Monday 27 April 2020

(6.2.4) Trinetra Ganesh Ranthambore

Trinetra Ganesh Ranthambore / मनोकामना पूरी करने वाले त्रिनेत्र गणेश / त्रिनेत्र गणेश रणथम्भौर

त्रिनेत्र गणेश , रणथम्भौर
राजस्थान राज्य के सवाईमाधोपुर नगर के समीप अरावली और विंध्याचल पहाड़ियों के बीच स्थित ऐतिहासिक रणथम्भौर दुर्ग विश्व धरोवर में सम्मिलित है। यह दुर्ग अपनी भव्यता के लिए तो प्रसिद्ध है ही इसके साथ ही दुर्ग के मध्य दक्षिणी परकोटे के कंगूरों पर निर्मित आस्था के  प्रतीक प्राचीन गणेश मंदिर के लिए भी विख्यात है।  रणथम्भौर दुर्ग में स्थित गणेशजी कई कारणों  से विख्यात हैं-
(1) यहाँ गणेशजी त्रिनेत्र रूप में है
इस मंदिर में भगवान गणेश त्रिनेत्र रूप में स्थित है।  यह तीसरा नेत्र ज्ञान का प्रतीक माना जाता है।
(2) यह स्वयंभू प्रतिमा है 
गणेशजी की यह प्रतिमा स्वयंभू है अर्थात यह स्वनिर्मित है और पृथ्वी से स्वयं प्रकट हुई है।  इस गणेश प्रतिमा का केवल मुख भाग ही प्रकट है , शेष प्रतिमा शिला खण्ड में अदृश्य है।
(3) गणेशजी का पूरा परिवार साथ है
इस मंदिर में गणेशजी अपने पूरे परिवार के साथ हैं अर्थात उनकी पत्नी रिद्धि - सिद्धि और उनके पुत्र लाभ - शुभ के साथ विराजमान हैं।  इनका वाहन चूहा भी साथ में है।
(4) गणेश चतुर्थी को मेला लगता है
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी अर्थात गणेश चतुर्थी को प्रतिवर्ष मेला लगता है।  दूर - दूर के लोग मनौतियाँ करने और सुख समृद्धि की कामना लेकर यहाँ आते हैं और मनोवांछित फल पाते हैं।
(5) मकान बनाने की मनोकामना पूर्ण करते हैं
गणेश मंदिर के पूर्व की तरफ पठार पर भक्तगण पत्थर का प्रतीक के रूप में मकान बनाते हैं . इस प्रतीकात्मक मकान बनाने के बारे में उनकी मान्यता है कि गणेश चतुर्थी के दिन ऐसा करने से गणेशजी का आशीर्वाद मिलता है और परिणाम स्वरुप उनका स्वयं का मकान बनने का योग बनता है।
(6) खेती की अच्छी पैदावार का आशीर्वाद देते हैं 
किसान वर्ग के लोग खेत की बुवाई के पूर्व बुधवार के दिन इस मंदिर में गणेशजी के दर्शन करने आते हैं तथा अपने साथ अनाज - मक्का, बाजरा, जौ, गेहूँ आदि लाते हैं और उन्हें मंदिर के बरामदे पर बने टीन के छत पर फेंकते हैं।  जो अन्न टकरा कर बिखरता हुआ नीचे गिर जाता है उसे ही चुनकर अपने साथ ले आते हैं और बुवाई करने के लिए रखे बीज के साथ डाल देते है। वे ऐसा इस विश्वास के साथ करते हैं कि ऐसा करने से उनकी फसल का उत्पादन अच्छा होगा।
(7) शुभ कार्य सम्पन्न होने का आशीर्वाद देते हैं 
विवाह , व्यापर या अन्य कोई भी शुभ कार्य करने से पूर्व रणथम्भौर के गणेशजी को निमन्त्रण देने की अति प्राचीन परम्परा है। इसके लिए लोग यहाँ स्वयं उपस्थित होकर अपने शुभ कार्य के सफलता पूर्वक सम्पन्न होने की प्रार्थना करते हैं और जो व्यक्ति स्वयं वहाँ उपस्थित होकर निमन्त्रण नहीं दे सकते , वे डाक द्वारा गणेशजी के नाम निमन्त्रण पत्र भेजते है। निमन्त्रण पत्र पर पता इस प्रकार लिखा जाता है -
श्री गणेशजी, रणथम्भौर का किला, जिला - सवाईमाधोपुर (राजस्थान)  डाकिया भी इन पत्रों को मंदिर के पुजारी तक सम्मान पूर्वक पहुँचा देता है। पुजारी इन पत्रों को भेजने वालों की तरफ से गणेशजी के चरणों में रख देता है। गणेशजी की कृपा से लोगों के सभी शुभ कार्य शांति व सफलता पूर्वक सम्पन्न होते हैं।
जय श्री त्रिनेत्र गणेश। 

Friday 17 April 2020

(3.1.39) Chatushloki Bhagwat

Chatushloki Bhagwat / चतुःश्लोकी  भागवत /चतुःश्लोकी भागवत  के पठन व श्रवण के लाभ 

चतुःश्लोकी भागवत 
ब्रह्मा जी द्वारा भगवान् नारायण की स्तुति किये जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत - तत्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था। यही श्लोक मूल चतुः श्लोकी भागवत है।
इन चार श्लोकों की उत्पत्ति श्री विष्णु के मुखारविन्द से हुई है। भगवान नारायण ने ब्रह्मा जी को ये चार श्लोक दिये थे । ब्रह्मा जी ने ये चार श्लोक नारद जी को दिये और नारद जी ने ही ये श्लोक वेद व्यास जी को दिये थे। वेद व्यास जी ने इन चार श्लोकों का विस्तार करते हुए 18,000  श्लोकों का महा ग्रन्थ निर्मित कर दिया जिसका नाम हुआ श्रीमद्भागवत महापुराण।
चतुः श्लोकी भागवत के पठन - श्रवण के लाभ इस प्रकार हैं -
इन चार श्लोकों को पढ़ने और सुनने से पूरी भागवत कथा के श्रवण का फल प्राप्त होता है।
व्यक्ति सभी पापकर्मों से मुक्त होकर जीवन में सत्य मार्ग का अनुसरण करता है।
इसके पठन - श्रवण से अज्ञानता और अहंकार का नाश होता है और वास्तविक ज्ञान रूपी सूर्य का उदय होता है।
नकारात्मक शक्तियाँ दूर रहती हैं।
दुर्भाग्य तथा सभी प्रकार के क्रोध - शोक का नाश होता है।
व्यक्ति को मानसिक शान्ति मिलती है।
परिवार में सुख शान्ति रहती है।
पितरों को मुक्ति मिलती है।
पितृ दोष समाप्त होते हैं।
ये चार श्लोक इस प्रकार हैं -
अहमेवासमेवाग्रे   नान्यद्यत्सदसत्परम्। 
पश्चादहं  यदेतच्च योSवशिष्येत  सोSस्म्यहम् ।१।
ऋतेSर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाSSभासो यथा तमः।२।  
 यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
 प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।३।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मन:।   
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत स्यात  सर्वत्र सर्वदा।४। 
 इन चार श्लोकों का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है -
भगवान् कहते हैं -
(1) सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था , मेरे अतिरिक्त जो स्थूल , सूक्ष्म या प्रकृति हैं - इन में से कुछ भी नहीं था , सृष्टि के पश्चात भी मैं ही था , जो यह जगत (दृश्यमान) है , यह भी मैं हूँ और प्रलय काल में जो शेष रहता है वह मैं ही हूँ।
(2) जो मुझ मूल तत्व के अतिरिक्त सत्य सा प्रतीत होता है अर्थात दिखाई देता है परन्तु आत्मा में प्रतीत नहीं होता अर्थात दिखाई नहीं देता है , उस अज्ञान को आत्मा की माया समझो जो प्रतिबिम्ब या अंधकार की भाँति मिथ्या है। 
(3) जैसे पाँच महाभूत ( अर्थात पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु और आकाश ) संसार के छोटे - बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए उनमें प्रविष्ट नहीं हैं , वैसे ही मैं भी सबमें व्याप्त होने पर भी सबसे पृथक हूँ।
(4) आत्म तत्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय ( सृष्टि ) अथवा व्यतिरेक ( प्रलय ) क्रम में जो तत्व सर्वत्र एवं सर्वदा ( स्थान और समय से परे ) रहता है , वही आत्म तत्व है। 

Monday 13 April 2020

(3.1.38) Ashta Siddhi / Which are eight Siddhis

Ashata Siddhi / Asth Siddhiyan / Which are eight siddhis / आठ सिद्धियाँ कौनसी हैं / अष्ट सिद्धि / सिद्धि किसे कहते हैं ?

सिद्धि का शाब्दिक अर्थ होता है - पूर्णता , प्राप्ति या सफलता। सिद्धि के कई प्रकार हैं। यहाँ यौगिक सिद्धि पर विचार किया जा रहा है।
यौगिक सिद्धि अलौकिक शक्तियों का अर्जन है। इस सिद्धि को योग साधना , ध्यान और तप के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यौगिक सिद्धियाँ आठ प्रकार की होती हैं , ये इस प्रकार हैं -
 अणिमा  महिमा चैव गरिमा लघिमा तथा
प्राप्तिः प्राकम्य मीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः
( अमरकोश , रामाश्रमी व्याख्या 1 / 1 / 34 ( 17 - 18 )
अर्थात 1 अणिमा 2 महिमा 3 गरिमा 4 लघिमा 5 प्राप्ति 6 प्राकाम्य 7 ईशित्व और 8 वशित्व
(1) अणिमा - अणिमा सिद्धि से सम्पन्न साधक अपने शरीर को अति सूक्ष्म बना सकता है। जिसके परिणाम स्वरुप कोई दूसरा व्यक्ति उसके शरीर को देख नहीं सकता है अर्थात अणिमा सिद्धि से सम्पन्न व्यक्ति दूसरों के लिये अदृश्य हो सकता  है।
(2) महिमा - महिमा सिद्धि से सम्पन्न साधक अपने शरीर को अति विशाल रूप देने में सक्षम होता है।
(3) गरिमा - गरिमा सिद्धि से संपन्न साधक अपने शरीर का आकार तो सीमित रखता है परन्तु अपना भार बहुत अधिक बढ़ा लेता है जिसके कारण दूसरा व्यक्ति उसे उसके स्थान से हटा या उठा नहीं सकता है।
(4) लघिमा - लघिमा सिद्धि से सम्पन्न व्यक्ति अपने शरीर का भार अत्यन्त हल्का कर लेता है। वह हवा की विपरीत दिशा में भी तेज गति से उड़ सकता है।
(5) प्राप्ति - प्राप्ति सिद्धि से सम्पन्न साधक अपनी इच्छा अनुसार जिस वस्तु को पाना चाहे उसे प्राप्त कर सकता है।
(6) प्राकाम्य - प्राकाम्य सिद्धि से सम्पन्न साधक अपनी इच्छा की पूर्ति करने में सक्षम हो जाता है। वह उसकी इच्छा अनुसार हवा में उड़ सकता है और पानी पर भी चल सकता है।
(7) ईशित्व - ईशित्व सिद्धि से सम्पन्न साधक समस्त प्रभुत्व और अधिकार प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। वह अपने आदेशानुसार किसी को भी अपने नियंत्रण में कर सकता है। इस सिद्धि से नवीन वस्तु का सृजन किया जा सकता है। इस प्रकार यह सृजन करने की दिव्य शक्ति है।
(8) वशित्व - वशित्व सिद्धि से सम्पन्न साधक किसी भी व्यक्ति को जीत सकता है और उसे अपने प्रभाव में ला सकता है। वह किसी को भी अपने वश में कर सकता है। इसके साथ ही वह स्वयं भी अपने मन को नियंत्रित रख सकता है।

Saturday 11 April 2020

(6.4.5) Hanumanji Ne Tulsidasji Ko Ram Ke Darshan Karaye

Ek Pret  Ne Tulsidasji Ko Ram Ke Darshan Karane me Sahayata Ki/ एक प्रेत ने तुलसीदासजी को श्री राम के दर्शन करने में सहायता की / हनुमान जी ने तुलसीदासजी को श्री राम के दर्शन कराये 

एक प्रेत ने तुलसीदास जी को श्री राम के दर्शन करने में कैसे सहायता की ? 
तुलसीदासजी को श्री राम के दर्शन कैसे हुए ? इसके बारे में  एक कथा प्रसिद्ध है। इस कथा के अनुसार तुलसीदास जी नित्य  शौच से लौटते समय शौच का बचा हुआ जल बेर के एक पेड़ की जड़ों में डाल देते थे। इस पेड़ पर एक प्रेत रहता था। प्रेत योनि की तृप्ति ऐसी ही निकृष्ट वस्तुओं से होती है। प्रेत उस अशुद्ध जल को प्रतिदिन पाकर प्रसन्न हो गया। एक दिन उसने प्रकट होकर तुलसीदासजी से कहा , " मैं आपसे प्रसन्न हूँ। बताइये , मैं  आप की क्या सेवा करूँ ? " तुलसीदास जी ने कहा , " मुझे श्री राम  के दर्शन करा दो। " इस पर प्रेत ने कहा , " यदि मैं श्री राम के दर्शन करा पाता तो मैं अधम प्रेत ही क्यों रहता। किन्तु मैं आप को एक उपाय बता सकता हूँ। अमुक स्थान पर श्री रामायण जी की कथा होती है। वहाँ एक वृद्ध कुष्ठी के रूप में श्री हनुमानजी नित्य पधारते हैं और सबसे दूर बैठ कर कथा सुनकर सबसे बाद में वहाँ से जाते हैं। आप उनके चरण पकड़ लें। उनकी कृपा से आप की श्री राम के दर्शन करने की मनोकामना पूर्ण हो सकती है। "
तुलसीदासजी उसी दिन रामायण कथा में पहुँचे। उन्होंने  वृद्ध कुष्ठी के वेश में हनुमान जी को पहचान लिया और कथा के अंत में उनके चरण पकड़ लिये और उनसे श्री राम के दर्शन करवाने की प्रार्थना की।  पहले तो हनुमानजी ना - नुकर करते रहे , किन्तु तुलसीदासजी की निष्ठा एवं प्रेमाग्रह देख कर उन्होंने उनको ( तुलसीदासजी को ) एक मन्त्र देकर चित्रकूट में अनुष्ठान करने को कहा। हनुमानजी ने उनको श्री राम के दर्शन कराने का वचन भी दे दिया।
तुलसीदासजी चित्रकूट पहुंचे और हनुमानजी के बताये मन्त्र का अनुष्ठान करने लगे। एक दिन उन्होंने  देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार धनुष - बाण लिए , घोड़ों पर सवार हो कर जा रहे हैं। तुलसीदासजी ने उनको देखा और उनकी तरफ आकर्षित भी हुये , परन्तु उन्हें पहचान नहीं पाये। हनुमानजी ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर तुलसीदासजी से पूछा , " श्री राम के दर्शन हो गये न ? "
इस पर तुलसीदासजी ने अपनी अनभिज्ञता प्रकट की, तो हनुमानजी ने सारा भेद बताया। इस पर तुलसीदासजी पश्चाताप  करने लगे। हनुमानजी ने उन्हें प्रेम पूर्वक धैर्य बंधाया और बोले , " आप को फिर से श्री राम के दर्शन हो जायेंगे। "
एक दिन प्रातःकाल स्नान ध्यान के बाद तुलसीदासजी चन्दन घिस रहे थे तभी श्री राम और लक्ष्मण बालक रूप में आकर कहने लगे , " बाबा , हमें भी चन्दन दो न। " हनुमानजी को लगा की तुलसीदास जी इस बार भी भूल न कर जाएँ , इस लिए उन्होंने एक तोते का रूप धारण किया और कहने लगे -
"चित्रकूट के घाट पर भई सन्तन की भीर।
तुलसीदास चन्दन घिसें , तिलक देत रघुवीर।"
तुलसीदासजी ने श्री राम और लक्ष्मण को अपने हाथ से तिलक लगाया। इसके बाद वे ( श्री राम और लक्ष्मण ) अन्तर्ध्यान हो गये। इस प्रकार तुलसीदासजी को श्री राम के दर्शन हुए।
(सन्दर्भ - हनुमान अंक - पृष्ठ 371)

Wednesday 8 April 2020

(6.10.2) Gayatri Mantra Ki Mahima /Glory of Gaytri Mantra

Gayatri Mantra Ki Mahima / Glory of Gaytri Mantra (गायत्री मन्त्र की महिमा - महापुरुषों द्वारा )


गायत्री मन्त्र की महिमा - महापुरुषों द्वारा 
गायत्री मन्त्र एक महा मन्त्र  है। यह ऋग्वेद में एक स्थान पर , यजुर्वेद में तीन स्थानों पर और सामवेद में एक स्थान पर मिलता है। गायत्री को वेदमाता , जगत माता कहते हैं। इसकी सिद्धि दायक शक्तियों के कारण इसे गुरुमन्त्र , महामन्त्र , महानतम जप , तप और साधना की सम्मानित उपाधियों से विभूषित किया गया है। 
गायत्री मन्त्र  की महिमा बताते हुए ऋषि - मुनि और महापुरुषों ने इस प्रकार कहा है - 
विश्वामित्र के अनुसार - गायत्री मन्त्र के समान वेदों में कोई अन्य मन्त्र नहीं है। 
भगवन मनु कहते हैं - ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मन्त्र निकाला हैं।  गायत्री मन्त्र से बढकर पवित्र करने वाला कोई अन्य मन्त्र नहीं है। 
याज्ञवल्क्य कहते हैं - गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं हैं , केशव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं है और गायत्री से श्रेष्ठ कोई दूसरा मन्त्र नहीं है।
ऋषि पाराशर कहते हैं - " समस्त जप सूक्तों तथा वेद मन्त्रों में गायत्री मन्त्र परम श्रेष्ठ है। "
शंख ऋषि का कथन हैं - " नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री ही है। "
अत्रि ऋषि कहते हैं - " गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है। इसके नियमित जप के प्रभाव से दोष और दुर्गुणों का परिमार्जन हो जाता है।  गायत्री मन्त्र के जप के परिणाम स्वरुप जप कर्ता के लिए संसार में कोई दुःख शेष नहीं रह जाता है। "
महर्षि वेद व्यास कहते हैं - " गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है। सिद्ध की हुई गायत्री कामधेनु के समान है। काम्य सफलता तथा तप की वृद्धि के लिए गायत्री मन्त्र से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। "
महत्मा गाँधी कहते हैं - गायत्री मन्त्र का निरंतर जप रोगियों को रोग मुक्त करने आए आत्मा की उन्नति  के लिये उपयोगी है। गायत्री मन्त्र का स्थिर चित्त और शांत ह्रदय से किया हुआ जप आपत्ति काल के संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है। "
मदन मोहन मालवीय कहते हैं  - " ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिए हैं , उनमें से एक अनुपम रत्न है गायत्री मन्त्र जिसके प्रभाव से बुद्धि पवित्र होती है। "
योगी अरविन्द घोष कहते हैं - " गायत्री मन्त्र में ऐसी शक्ति सन्निहित है , जो महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है।  "
राम कृष्ण परम हंस के अनुसार - " गायत्री मन्त्र का जप करने से बड़ी - बड़ी सिद्धियां मिल जाती हैं। यह एक छोटा मन्त्र है , परन्तु इसकी शक्ति भारी है। "
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " गायत्री मन्त्र सद्बुद्धि का मन्त्र है इसलिए इसे मन्त्रों का मुकुट मणि कहा गया है। "
महर्षि रमण कहते हैं - " गायत्री मन्त्र के प्रभाव से आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं। "
स्वामी शिवानन्द जी कहते हैं - " ब्रह्म मुहूर्त में गायत्री मन्त्र का जप करने से चित्त शुद्ध होता है और ह्रदय में निर्मलता आती है। शरीर निरोग रहता है , स्वभाव में नम्रता आती है और बुद्धि सूक्ष्म होने से दूरदर्शिता बढ़ती है और स्मरण शक्ति का विकास होता है। कठिन प्रसंगों में गायत्री मन्त्र द्वारा दिव्य सहायता मिलती है।  उसके द्वारा आत्म दर्शन हो सकता है। " 

Sunday 5 April 2020

(6.4.4) Why did Hanuman Destroy Ravan's Yagya

 Why did Hanuman Destroy Ravan's Yagya / The tact of  Hanuman / हनुमान ने रावण  के यज्ञ को विफल क्यों किया ?

हनुमान जी ने रावण के यज्ञ को विफल कर दिया, वरना ?
एक दिन भगवान राम ने हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए सीता जी से कहा , " महादेवी , यदि लंका विजय में हनुमानजी का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ होता तो आज भी मैं  सीता वियोगी ही बना रहता अर्थात आप रावण के बंधन से मुक्त नहीं हो पाते। इस पर सीता जी ने श्री राम से कहा , " आप बार- बार कपिवर हनुमान जी की प्रशंसा करते रहते हो। कभी उनके बल शौर्य की , कभी उनके ज्ञान की , कभी उनके चातुर्य की। " अतः आप मुझे वह प्रसंग सुनाइये जिससे उनका चातुर्य लंका विजय में विशेष सहायक रहा हो। इस पर श्री राम ने एक प्रसंग सुनाया -
"रावण युद्ध से थक चुका था इसलिए उसने युद्ध में विजय पाने का अंतिम उपाय सोचा और उसने देवी को प्रसन्न करने के लिए सम्पुटित मन्त्र द्वारा चण्डी महायज्ञ शुरू किया। यदि यह यज्ञ पूर्ण हो जाता और रावण को देवी का वरदान मिल जाता तो उसकी विजय निश्चित थी। जब इस यज्ञ की जानकारी हनुमानजी को मिली तो उन्होंने इस यज्ञ को विफल ( निष्फल ) करने का उपाय सोचा। उन्होंने ब्राह्मण का रूप धारण करके रावण के यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों की सेवा करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसी निस्वार्थ सेवा देख कर ब्राह्मणों ने कहा , " विप्रवर  , आपकी इस सेवा से हम संतुष्ट हैं। आप हम से कोई वरदान मांग लो। "
पहले तो हनुमानजी ने कुछ भी मांगने से इनकार कर दिया किन्तु सेवा से संतुष्ट ब्राह्मणों का आग्रह देख कर उन्होंने एक वरदान मांग लिया।
हनुमानजी ने ब्राह्मणों से कहा , " आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो आप जिस मन्त्र के सम्पुटिकरण से हवन कर रहे हो उसी मन्त्र में एक अक्षर का परिवर्तन कर दीजिये । इस पर ब्राह्मणों ने 'तथास्तु' कह दिया । फिर ब्राह्मणों ने पूछा कि आप किस अक्षर का परिवर्तन चाहते हैं ? इस पर हनुमानजी ने कहा कि आप ,
" जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमो Sस्तुते।"
इस मन्त्र के सम्पुटिकरण से हवन कर रहे हो। इस मन्त्र के शब्द ''भूतार्तिहारिणि ' में ' ह ' के स्थान पर ' क ' उच्चारण कर दीजिये। ब्राह्मणों ने वैसा ही किया। वे 'भूतार्तिहारिणि' के स्थान पर 'भूतार्तिकारिणि' का उच्चारण करने लगे और इसी कारण  मन्त्र में अर्थान्तर हो गया जिससे रावण का घोर विनाश हो गया। 'भूतार्तिहारिणि' का अर्थ होता है - ' सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली ' और ' भूतार्तिकारिणि ' का अर्थ हो ता है - ' सम्पूर्ण प्राणियों को पीड़ा देने वाली ' इस प्रकार एक अक्षर के परिवर्तन करने से रावण का सम्पूर्ण नाश हो गया। यदि हनुमानजी ने अपना चातुर्य नहीं दिखाया होता तो युद्ध का परिणाम विपरीत हुआ होता।
श्री राम ने प्रसंग को पूर्ण करते हुए कहा - " ऐसे चतुर शिरोमणि हैं , हमारे हनुमान "
सीता जी यह सुनकर अत्यन्त  प्रसन्न हुई। "
( सन्दर्भ - हनुमान अंक पृष्ठ  150 ) 

Wednesday 1 April 2020

(6.4.3) Hanuman Gayatri Mantra

Hanuman Gayatri Mantra / Hanuman Gayatri Mantra ke Labh / Benefits of Hanuman Gayatri Mantra/ हनुमान गायत्री मन्त्र / हनुमान गायत्री मंत्र के लाभ

राम भक्त हनुमान जी को संकट मोचन अर्थात संकटों व परेशानियों को दूर करने वाला माना जाता है।  यदि कोई व्यक्ति हनुमान जी के किसी भी मन्त्र का पूर्ण निष्ठां व विश्वास के साथ जप करे तो, उस व्यक्ति को हनुमान जी की कृपा व आशीर्वाद से भौतिक और आध्यात्मिक लाभ मिलता है।
हनुमान गायत्री मन्त्र भी उनमें से एक है।  यह सात्विक मन्त्र है।  इस मन्त्र के जप करने से जपकर्ता को मानसिक शान्ति मिलती है ,उसे समृद्धि प्राप्त होती है , उसका मनोबल और आत्मविश्वास बढ़ता है, और उसके सभी संकट और कष्ट दूर हो जाते हैं।
गायत्री मन्त्र  के जप की विधि इस प्रकार है -
दैनिक कार्य से निवृत्त होकर प्रातःकाल पूर्व या उत्तर की तरफ मुँह करके किसी शांत स्थान पर बैठें।  अपने सामने हनुमान जी का चित्र रख लें।  अपनी आँखें  बंद करके हनुमान जी का ध्यान करें। 
ध्यान इस प्रकार है -
अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरू ) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्यरूपी वन के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य , सम्पूर्ण गुणों के निधान , वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन पुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ।
इस प्रकार ध्यान के बाद हनुमान गायत्री मन्त्र का प्रतिदिन एक, तीन, पाँच , सात, माला का जप करें।  यदि किसी विशेष उद्देश्य प्राप्तिके लिए हनुमान गायत्री मन्त्र का जप किया जाए तो कम से कम इकतालीस दिन तक पाँच या सात माला का जप करना चाहिए।  गायत्री मन्त्र इस प्रकार है -
 ॐ आंजनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि तन्नो हनुमत् प्रचोदयात्