले जाया जाता है और उन्हें वहां स्नान कराया जाता है।
व्रत  - 
जो व्यक्ति भाद्रपद शुक्ल एकादशी का व्रत करता है , उसे प्रात:काल जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत्त हो कर भगवान  का पूजन करना चाहिए , विशेष रूप से भगवान विष्णु  के वामन रूप की पूजा करनी चाहिए। उपवास करके रात्रि के समय जागरण करे  , हरि स्मरण करे। दूसरे दिन व्रत खोले।  यह  व्रत सभी प्रकार की मनोकामनओं की पूर्ति  करने वाला व्रत है।
कटि परिवर्तन उत्सव - 
आषाढ  शुक्ल  एकादशी ( देवशयनी  एकादशी ) से कार्तिक शुक्ल  एकादशी ( देव उठनी एकादशी ) तक भगवान  विष्णु क्षीर सागर में शयन करते हैं।  इस अवधि में भाद्रपद  शुक्ल एकादशी को भगवान का कटि परिवर्तन किया जाता है अर्थात करवट बदलवाई जाती है।  (इसलिये  इस जल झूलनी एकादशी को कटि परिवर्तनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। ) कटि परिवर्तन के लिये देव प्रबोधिनी के समान ही विधान करके भगवान  की प्रतिमा को विमान में विराजित करके गायन, वादन , कीर्तन , जय घोष आदि के साथ जलाशय ले जाया जाता है और वहाँ उन्हें स्नान कराया जाता है।  जलाशय से प्रतिमाओं को वापस लाकर संध्या के समय महापूजा और नीराजन  करके रात्रि में भगवान  को दक्षिण कटि  शयन कराया जाता है।
पद्मा  एकादशी से जुड़ी  कहानी - 
प्राचीन काल  में सूर्य वंश में मान्धाता नामक  चक्र वर्ती राजा हुये थे।  उनके राज्य में तीन वर्ष तक  लगातार वर्षा नहीं हुई जिससे राज्य की जनता बहुत दुखी हो गयी।  इस अनावृष्टि को मिटाने  के लिये  अंगिरा  ऋषि के निर्देश पर राजा  मान्धाता ने इसी पद्मा  एकादशी के व्रत का अनुष्ठान किया था, जिससे  उसके राज्य में सर्वत्र
सदैव अनुकूल वर्षा होती रही।    
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