Saturday 15 October 2016

(8.1.15) Sharad Poornima / Kojagari Vrat

Sharad Poornima / Kojagari Vrat /शरद पूर्णिमा / कोजागरी व्रत 

When is Sharad Poornima /शरद पूर्णिमा कब है ?
आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को ही शरद पूर्णिमा कहा जाता है। (For day and date CLICK HERE))
Important things about Sharad Poornima शरद पूर्णिमा के बारे में महत्वपूर्ण बातें 
(For English translation click here) 
इसे  कोजागरी पूर्णिमा भी कहा जाता है। भगवान कृष्ण ने जगत की भलाई के लिए इस दिन को रासोत्सव का दिन  निर्धारित किया था। इस दिन चन्द्रमा पृथ्वी के काफी नजदीक होता है। चन्द्रमा को कल्पना , मन, प्रेम और पुण्य का प्रतीक माना जाता है।ऐसा माना जाता है कि इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत बरसता है अत: शरद पूर्णिमा की रात्रि को गाय के दूध की खीर बना कर चन्द्रमा की किरणों में रखा जाता है। ठाकुर जी के भोग लगा कर अगले दिन प्रात: काल इस खीर को प्रसाद के रूप में दी जाती है। ऐसा माना जाता है कि यह खीर अमृतमयी होती है और शारीरिक व्याधियों से मुक्ति दिलाती है।
कोजागरी व्रत -
आश्विन शुक्ल निशीथ व्यापिनी पूर्णिमा को ऐरावत पर आरूढ़ हुए इन्द्र और महालक्ष्मी का पूजन कर के उपवास किया जाता है और रात्रि में कम से कम सौ दीपक प्रज्ज्वलित कर , देव मंदिर , बाग़ बगीचों , तुलसी , बस्ती के रास्तों , चौराहे , गली और वास भवनों की छतों पर रखें तथा प्रात:काल होने पर ब्राह्मणों को घी शक्कर मिली हुई खीर का भोजन करा कर दक्षिणा दें। यह अनंत फलदायी होता है। इस दिन रात्रि के समय इंद्र और लक्ष्मी घर - घर जाकर पूछते हैं , " कौन जागता है ?" इस के उत्तर में उनका पूजन और दीप ज्योति का प्रकाश देखने में आये तो उस घर में अवश्य ही लक्ष्मी और प्रभुत्व प्राप्त होता है। (सन्दर्भ -व्रत परिचय पृष्ठ 129 -130 )

Thursday 13 October 2016

(8.2.9) Gupt Navratra / गुप्त नवरात्र / गुप्त नवरात्रि

Gupt Navratra / Gupt Naratri / गुप्त नवरात्र / गुप्त नवरात्रि 

गुप्त नवरात्र कब है / When is Gupt Navratra (For day and date click here)
हिन्दू पँचांग के अनुसार एक वर्ष में चार बार नवरात्रा आते हैं। जिनमें से दो को प्रकट नवरात्रा और अन्य दो को गुप्त नवरात्रा कहा जाता है। 
गुप्त नवरात्रा एक वर्ष में दो बार आते हैं। जो नवरात्रा आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होते हैं , उन्हें आषाढ़ी गुप्त नवरात्रा या वर्षा ऋतु नवरात्रा कहा जाता है। और जो नवरात्रा माघ माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होते हैं , उन्हें माघी गुप्त नवरात्रा या शिशिर नवरात्रा कहा जाता है।   
साधक अपनी इच्छानुसार दुर्गासप्तशती का पाठ या दुर्गा के किसी मन्त्र का जप करे।
(या ) सुन्दर काण्ड का पाठ
 (या ) राम रक्षा स्त्रोत का पाठ
(या) गायत्री मन्त्र जप 
(या )रामचरित मानस पाठ
पाठ या मन्त्र जाप  का  फल - नवरात्रि  का समय वर्ष के श्रेष्ट समय में से एक है अत: इस अवधि में किये गए जप - तप , व्रत, उपवास का फल तुलनात्मक रूप से ज्यादा मिलता है।जप - तप  या पाठ निष्काम भाव से किया जाये या सकाम  भाव से, सभी का सुफल मिलता है, सुख समृद्धि में वृद्धि होती है। यदि  किसी विशेष उद्देश्य के लिए जप या पाठ किया जाता है तो उस उद्देश्य की अवश्य पूर्ति होती है।
अन्य उपयोगी लेख :-
1. नवरात्रा / नवरात्रि त्यौहार 
2. बसंत नवरात्रि 
3. शारदीय नवरात्रा  

(8.1.14) Mahashivratri / Shivratri Vrat / Shivratri ka Mahatva

Shivratri / Mahashivratri/ Shivratri Vrat / शिवरात्रि / महाशिवरात्रि/ शिवरात्रि व्रत/ शिवरात्रि कब मनाई जाती है ? 

When is Mahashivratri / शिवरात्रि कब मनाई  जाती है ?
फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को महाशिवरात्रि पर्व का आयोजन किया जाता है।  ( For day and date click here)
फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को ही शिव रात्रि का पर्व क्यों -
भारतीय पंचाग के अनुसार प्रतिपदा से लेकर सोलह तिथियाँ हैं । जिस तिथि का स्वामी जो देवता होता है , उसी देवता का उस तिथि में व्रत पूजन करने से उसकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान् शिव हैं। इस लिए इस तिथि में भगवान् शिव की पूजा अर्चना करना उतम माना जाता है। यदपि प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी शिव रात्रि होती है किन्तु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के निशीथ ( रात्रि ) में " शिव  लिङ्ग तयोद्भूत: कोटि सूर्य समप्रभ:। ईशान संहिता के इस वाक्य के अनुसार ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ था, इस कारण यह महा शिव रात्रि मानी जाती है। 
महा शिव रात्रि व्रत -
महा शिव रात्रि के दिन प्रात: काल स्नान करके व्रत का संकल्प लें और भगवान् शिव की विधि विधान पूर्वक पूजा करें तथा सायं काल शिव मंदिर में जाकर , गंध , पुष्प , बिल्व पात्र , धतूरे के फूल , घृत मिश्रित गुग्गल की धूप , दीप, नैवैद्य और नीराजनादि आवश्यक सामग्री समीप रख कर रात्रि के प्रथम प्रहर में 'पहली', द्वितीय प्रहर में 'दूसरी', तृतीय प्रहर में 'तीसरी' और चतुर्थ प्रहार में 'चौथी' पूजा करें। चारों पूजा पञ्च- पोचार या षोडशोपचार , जिस विधि से बन सके समान रूप से करें और साथ में रूद्र पाठ आदि भी करें। इस प्रकार करने से पाठ , पूजा , जागरण व उपवास सभी संपन्न हो सकते हैं। शिव रात्रि के व्रत में कठिनाई तो इतनी है कि वेद पाठी विद्वान् ही यथा विधि संपन्न कर सकते हैं और सरलता इतनी है कि पढ़ा हुआ अथवा अनपढ़ , धनी  या निर्धन सभी अपनी - अपनी सुविधा व सामर्थ्य के अनुसार भारी समारोह के साथ  या थोड़े से गाजर , बेर , मूली आदि सर्व सुलभ फल फूल से भी पूजन किया जा सकता है और दयालु भगवान् छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी सभी पूजा से प्रसन्न हो जाते हैं। 
महा शिव रात्रि व्रत का महत्व -
भगवान् शिव को प्रसन्न करने व अपनी मनोकामना पूर्ण करने का महोत्सव है , महा शिव रात्रि। इसके ठोस प्रमाण शिव पुराण  व स्कन्द  पुराण  में देखने को मिलते हैं।स्कंद पुराण का कथन है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिव जी का पूजन , जागरण व उपवास करने वाले व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता है। उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। विद्येश्वर संहिता के अनुसार महा शिव रात्रि के दिन जो प्राणी निराहार व जितेन्द्रिय रह कर उपवास रखता है, शिव लिंग के दर्शन , स्पर्श करता है वह जन्म मरण के बंधन से मुक्त होकर शिवमय हो जाता है। इस दिन भगवान् शिव की पूजा अर्चना करने से साधुओं को मोक्ष प्राप्ति , रोगियों  को रोगों से मुक्ति तथा सभी साधकों को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। इस दिन पूजा करने से गृहस्थ जीवन में चल रहा मत भेद समाप्त हो जाता है, अखंड सौभाग्य की  प्राप्ति होती है और साधक को शुभ फलों की प्राप्ति होती है।

(5.1.10) Hindu Marriage / Hindu Vivah Ke Prakar

Hindu Marriage / Types of Hinu Marriage / Aims of Hindu Marriage / हिन्दू विवाह / हिन्दू विवाह के उद्देश्य / हिन्दू विवाह के प्रकार 

हिन्दू विवाह क्या है ? What Hindu Marriage ?
हिंदुओं में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार के रूप में स्वीकार किया गया है। हिन्दू विवाह को इस प्रकार परिभाषित किया गया है -
 "हिन्दू विवाह एक संस्कार है , धार्मिक कृत्य है, जिसमें स्त्री - पुरुष के समन्वय से जन्म - जन्मान्तर का मिलन ,धर्माचरण का प्रजनन और सर्वतोमुखी उन्नति का रहस्य छिपा है।"  
हिन्दू विवाह के उद्देश्य - (objects of Hindu Marriage)
१. धार्मिक कार्यों की पूर्ति
२. पुत्र प्राप्ति
३. रति आनंद
४. व्यक्तित्व का विकास
५. परिवार के प्रति दायित्वों का निर्वाह
६. समाज के प्रति दायित्वों का निर्वाह
हिन्दू विवाह की प्रकृति और विशेषताएं जो इसे धार्मिक संस्कार बनातें हैं  - ( characteristics  of Hindu Marriage)
१. विवाह का आधार धार्मिक है।
२. धार्मिक दृष्टि से विवाह विच्छेद की स्वीकार्यता कम है।
३. विवाह का महत्वपूर्ण उद्देश्य ऋणों से मुक्ति है।
४. पतिव्रत का आदर्श।
५. स्त्री के लिए एकमात्र संस्कार।
६. पत्नी के लिए  "धर्म - पत्नी" तथा "सह-धर्मचारिणी" जैसे सम्बोधन।
७. धार्मिक अनुष्ठान और विधि विधान।
८. ब्राह्मणों की उपस्थिति में विवाह।
९. वेद मन्त्रों का उच्चारण।
१०. पवित्र अग्नि की साक्षी।
११. कन्यादान का आदर्श।
१२. धार्मिक आदेशों एवं निषेधों का महत्व।
स्मृति शास्त्रों में हिंदु विवाह के आठ प्रकार अथवा स्वरुप माने गये हैं  -(types of Hindu Marrage) 
ब्राह्मो देवास्तथैवार्षः प्रजापत्यस्तथासुरः। 
गान्धर्वॊ राक्षस श्चव पैशाचश्चाष्टमोघम।। (मनु 3/21) 
१. ब्रह्म विवाह - इसमें वेदों के ज्ञाता विद्वान, शीलवान वर को घर बुलाकर वस्त्र-आभूषण से सुसज्जित कन्या का दान किया जाता है। वर्तमान में इसी प्रकार का विवाह प्रचलित है।
२. देव विवाह - इसमें यज्ञ करने वाले पुरोहित को यजमान (जजमान ) अपनी कन्या का दान करता है।
३. आर्ष विवाह -  इसमें पिता गाय और बैल का एक जोड़ा लेकर विधि पूर्वक अपनी कन्या का दान करता है।
४. प्रजापत्य विवाह - इसमें लड़की का पिता लड़की व लड़के को साथ रहकर आजीवन धर्म निर्वाह का आदेश देकर कन्यादान करता है।
५. असुर विवाह - वर, कन्या के पिता को धन देकर विवाह करता है।
६. गन्धर्व विवाह -  गन्धर्व विवाह का स्वरुप वर्तमान  प्रेम विवाह के समान है।
७. राक्षस विवाह - इसमें कन्या को जबरन उठा लाकर या अपहरण करके विवाह किया जाता है।
८. पैशाच विवाह - इसमें सोई हुई, उन्मत, घबराई हुई, कन्या के साथ एकांत में सम्बन्ध स्थापित करके जो विवाह किया जाता है, वह पैशाच विवाह है। 
मनु स्मृति में मनु ने उपर्युक्त विवाहों में से प्रथम चार को ही प्रशस्त (मान्य) घोषित किया है।

(8.6.2) Maghi Amavasya / Mauni Amavasya माघी अमावस्या

Maghi Amavasya / Important things about Maghi Amavasya / Importance of Maghi Amavasya ? माघी अमावस्या 

When is Maghi Amavasya माघी अमावस्या कब है? 
हिन्दू पंचांग के अनुसार माघ माह की अमावस्या को माघी अमावस्या कहा जाता है।  इसे मौनी अमावस्या भी कहा जाता है।
माघी अमावस्या / मौनी अमावस्या का महत्व 
(1) इस दिन मौन रखने का बहुत महत्व माना जाता है।
(2) यह दिन सृष्टि के संचालक मनु का जन्म दिवस भी है।  इस दिन गंगा स्नान और दान दक्षिणा का विशेष महत्व है।  इस दिन, मौन रहकर गंगा स्नान या किसी पवित्र सरोवर में स्नान करना चाहिए।
(3) यदि यह अमावस्या सोमवार के दिन आये तो इस का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। माघ स्नान का सबसे अधिक महत्वपूर्ण दिन अमावस्या ही है।  
(4) माघ अमावस्या को गुरु वृष राशि में हो तथा सूर्य व चन्द्र मकर राशि में हो तब तीर्थराज प्रयाग में कुम्भ महापर्व का योग बनता है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार माघ माह की अमावस्या को प्रयागराज में तीन करोड़ दस हजार अन्य तीर्थों का समागम होता है।  
(5) जो नियम पूर्वक उत्तम व्रत पालन करते हुए माघ मॉस  में प्रयाग में स्नान करता है , वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में जाता है।
(6) पद्म पुराण के उत्तर खंड में भी माघ मास के माहत्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि  व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान् श्री हरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती है , जितनी के माघ मास  में स्नान से होती  है। इसलिए स्वर्ग लाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान् वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान करना चाहिए। 
(7)अमावस्या और पूर्णिमा ये दोनों पर्व तिथियाँ है।  इस दिन पृथ्वी के किसी न किसी भाग में सूर्य या चन्द्रमा का ग्रहण हो ही जाता है।और लोकान्तर में कहीं भी ग्रहण हुआ होगा - इस सम्भावना से धर्म प्राण हिन्दू इस दिन अवश्य दान-पुण्य आदि कर्म करते है।  
पूजा विधि  - माघी अमावस्या को प्रतिदिन के स्नान दान आदि के पश्चात वस्त्राच्छादित वेदी  पर वेद -वेदांग भूषित ब्रह्मा जी का गायत्री सहित पूजन  करे और वस्त्र, छत्र, शय्या आदि का दान देवे व सजातियों सहित भोजन करे।  
अर्घ्योदय - (महाभारत)- माघ कृष्णा अमावस्या को रविवार, व्यतिपात और श्रवण नक्षत्र हो तो 'अर्घ्योदय' योग होता है।  इस  योग में स्कन्द पुराण के अनुसार सभी स्थानों का जल गंगा तुल्य हो जाता है और सभी ब्राह्मण ब्रह्मा संनिभ शुद्धात्मा हो जाते हैं।  अत : इस योग में यत्किंचित किये हुए स्नान-दान आदि का फल मेरु (पर्वत ) समान हो जाता है।  यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि इस व्रत में जो भी दान दिया जाए उसकी संख्या तीन  हो।
अर्घ्योदय योग के अवसर पर सत्ययुग में वशिष्ठ जी ने, त्रेता में राम चन्द्र जी ने, द्वापर में धर्मराज ने अनेक प्रकार के दान, धर्म किये थे।  अत : धर्मघ्य सत्पुरुषों को अब भी दान पुण्य करते रहना चाहिए।

(5.2.1) Swaroday/ Shiv Swaroday / Swar Vigyan

Swaroday / Shiv Swaroday / शिव स्वरोदय / स्वरोदय / चन्द्र स्वर / सूर्य स्वर  

स्वर विज्ञानं / स्वरोदय के बारे में मुख्य बातें ( Important Things about Swaroday the science of Breathing )
What is Sarvoday / Swar Vigyan(स्वर विज्ञान क्या है )
 मानव सभ्यता के साथ साथ ज्ञान विज्ञान की अनेक शाखाओं का भी जन्म हुआ। स्वरोदय विज्ञान भी इन्ही में से एक है। स्वरोदय विज्ञान का सम्बन्ध श्वास -प्रश्वास से है। स्वर तीन प्रकार के होते हैं - सूर्य स्वर , चन्द्र स्वर और सुषुम्ना स्वर।   
What is Surya Swar (सूर्य स्वर क्या होता है) 
नासिका - नाक के दक्षिण (दाहिने) छिद्र से चलने वाले स्वर को पिंगला अथवा सूर्य स्वर कहा जाता है। इसे शिव का प्रतीक माना जाता है। 
What is Chandra Swar(चन्द्र स्वर क्या होता है )
वाम नासिका छिद्र (नाक के बाएँ छिद्र) से श्वास आगमन को इड़ा अथवा चन्द्र स्वर चलना कहा जाता है।इसे शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
What is Sushumna Swar (सुषुम्ना स्वर क्या होता है) 
दोनों नासा छिद्र से श्वास चलने को सुषुम्ना  स्वर की संज्ञा दी जाती है।
कब कौनसा स्वर चल रहा होता है 
किस समय कौनसे स्वर संज्ञा से श्वास प्रक्रिया हो  रही है,इस हेतु एक नासा छिद्र को दबा कर दूसरे नासा छिद्र से श्वास बाहर निकालने का अभ्यास करने से यह सहज ही विदित होगा कि कौन स्वर संज्ञा से श्वास प्रक्रिया हो रही  है। 
स्वर तथा यात्रा - Swar and journey 
(१) स्वरोदय विज्ञान के मतानुसार पूर्व तथा उत्तर दिशा में चन्द्र तथा पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में सूर्य रहता है।अतः दाहिना स्वर चलने पर पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में गमन नहीं करना चाहिए। बायां (चन्द्र स्वर )चलने पर पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर गमन नहीं करना चाहिए। 
(२) जब चन्द्र स्वर चले तो बायाँ पैर और  सूर्य स्वर चले तो दाहिना पैर आगे बढ़ाना चाहिये अर्थात जिस तरफ का स्वर चल रहा हो उसी तरफ का पैर पहले आगे बढाना  चाहिये। 
(What to do when Chandra Swar is on)चन्द्र स्वर और कार्य 
(१) चन्द्र स्वर के चलते समय किये गए कार्य का शुभारम्भ यश ,विजय तथा कीर्ति प्राप्ति का सूचक है। 
(२) जब चन्द्र स्वर चल रहा हो तो उस समय गृह प्रवेश ,शिक्षा ,विद्या ,कला का शुभारम्भ ,धार्मिक अनुष्ठान ,लेन - देन ,नवीन वस्त्र धारण ,जमीन जायदाद खरीदना ,व्यापार एवं सेवा कार्य ,विविध मांगलिक कार्य ,संपर्क ,मित्रता ,संधि ,कृषि ,स्वागत ,तिलक ,योगाभ्यास आदि सोम्य कार्य करना श्रेष्ठ व शुभ माना जाता है। 
What to do when Surya Swar is on (सूर्य स्वर और कार्य)
जब सूर्य स्वर चल रहा हो तो श्रम साध्य कठिन कार्य ,पशु क्रय-विक्रय ,तंत्र-मन्त्र साधना,औषध सेवन ,चिकित्सा कार्य करना चाहिए। 
What to do when Sushumna Swar is on (सुषुम्ना स्वर तथा कार्य ) -
जब सूर्य- चन्द्र अर्थात पिंगला - इडा दोनों  स्वर चल रहे हो, उस सुषुम्ना नाड़ी काल में सभी कार्य वर्जित रखने चाहिए। इस काल में योगाभ्यास ,स्व ईष्ट देव की आराधना ,पूजा आदि कार्य करना शुभ रहता है। 
Question and Swar (प्रश्न और स्वर)
(1) प्रश्न शास्त्र के अनुसार- यदि कोई व्यक्ति प्रश्न पूछे और उस समय श्वास अंदर जा रहा हो तो यह कार्य सिद्धि का बोधक है। और जब श्वास बाहर निकल रहा हो, उस समय प्रश्न पूछे तो यह  असिद्धि का बोधक है। 
(2) यदि बायां (चन्द्र स्वर )चलते समय प्रश्न पूछे, तो यह कार्य सिद्धि का सूचक है। और दाहिना स्वर (सूर्य स्वर )चलते समय प्रश्न पूछे, तो कार्य सिद्धि में संदेह की सम्भावना रहती है। 
(3) पुत्र या कन्या के जन्म संबधी प्रश्न हो तो ऐसे प्रश्न के समय देवज्ञ का सूर्य  स्वर चल रहा हो और सूर्य स्वर की तरफ ही बैठ कर प्रश्न कर्ता  प्रश्न पूछ रहा हो तो पुत्र होगा ऐसा समझे। यदि देवज्ञ का चन्द्र स्वर चल रहा हो तथा  प्रश्न कर्ता चन्द्र स्वर क़ी ओर बैठ कर प्रश्न करे तो पुत्री होगी, ऐसा समझे। यदि सुषुम्ना नाड़ी चल रही हो तो अभी सन्तान का कोई योग नहीं है, ऐसा समझे।

(1.1.22) Dohe of Bihari / बिहारी के दोहे / Bihari ke Dohe

Bihare ke Dohe / Dohe of Bihari / Kavi Bihari Ke Dohe / बिहारी के दोहे       

बिहारी के नीतिपरक दोहे उनकी लौकिक, व्यवहारपटुता और पर्यवेक्षण-शक्ति के परिचायक हैं। बिहारी के काव्य में भाव और भाषा का मणि-काञ्चन योग है। 
(१) कनक-कनक तै सौ गुनो, मादकता अधिकाइ। 
उहिं खायें बौराइ नर, इहिं पायें बौराइ।। 
(२) नर की अरु नल नीर की, गति एकै करि जोइ। 
जेतौ नीचौ ह्वै चलै, तेतौ ऊँचौ होइ।।
(३) बढ़त-बढ़त सम्पति सलिल, मन सरोज बढ़ि जाइ। 
घटत-घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ।।
(४) मीन न नीति गलीतु ह्वै, जौ धरियै धनु जोरि। 
खाएैं खरचैं जौ जुरै, तौ जोरियै  करोरि।।   
(५)चटक न छौंडत घटत हूँ, सज्जन नेह गंभीरु। 
फीकौ परै न बरु फटै, रैंग्यौ चोल रँग चीरु।।
(६) कोटि जतन कोउ करौ, परै न प्रकृतिहिं बीच। 
नल-बल जल ऊँचैं चढैं, अंत नीच कौ नीच।।   

Wednesday 5 October 2016

(8.5.9) Nirjala Ekadashi / Nirjala Ekadashi Vrat ( in Hindi )

Nirjala Ekadashi ? Nirjala Ekadashi Vrat / Nirjala Ekadashi Vrat Katha निर्जला एकादशी / निर्जला एकादशी व्रत / निर्जला एकादशी व्रत की कथा तथा महत्व 

When is Nirjala Ekadashi ? निर्जला एकादशी कब है ?
यह व्रत जेष्ठ शुक्ल एकादशी को किया जाता है।  इस एकादशी का नाम निर्जला है।
निर्जला एकादशी व्रत का महत्व -
निर्जला एकादशी के व्रत करने से आयु और आरोग्य वृद्धि के तत्व विशेष रूप से विकसित होते है। व्यास जी के कथनानुसार 'यह सत्य है कि  अधिक मास  सहित एक वर्ष की पचीस एकादशी का व्रत नहीं किया जा सके तो केवल निर्जला एकादशी का व्रत करने से ही पूरा फल प्राप्त हो जाता है।'
निर्जला एकादशी का व्रत करने वाले पुरुष या महिला को बूंदमात्र जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिए।यदि किसी प्रकार उपयोग में लिया जाए तो, उससे व्रत भंग हो जाता है । दृढ़तापूर्वक नियम पालन करने के साथ निर्जला एकादशी को  उपवास करके द्वादसी को स्नानादि से निवृत होकर सामर्थ्यानुसार मुद्रा आदि तथा जलयुक्त कलश दान देकर भोजन करे तो सम्पूर्ण तीर्थों में जाकर स्नान, दानादि करने के सामान फल प्राप्त हो जाता है। 
निर्जला एकादशी से जुड़ी कथा -
एक बार बहुभोजी भीमसेन ने व्यास जी के मुख से प्रत्येक एकादशी को निराहार रहने का नियम सुनकर विनम्रभाव से निवेदन किया कि  'महाराज, मुझसे कोई व्रत नहीं किया जाता है।  दिनभर बड़ी क्षुधा बनी रहती है।  अत: आप कोई ऐसा उपाय बतला दीजिये जिसके प्रभाव से स्वत: सद्गति हो जाये।'  तब व्यास जी ने कहा 'तुमसे वर्षभर की सम्पूर्ण एकादशी का व्रत नहीं हो तो केवल  निर्जला एकादशी का व्रत कर लो, इसी से साल भर की एकादशी का व्रत करने के समान फल हो जायेगा। ' इसके बाद भीम ने वैसा ही किया और स्वर्ग को गए।
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(8.1.13) Govardhan Puja / Ann Koot (in Hindi)

Govardhan Pooja / Anna Koot / गोवर्धन पूजा / अन्न कूट 

गोवर्धन पूजा - 
कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा के दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। पहले ब्रज के सम्पूर्ण नर -नारी अनेक  पदार्थों से इंद्र का पूजन करते थे और नाना प्रकार के व्यंजनों का भोग लगाते थे। किन्तु श्री कृष्ण ने इंद्र की पूजा को निषिद्ध बता कर गोवर्धन का पूजन करवाया। यह देख कर इंद्र ने ब्रज  पर प्रलय करने वाली वर्षा की, किन्तु श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठा लिया और ब्रज  वासियों  को उसके नीचे खड़ा रख कर बचा लिया। तब से ही गोवर्धन पूजा के पर्व को मनाया जाता है। 
दीपावली के दूसरे दिन प्रात: काल घरों के बाहर गोवर्धन पर्वत के प्रतीक के रूप में गोबर का गोवर्धन बनाया जाता है, इसे पुष्पादि से सजाया जाता है।  गोवर्धन पूजा के दिन प्रात: काल एक जलता हुआ दीपक और पूजा सामग्री से गोवर्धन की पूजा की जाती है।  इस के अतिरिक्त रोली, मौली , नैवेध्य , चाँवल और गंध आदि से पूजा की जाती है और दही को गोवर्धन पर डाला जाता है। 
अन्नकूट - 
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को भगवान के नैवेध्य में नित्य के नियमित प्रदार्थों के अतिरिक्त यथा सामर्थ्य के अनुसार  दाल , भात , साग आदि कच्चे , हलवा , पुड़ी , खीर आदि पक्के , केले, नारंगी, अनार आदि फल  का प्रयोग करके नैवेध्य तैयार किया जाता है।  इसे भगवान को अर्पित कर के प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता  है।   
नव वर्ष - 
भारत के कुछ भागों में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से नव वर्ष का प्रारंभ माना जाता है।  वे इसे नए वर्ष के प्रथम दिवस के रूप में ,मनाते हैं। इस दिन को साढ़े तीन स्वयं सिद्ध मुहूर्त के रूप में भी माना जाता है।  इस लिए किसी भी नए कार्य को शुरू करने के लिए उपयुक्त मुहूर्त नहीं हो तो उस कार्य को इस दिन से शुरू  किया जा सकता है।

Tuesday 4 October 2016

(8.1.12) Narak Chaturdashi / Roop Chaturdashi

Roop Chaturdashi / Narak Chaturdashi / रूप  चतुर्दशी / नरक चतुर्दशी 

When is Narak Chaturdashi ?When is Roop Chaturdashi ?/ नरक चतुर्दशी कब है ? रूप चतुर्दशी कब है ?
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन नरक चतुर्दशी अथवा रूप चतुर्दशी का पर्व मनाया जाता है।
इस दिन नरक से मुक्ति पाने के लिए प्रात: काल तेल लगा कर अपामार्ग अर्थात चिचड़ी के पौधे से मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। इस दिन शाम को यमराज की प्रसन्नता के लिए दीपदान करना चाहिए।  
इसे रूप चतुर्दशी भी कहा जाता है।  इस दिन प्रात: काल उठकर आटा , तेल , हल्दी से उबटन कर के स्नान करना चाहिए।  
दीपदान:- 
शाम को भोजन करने से पूर्व एक थाली में एक चौमुखा दीपक और छोटे दीपक रख कर उनमे तेल और बत्ती डालकर जला लें । फिर रोली , अबीर , गुलाल , पुष्प आदि से पूजा करें।  पूजन के पश्चात् सब दीपकों को घर में विभिन्न स्थानों पर रखें जैसे पूजा के स्थान पर , परिंडे पर ( जल रखने के स्थान पर ), तुलसी के पौधे के नीचे आदि। शेष दीपकों को घर के पास स्थित देवालयों में , पीपल के वृक्ष के नीचे तथा यमराज के लिए तेल का दीपक जलाकर दक्षिण दिशा की ओर मुह कर के चौराहे पर दीपदान करना चाहिए।  
यम तर्पण - 
कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को सायं काल के समय दक्षिण दिशा की ओर मुँह  कर के जल , तिल और कुश लेकर देव तीर्थ से  "यमाय  धर्मराजाय मृत्युवे अनन्ताय वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय औदुम्बराय  दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने वृकोदराय चित्राय और चित्रगुप्ताय। " इन में से प्रत्येक नाम का ' नमः ' सहित उच्चारण कर के जल छोड़े।  यज्ञोपवीत को कंठी की तरह रखे और काले तथा सफ़ेद दोनों प्रकार के तिलों को काम में लें।  कारण  यह है कि यम में धर्म राज के रूप में देवत्व और यमराज के रूप में पितृत्व - ये दोनों अंश विद्यमान हैं। 
 हनुमान जयंती - 
यद्यपि अधिकांश उपासक कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ही हनुमान जयंती के रूप में मानते हैं और व्रत करते हैं , परन्तु शास्त्रांतर में चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हनुमान जन्म का उल्लेख किया गया है। 
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमान जयंती मनाने का कारण यह है कि लंका विजय के बाद श्री राम अयोध्या आये। भगवान रामचन्द्रजी ने और भगवती जानकी  जी ने वानरादि को विदा करते समय यथा योग्य पारितोषिक दिया था।  उस समय इसी दिन ( कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ) सीता जी ने हनुमान जी को पहले तो अपने गले की माला पहनायी ( जिसमें बड़े - बड़े बहुमूल्य मोती और अनेक रत्न थे ) परंतु उस माला में राम - नाम नहीं होने से हनुमान जी उससे संतुष्ट नहीं हुए।  तब सीता जी ने अपने ललाट पर लगा हुआ सौभाग्य द्रव्य 'सिंदूर' प्रदान किया और कहा कि  इससे बढ कर मेरे पास अधिक महत्त्व की कोई वस्तु नहीं है, अतएव तुम इस को हर्ष के साथ धारण करो और सदैव अजर - अमर रहो।  यही कारण है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमान जन्म उत्सव मनाया जाता है और तेल सिंदूर चढ़ाया जाता है। (सन्दर्भ - व्रत परिचय पेज 136 -137 )   

(2.2.5) Bible Quotes / Quotations of Bible in Hindi

Bible ke quotation / बाइबल के कोटेसन / Bible quotes 

(१) जिनका भला करना चाहिए, यदि तुझमें शक्ति रहे, तो उनका भला करने से न रुकना। 
(२) यदि तेरे पास देने को कुछ हो, तो तेरे पड़ौसी से कभी यह न कहना कि - 'जा कल आना,मैं कल तुझे दूँगा। '
(३) दूसरों को तुच्छ समझने वालों को प्रभु तुच्छ समझता है, परन्तु जो मनुष्य नम्र और दीन हैं, उन पर प्रभु अनुग्रह करता है। 
(४) बुद्धिमान को सम्मान मिलता है, पर मूर्ख का हर जगह अपमान होता है। 
(५) कोई भी मनुष्य दुष्टता के कारण स्थिर नहीं होता, परन्तु धर्मियों की जड़ कभी नहीं उखड़ती है। 
(६) बिना सोचे विचार बोले गए वचन तलवार के समान चुभते हैं,परन्तु बुद्धिमानी के वचन घाव पर मरहम का काम करते हैं। 
(७) सच्चाई सदा बनी रहेगी, जबकि झूठ पल भर का ही होता है। 
(८) मनुष्य का सारा आचरण उसे अपनी दृष्टि में ठीक लगता है, परन्तु प्रभु तो मन को जाँचता है। 
(९) जो धन झूठ के  द्वारा प्राप्त हो, वह वायु से उड़ जाने वाला कुहरा है,उसे ढूँढने वाले मृत्यु को  ही ढूँढ़ते हैं। 
(१०) जो उपद्रव दुष्ट जन करते हैं,उससे उन्ही का नाश होता है,क्योंकि वे न्याय का काम करने से इनकार करते हैं।
(११) पाप से भरे हुए मनुष्य का मार्ग बहुत टेढ़ा होता है, परन्तु जो मनुष्य पवित्र है, उसका आचरण निष्कपट होता है। 
(१२) जो मनुष्य गरीब की दुहाई को अनसुना करता है, वह भी जब सहायता के लिए पुकारेगा, तब उसकी दुहाई भी सुनी नहीं जाएगी। 
(१३) न्याय पूर्ण कार्य करना धर्मी जनों को आनंद प्रदान करता है, परन्तु अत्याचारी को यही विनाश का कारण जान पड़ता है। 
(१४) जो मनुष्य अपने मुँह और जीभ को वश में रखता है, वह अपने प्राण को अनेक विपत्तियों से बचा लेता है। 
(१५) बुरा मनुष्य अपने दुर्वचनों के कारण जाल में फँसता है, जबकि धर्मात्मा अपने सदवचन से बच निकलता है।

(8.1.11) Anant Chaturdashi अनंत चतुर्दशी कब है

Anant Chaturdashi / अनंत चतुर्दशी व्रत कब है / Anant Chaturdashi Vrat  

When is Anant Chaturdashi /अनंत चतुर्दशी कब है ?
भाद्रपद शुक्ल पक्ष  चतुर्दशी  को अनंत चतुर्दशी के नाम से जाना जाता है। 
 इस व्रत के लिए उदय व्यापिनी तिथि ली जाती है।  पूर्णिमा  का सहयोग होने से इसका फल बढ़ जाता है।यह व्रत (दिवस ) भगवान विष्णु से सम्बन्धित है।   व्रती को चाहिए की वह उस दिन प्रातः काल  स्नान  आदि से निवृत्त  होकर 'ममाखिल  पाप क्षय पूर्वक शुभ  फल वृद्धये  श्री मदनंत प्रीति कामनया अनंत व्रतमहं करिष्ये ' ऐसा  संकल्प कर के अपने स्थान को स्वच्छ और सुशोभित करे।  लकड़ी के पाटे या चौकी पर भगवान अनंत जो भगवान विष्णु  के ही रूप हैं , की एक प्रतिमा स्थापित करे।  इसके आगे किसी धागे को हल्दी में रंगकर उस धागे के 14  गाठें लगाकर अनंत दोरक रखे।  फिर  गंध, पुष्प , धूप , दीपक,नैवेध्य  आदि से पूजन करे।  पूजन में पंचामृत , पंजीरी ,केले ,मोदक आदि का प्रसाद अर्पण करे और उस अनंत दोरक (धागे ) को बांध ले।  इस के बाद भगवान अनंत की कथा सुने तथा 14 युग्म ब्राह्मण को भोजन कराये।  फिर स्वयं भोजन करे।  भोजन में नमक नहीं डाले।
अनंत चतुर्दशी की कथा :-
वनवास के दौरान एक दिन वन में युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से अपना दुःख कहा तथा दुःख के दूर करने का उपाय पूछा।  श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा की तुम विधि पूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो।  इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जायेगा और तुम्हारा गया हुआ राज्य भी तुम्हे मिल जायेगा।  इस सन्दर्भ में उन्होंने  युधिष्ठिर को यह कथा सुनाई :-" प्राचीन काल में सुमन्तु नाम के ब्राह्मण के एक कन्या थी जिसका नाम सुशीला था।  ब्राह्मण ने उस कन्या का विवाह ऋषि कौडिन्य से कर दिया।  कौडिन्य ऋषि सुशीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए।  रास्ते में रात हो गयी।  वे नदी के तट पर संध्या करने लगे।  सुशीला ने देखा - वहाँ बहुत सी स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्र धारण करके किसी देवता की पूजा कर रही हैं।  सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधि पूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बता दी।  सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान  कर 14 गांठों वाला धागा अपने हाथ के बांध लिया और अपने पति के पास वापस आ गयी।  कोडिन्य ने सुशीला से धागे  के बारे में पूछा तो उसने सारी  बात स्पष्ट कर दी। कौडिन्य सुशीला की बात से प्रसन्न नहीं हुए।  उन्होंने धागे को तोड़कर आग में जला दिया।  यह भगवान  अनंत का अपमान था।  परिणामस्वरूप कौडिन्य मुनि हर तरह से दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पति नष्ट हो गयी।  इस दरिद्रता का कारण पूछने पर सुशीला ने अनंत भगवान के धागे को जलाने की बात दोहराई। पश्चाताप स्वरुप ऋषि कौडिन्य भगवान अनंत को ढूढ़ने के लिए वन में चले गए।  जब वे भटकते हुए निराश होकर गिर पड़े तो भगवान अनंत  एक बूढ़े ब्राह्मण के रूप में उनके पास प्रकट होकर बोले, " हे, कौडिन्य तुमने भगवन अनंत का तिरस्कार किया है इस लिए तुम दुखी हुए हो।  तुमने पश्चताप कर लिया है इसलिए भगवान तुम पर प्रसन्न हो गए हैं।  अब घर जाकर विधि पूर्वक 14 वर्ष तक अनंत चतुर्दशी  का व्रत करो।  इससे तुम्हारा दुःख दूर हो जायेगा।  तुम्हे अनंत सम्पति मिलेगी। कौडिन्य ने वैसा ही किया।  इससे उसके सारे दुखों से मुक्ति मिल गयी।
भगवान कृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए  तथा  चिरकाल तक राज्य किया।"
नोट :-  अनन्त चतुर्दशी गणेश उत्सव का अंतिम दिवस होता है। इस दिन भगवान गणेश की प्रतिमाओं का विसर्जन भी किया जाता है। 

(8.1.10) Vaman Dwadashi / Vaman Jayanti / वामन द्वादशी / वामन जयंती

Vaman Jayanti / Vaman Dwadashi / वामन द्वादशी / वामन जयंती 

वामन जयंती कब है ? When is Vaman Jayanti 
भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को वामन जयंती अथवा वामन द्वादशी के नाम से जाना जाता है। जो व्यक्ति इस दिन व्रत रखता है , वामन देव की पूजा करता है, भगवान वामन की कृपा से उसकी सम्पूर्ण इच्छाएं पूर्ण होती हैं।
वामन और बलि की कहानी 
भगवान वामन भगवान विष्णु के  अवतार है इनके पिता का नाम कश्यप और माता का नाम अदिती था। भाद्रपद शुक्ल पक्ष में द्वादशी के दिन श्रवण नक्षत्र और अभिजीत मुहूर्त में मध्यान्ह के समय भगवान वामन का जन्म हुआ था।  इस द्वादशी को विजया द्वादशी भी कहा जाता है। भगवान वामन शस्त्र, आभूषण आदि धारण किये हुए रूप में प्रकट हुए थे तथा अपने स्वरूप को वामन रूप में बदल लिया था।  उस वामन रूप को देखकर सभी प्रसन्न हुए और जात कर्म आदि संस्कार करने लगे।  यज्ञोपवीत के समय सूर्य ने इन्हें गायत्री का उपदेश किया, देव गुरु वृहस्पति ने यज्ञोपवीत व कश्यप ने मेखला दी।  तदनन्तर वामन जी ने सुना कि शुक्राचार्य की सलाह से बलि ने बहुत से अश्वमेघ  यज्ञ  कराये हैं। यह यज्ञ सौवां था। यह नर्बदा के उत्तर तट पर भृगु कच्छ तीर्थ पर हो रहा था।  भगवान वामन उस यज्ञ स्थल पर पहुंचें। बलि  ने उनका स्वागत कर चरणों को धोकर उनका पूजन किया।  फिर बलि बोले - आप के आने से हमारा यह यज्ञ सफल को गया है। आपकी जो इच्छा हो सो मांगिये।  वामन बोले - मैं केवल तीन पैर ( डग ) पृथ्वी मांगना चाहता हूँ , और मैं स्वयं ही इसे अपने पैरों से नापूंगा।  राज बलि हंस कर बोले - आप के वचन तो वृद्धों के समान हैं, परन्तु आपकी बुद्धि बालकों के समान है।  हे ब्राह्मण , आप चाहो तो मैं आपको एक द्वीप दे दूँ।  इस पर वामन जी बोले - हे नृप , जो तीन पैर पृथ्वी से संतुष्ट नहीं हुआ है , वह वन खंड मिलाने से भी संतुष्ट नहीं हो सकता है।  इसीलिए जो मिल जाये उसी पर संतोष करना मुक्ति का हेतु होता है।  अत: आप मुझे केवल तीन डग पृथ्वी ही दीजिये।  राजा  बलि के दान देने की सहमति पर भगवान वामन ने अपना रूप विराट  बना लिया और एक पग से बलि की साडी पृथ्वी नाप ली , शरीर से आकाश  और भुजाओं से दिशाएं घेर ली।  दूसरे  पग से  उन्होंने स्वर्ग को नाप लिया।  तीसरा पैर रखने के लिए बलि के पास कोई जगह नहीं बची।  अपने वचन को पूरा करने के लिये बलि ने भगवान वामन से कहा कि आप अपना तीसरा पैर मेरे सिर पर रख दीजिये।  भगवान वामन बलि की उदारता और दान शीलता से प्रभावित होकर उनको पटल लोक का साम्राज्य दे दिया और स्वयं ने द्वारपाल का पद स्वीकार कर लिया।

(8.1.9) Kajali Teej / Badi Teej / Saatoodi Teej / Kajli Teej Vrat, Puja

Badi Teej / Kajaji Teej / Satudi Teej / कजली तीज / सातुड़ी तीज / बड़ी तीज / कजली तीज व्रत - पूजा सामग्री तथा पूजा विधि 

रक्षा बंधन के दो दिन बाद भाद्रपद कृष्ण तृतीया को कजली तीज , बड़ी तीज या सातुड़ी  तीज का त्यौहार व्यापक रूप से मनाया जाता है।  
व्रत के पूर्व की तैयारी  - बड़ी तीज के एक  दिन पूर्व सिर  धोकर , चारों  हाथ पैरों के मेहंदी लगाई  जाती है। सवा किलो या सवा पाव चने की दाल  को सेक कर और पीस  कर उसमें पिसी  हुई शक्कर और घी मिला कर सातू तैयार किया  जाता है। सातू जौ , गेहूं ,चावल या चने आदि का भी मनाया जा सकता है।  
पूजन सामग्री - एक छोटा सातू  का लड्डू , नीम के पेड़ की एक छोटी टहनी , दीपक , केला ,अमरुद , ककड़ी , दूध मिश्रित जल , कच्चा दूध , मोती की लड़ , पूजा की थाली  व जल का कलश।  
पूजन की तैयारी  - मिट्टी व गोबर से दीवार के सहारे एक छोटा सा ढेर बनाकर उसके बीच में नीम के पेड़ की टहनी रोप   देते हैं। इस नीम की टहनी के चारों तरफ कच्चा दूध मिश्रित जल डाल देते हैं।  इसके पास एक दीपक जलाकर रख देते हैं।  
पूजा विधान - इस दिन पूरे दिन उपवास किया जाता है और शाम को नीमडी  माता  का पूजन किया जाता हैं सर्वप्रथम नीमडी  माता  के जल के छींटे , फिर रोली के छींटे दें और चाँवल  चढ़ाएँ।  इसके बाद पीछे दीवार पर रोली , मेहंदी और काजल की तेरह बिंदियाँ अपनी अंगुली से लगायें।  फिर नीमडी  माता  के मोली चढ़ाएं , मेहंदी , काजल और वस्त्र भी चढ़ाएं।  दीवार  पर लगायी गयी बिंदियों पर भी मेहंदी की सहायता से लच्छा चिपका दें।  फिर नीमडी  माता  के ऋतु  फल दक्षिणा चढ़ाएं।  पूजन करके कथा या कहानी सुननी चाहिये। रात  को चाँद उगने पर उसकी तरफ जल के छींटे देवें फिर चाँदी  की अंगूठी व गेहूं हाथ में लेकर जल से चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है।  अर्घ्य देते समय निम्नांकित शब्द बोलती है - सोना को साकलो , गोल मोतियों को  हार, चन्द्रमा ने अर्घ्य देऊ , जिओ  वीर भरतार।     

Monday 3 October 2016

(8.5.8) Jal Jhulani Ekadashi Vrat / Padma Ekadashi

Padma Ekadashi Vrat / Jaljhulani Ekadashi Vrat Vidhi / जल झूलनी एकादशी व्रत विधि / पद्मा एकादशी / जल झूलनी एकादशी के महत्व / कटि परिवर्तन उत्सव 

जल झूलनी एकादशी/ पद्मा एकादशी 
भाद्रपद शुक्ल एकादशी को जलझूलनी एकादशी , पद्मा एकादशी ,जल झूलनी  ग्यारस , कटि परिवर्तनी एकादशी आदि नामों  से जाना जाता है। राजस्थान में इसे जल झूलनी ग्यारस (एकादशी) के नाम से जाना जाता है।   मंदिरों में रखी देवताओं की प्रतिमाओं  को नजदीक के तालाब, नदी या झील तक जुलूस के रूप में ले जाया जाता है और उन्हें वहां स्नान कराया जाता है।
व्रत  - 
जो व्यक्ति भाद्रपद शुक्ल एकादशी का व्रत करता है , उसे प्रात:काल जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत्त हो कर भगवान  का पूजन करना चाहिए , विशेष रूप से भगवान विष्णु  के वामन रूप की पूजा करनी चाहिए। उपवास करके रात्रि के समय जागरण करे  , हरि स्मरण करे। दूसरे दिन व्रत खोले।  यह  व्रत सभी प्रकार की मनोकामनओं की पूर्ति  करने वाला व्रत है।
कटि परिवर्तन उत्सव - 
आषाढ  शुक्ल  एकादशी ( देवशयनी  एकादशी ) से कार्तिक शुक्ल  एकादशी ( देव उठनी एकादशी ) तक भगवान  विष्णु क्षीर सागर में शयन करते हैं।  इस अवधि में भाद्रपद  शुक्ल एकादशी को भगवान का कटि परिवर्तन किया जाता है अर्थात करवट बदलवाई जाती है।  (इसलिये  इस जल झूलनी एकादशी को कटि परिवर्तनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। ) कटि परिवर्तन के लिये देव प्रबोधिनी के समान ही विधान करके भगवान  की प्रतिमा को विमान में विराजित करके गायन, वादन , कीर्तन , जय घोष आदि के साथ जलाशय ले जाया जाता है और वहाँ उन्हें स्नान कराया जाता है।  जलाशय से प्रतिमाओं को वापस लाकर संध्या के समय महापूजा और नीराजन  करके रात्रि में भगवान  को दक्षिण कटि  शयन कराया जाता है।
पद्मा  एकादशी से जुड़ी  कहानी - 
प्राचीन काल  में सूर्य वंश में मान्धाता नामक  चक्र वर्ती राजा हुये थे।  उनके राज्य में तीन वर्ष तक  लगातार वर्षा नहीं हुई जिससे राज्य की जनता बहुत दुखी हो गयी।  इस अनावृष्टि को मिटाने  के लिये  अंगिरा  ऋषि के निर्देश पर राजा  मान्धाता ने इसी पद्मा  एकादशी के व्रत का अनुष्ठान किया था, जिससे  उसके राज्य में सर्वत्र
सदैव अनुकूल वर्षा होती रही।    
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(6.8.2) Shrava Maah Men Shiv Puja / Shiv Puja in Shravan month

Importance of Shiv Pooja in Shraavan month / Shravan maah tatha Shiv Pooja / Shrawan maas me Shiv Pooja Ka Mahatva / श्रावण मास में शिव पूजा / भगवान् शिव की कृपा पाने के लिए शिव पूजा / मनोकामना सिद्धि हेतु शिव पूजा 

श्रावण मास शिवजी को जितना प्रिय है उतना सम्पूर्ण वर्ष में कोई भी माह प्रिय नहीं है अत: इस माह में महामृत्युंजय मन्त्र, शिव सहस्त्र नाम, रुद्राभिषेक, शिव महिम्न स्त्रोत, पंचाक्षर मन्त्र आदि का जितना अधिक जप कर सकें, करें व शिव चालीसा का पाठ करें। यदि स्वयं से जप आदि करना संभव नहीं  हो तो किसी विद्वान् ब्राह्मण से करवाएं। श्रावण भगवान का प्रिय माह होने से मनोकामनाओं का इच्छित फल प्रदान करने वाला माह है।
श्रावण मास में पूरे माह व्रत रखना चाहिए। स्कन्ध पुराण में तीस अध्याय हैं प्रतिदिन उसके एक अध्याय का पाठ करें अथवा श्रवण करें। प्रात: काल  ब्रह्म मुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त हो जायें और स्वच्छ वस्त्र धारण कर प्रतिदिन शिव मंदिर जाकर शिवजी की पूरी श्रद्धा से पूजा करें। नियम पूर्वक प्रतिदिन निश्चित संख्यां में ( पाँच, ग्यारह, इक्कीस, इकतीस, इक्कावन ) बिल्व पत्र भगवान शंकर को चढ़ावें।
इस माह में रुद्राष्टाध्यायी पाठ द्वारा  शिव जी को पंचामृत से अभिषेक करें तथा शिव जी का रुद्री पाठ द्वारा सहस्त्र धारा से अभिषेक करें। सहस्त्र धारा अभिषेक हेतु तांबे के कलश के चौड़े पैंदे में एक हजार एक सौ एक छोटे - छोटे जल निकलने लायक छिद्र करवा दें। यदि एक हजार एक सौ एक छिद्रों में से एक सौ एक छिद्र बंद भी हो जायेंगें तो भी एक हजार छिद्र तो रहेंगें जिनके द्वारा जल निकल सकेगा।
श्रावण के सोमवार -
श्रावण मास में आने वाले सभी सोमवारों का व्रत करना चाहिए इन सोमवारों का व्रत करके शिवजी की पूजा करने वाले व्यक्ति पर शिवजी की विशेष कृपा होती है।
विशेष  - इस माह में हो सके जहाँ तक हरी सब्जियों का त्याग करना चाहिए।

(8.5.7) Ekadashi Vrat dates this year ? When is Ekadashi ?

Ekadashi Kab Hai / When is Ekadashi this year ? Ekadashi Vrat dates / एकादशी कब है ? एकादशी व्रत दिनांक

सनातन धर्म में एकादशी एक महत्वपूर्ण और पवित्र तिथि मानी जाती है।  इस दिन किये गए व्रत-उपवास का बहुत महत्व है। यह व्रत बढ़ महीनों के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष दोनों पक्षों में किया जाता है। एकादशी व्रत के दो भेद हैं - नित्य और काम्य। निष्काम व्रत किया जाए वह :"नित्य" और धन पुत्रादि की प्राप्ति अथवा रोग दोषादि की निवृत्ति के लिए किया जाने वाला व्रत "काम्य" कहलाता है। दोनों पक्षों में आने वाली एकादशी के दिन व दिनांक जानने हेतु यहाँ क्लिक करें 
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Sunday 2 October 2016

(2.1.15) For a happy life accept it/ प्रसन्न जीवन के लिए अपरिहार्य को स्वीकार करें

Prasann Jeevan ke liye Aparihaary ko sweekaar karen / प्रसन्न जीवन के लिए अपरिहार्य को स्वीकार करें 

(For English translation CLICK HERE) 
इस विशाल संसार में प्रतिक्षण घटनाएँ घटित होती रहती  हैं। उन में से कुछ हमारे अनुकूल होती हैं और कुछ प्रतिकूल होती हैं।  हम चाहते हैं कि कोई भी घटना हमारे प्रतिकूल घटित नहीं हो। लेकिन यह संभव नहीं है। जीवन के मार्ग में उतार - चढाव तो आयेंगे  ही। कभी कभी तो हम उन प्रतिकूल घटनाओं की भी कल्पना करने लगते हैं जो अभी घटित ही नहीं हुई  हैं तथा  संभव है भविष्य  में भी घटित नहीं हो और  वे आपके मन पर केवल भार बन कर रह रही हैं। अत: उन परिस्थितियों या घटनाओं की जो आप के बस में नहीं है, के विषय में चिंतित होने का कोई लाभ नहीं है बल्कि जो बातें  आप के अनुकूल हैं उन का भी आनंद समाप्त हो जायेगा। इसलिए जो हो रहा है उसे होने दो। जिन बातों को आप अपनी सम्पूर्ण शक्ति के बावजूद बदल नहीं सकते और जो आपके बस में नहीं है, उनके विषय में चिंतित होने से कोई लाभ  नहीं है। जो होने वाला है उसे निश्चिन्त होकर सहन करो और ईश्वरीय इच्छा मान कर स्वीकार करो। हमारी भलाई बुराई  को हमारे बजाय ईश्वर ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं। इस सम्बन्ध में Dr. Reinhold Neibuhr द्वारा  लिखित प्रार्थना की गहनता पर बार - बार मनन करो -    
ईश्वर , मुझे ,मन की शांति दीजिये ,
जिन बातों ( घटनाओं ) को मैं बदल नहीं सकूँ , 
उन्हें सहन करने की शक्ति दीजिये; 
जिन बातों ( घटनाओं ) को मैं बदल सकूँ , 
उन्हें बदलने का साहस दीजिये; 
साथ ही मुझे इन के बीच अंतर कर सकने की बुद्धि दीजिये।
अत: जो अपरिहार्य है,जो अनिवारणीय है, जिसे टाला नहीं जा सके , उसको मनोयोग पूर्वक सहन और स्वीकार करो। 

(1.1.21) Prarthana - Urja ka Srot /ऊर्जा का शक्तिशाली स्रोत है , प्रार्थना

Prarthana kee shakti /ऊर्जा का शक्तिशाली स्रोत है , प्रार्थना / Prayer is the source of energy

प्रार्थना मानसिक  ऊर्जा का शक्तिशाली स्रोत है।यह ऊर्जा व्यक्ति को उसके जीवन में आने वाली अवांछित स्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करती है। कभी - कभी आपकी समस्याएं ऐसी होती है कि आप अपने घनिष्ठ सम्बन्धी या मित्र से भी उनका उल्लेख नहीं करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रार्थना ही एक मात्र समाधान है। प्रार्थना के माध्यम से आप  अपनी समस्या को शब्दों के रूप में प्रकट कर सकते हैं। प्रार्थना से आपमें यह भावना विकसित होती है कि आप अपनी समस्या का सामना करने के लिए अकेले नहीं हैं। जब आप प्रार्थना करते हैं, तो आप उस अक्षय प्रेरक शक्ति से सम्बन्ध जोड़ लेते हैं जो इस संसार को बांधे रखती है।
प्रार्थना करने के लिए सामान्य बातें  -  
1.थोड़े समय के लिए शांत होकर अकेले बैठें। अपनी व्यक्तिगत बातों या समस्याओं की तरफ से ध्यान हटा कर ईश्वर व दिव्य शक्ति पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। ईश्वर के बारे में स्वाभाविक तरीके से सोचें  और चिंतन करें।
2.  ईश्वर से सहज और स्वाभाविक तरीके से बात करो। इस के लिये औपचारिक शब्दों की आवश्यकता नहीं है। अपनी सहज भावना का प्रयोग करो।
3.अनुभव करो कि ईश्वर आपके पास हैं, वे आपकी  सहायता कर रहे हैं और आपको आशीर्वाद दे रहे हैं।
4.जो आप चाहते हैं, उसे ईश्वर से मांगे लेकिन साथ ही यह भी कहे कि जो ईश्वर की इच्छा होगी वही आपकी इच्छा बनेगी।
5.अच्छा से अच्छा और दृढ़ता पूर्वक कुछ कर पाने हेतु ईश्वर  से प्रार्थना करो, लेकिन परिणाम ईश्वर पर छोड़ दो।
6. जब आप प्रार्थना करें तो सकारात्मक सोच रखें।  
7. विश्वास रखो कि ईश्वर द्वारा आपकी प्रार्थना स्वीकार की जाएगी।
8. ध्यान रखो , जो आप के लिए असंभव है, वह ईश्वर के लिए संभव है।

(2.1.14) Who is happy ? /Prasann Vyakti kee Visheshata

Who is a happy person ? Prasanna Vyakti ki Visheshata / प्रसन्न व्यक्ति तथा प्रसन्न जीवन की विशेषता 

Prasann Vyakti / Happy person / प्रसन्न व्यक्ति 
एक प्रसन्न व्यक्ति दूसरों पर आश्रित नहीं रहता है और न ही वह दूसरों की इच्छा के अनुसार कार्य करता है।
उसकी ईमानदारी ही उसका रक्षा कवच है और उसकी सहज सत्यता ही उसकी सर्वोत्तम योग्यता और मार्गदर्शक है।
वह अपनी भावनाओं का स्वामी होता है तथा स्नेह , घृणा , क्रोध एवं ईर्ष्या जैसी भावनाओं पर नियंत्रण रखता है। 
वह मृत्यु से भयभीत नहीं होता है। उसे न तो राजा के अनुग्रह की परवाह है और न ही सामान्य व्यक्तियों  की आलोचना की।
प्रसन्न व्यक्ति अपने मष्तिस्क को संतुलित रखता है। वह दूसरे व्यक्तियों की प्रगति से ईर्ष्या नहीं करता है न ही वह दूसरों के पतन या अवनति से प्रसन्न होता है। 
न तो उसकी उन्नति उसे घमंडी बनाती है और न ही उसे अपनी अवनति पर पश्चाताप होता है।
वह अफवाओं , चापलूसों और दुश्मनों से अप्रभावित रहता है। वह निर्मल और उदार होता है।
वह भलाई और दयालुता के नियमों के पालन में विश्वास करता है।
प्रसन्न व्यक्ति ईश्वर से प्रेम करता है और उसकी दिव्य कृपा पाने के लिए प्रार्थना करता है न कि किसी स्वार्थ सिद्धि या किसी सांसारिक उपलब्धि पाने  के लिए।
वह निर्दोष कार्यों में, अच्छे मित्रों के साथ तथा अच्छी पुस्तकें पढ़ने में अपना समय बिताता है।
प्रसन्न व्यक्ति जीवन में उत्थान या पतन की परवाह  नहीं करता है। सफलता उसे प्रसन्न नहीं कर सकती है और न ही असफलता उसे हतोत्साहित कर सकती है। 
उसका अपनी भावनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण होता है इस लिए वह पूरी तरह संतुष्ट होता है।
ऐसा सुखी व्यक्ति सांसारिक सम्पत्ति  के मामलें में गरीब हो सकता है परन्तु वह सही रूप में इस संसार का स्वामी होता है।   

(2.1.13) Take Risk for progress / जीवन में सफलता और जोखिम

जीवन में जोखिम का महत्व  No risk, no gain / Pragati ke liye jokhim aavashyak hai ? प्रगति के लिए जोखिम आवश्यक है / सफलता और जोखिम 

जोखिम का महत्व / प्रगति और सफलता के लिए जोखिम जरूरी है 
जीवन में प्रत्येक कार्य में जोखिम है। यदि आप हँसते हो तो लोग आपको मूर्ख समझ सकते हैं।यदि आप रोते हैं तो  आपके भावुक दिखने की जोखिम है। यदि आप दूसरों की सहायता करते हैं तो संलिप्तता  की जोखिम है ( अर्थात यदि आप दूसरों की सहायता करते हो या उनमें रूचि दिखाते हो  तो लोगों को लगता  है कि इसमें आप का कोई  हित निहित है। ) यदि आप अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं तो आपके वास्तविक स्वरूप के प्रकट होने की जोखिम है।यदि आप लोगों को अपने विचार और कल्पनाओं के बारे में बतायें तो वे आप को अनुभव हीन समझ सकते हैं। दूसरों से प्रेम करने में भी जोखिम है क्योंकि यह निश्चित नहीं है कि  बदले में आप को प्रेम मिले।यहाँ  तक कि  जीने में भी मरने की जोखिम है। यदि आप किसी बात की आशा करते हैं  तो इसमें निराशा की जोखिम होती है। प्रयास  करने में असफल होने का डर रहता है।
लेकिन आप बिना जोखिम  उठाये कुछ नहीं कर सकते हैं।बिना जोखिम का जीवन स्वयं में सबसे बड़ा खतरा है। जो व्यक्ति जोखिम नहीं उठाता हैं वह जीवन के दुःख व कठिनाइयों को कुछ समय के लिए तो  टाल सकता है लेकिन वह सीख कुछ नहीं सकता। वह  कुछ भी नया अनुभव प्राप्त नहीं कर सकता है। वह न तो स्वयं को बदल सकता है और न ही अन्य व्यक्तिओं व चीजों को तथा न ही वह जीवन को  ढंग से जी सकता है।
जोखिम नहीं उठाने का  लाभ यह है कि वह व्यक्ति थोड़े समय के लिए कष्टों और दुखों को टाल सकता हैं। लेकिन वह कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता है , उसके पास देने व कहने के लिए कुछ भी नहीं होता और वह जीवन में कुछ भी नहीं बन पाता  है। वह व्यक्ति जो जोखिम उठाता है,  नई चीजें सीखता है, नया अनुभव प्राप्त करता है, अपनी स्थिति को बदल सकता है , एक महत्वपूर्ण व्यक्ति  के रूप में जाना जाता है, जीवन को सही ढंग से जीता है और आने वाली मुश्किलों का सामना कर पाता है।      
( जेनेट रैंड )

(8.5.6) Dev Uthani Ekadashi / Dev Prabodhini Ekadashi Vrat and importacce

Dev Uthani Ekadashi / Dev Prabodhini Ekadashi / Dev uthani Ekadashi Vrat and benefits /देव उठनी एकादशी व्रत/ देव प्रबोधिनी एकादशी व्रत 

Dev Uthani Ekadashi / Dev Prabodhini Ekadaskhi / देव उठनी एकादशी व्रत तथा महत्व 
कार्तिक शुक्ल एकादशी को देव उठनी एकादशी या देव प्रबोधिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है।
देव प्रबोधन का तात्पर्य है देवताओं का जागना। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु वर्ष के चार माह तक शेषनाग की शैया पर क्षीर सागर में शयन करते हैं तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। हिन्दुओं के लिए इस दिन का विशेष महत्व है। इस दिन लोग भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं, व्रत  रखते हैं और रात्रि में भगवान विष्णु से सम्बंधित प्रार्थना , स्तोत्र , कहानियां आदि सुनते सुनाते हैं।
इस दिन चतुर्मास समाप्त हो जाता है। इसे बहुत शुभ दिन माना जाता है। विवाह आदि शुभ कार्य जो चतुर्मास या देव शयन के दौरान बंद रहते हैं , वे फिर से प्रारम्भ हो जाते हैं ।
लोग इस दिन व्रत रखते हैं। ऐसा कहा जाता है कि देव उठनी एकादसी का व्रत व्यक्ति के पापों को नाश करने वाला है। व्रत करने वाले व्यक्ति  को प्रात: काल जल्दी उठकर स्नान व प्रार्थना करके भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। यदि पास में भगवान विष्णु का मंदिर को तो वहाँ जाकर विष्णु प्रतिमा के दर्शन करने चाहिए। व्रती को चौबीस घंटे का व्रत रखना चाहिए और अगले दिन ( द्वादशी को ) व्रत खोलना चाहिए।
 इस दिन विष्णु सहस्त्र नाम या ॐ नमो नारायण या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय या भगवान विष्णु से सम्बंधित  किसी भी प्रार्थना अथवा स्तोत्र का जप करना चाहिए।
तुलसी विवाह - ( विष्णुयामल )- 
पद्म पुराण में कार्तिक शुक्ल नवमी को तुलसी विवाह का उल्लेख किया गया है; किन्तु अन्य ग्रंथों के अनुसार देव प्रबोधिनी एकादशी  से पूर्णिमा पर्यन्त के पाँच दिन अधिक फल देते हैं। व्रती को चाहिए की विवाह के तीन माह पूर्व तुलसी के पौधे को सिंचन और पूजन से पोषित करें। प्रबोधिनी या भीष्म पंचक या विवाह के मुहूर्त में तोरण मण्डप आदि की रचना करके ब्राह्मण को साथ लेकर गणपति मातृकाओं का पूजन , नांदी श्राद्ध और पुण्य वाचन करके मंदिर की साक्षात् मूर्ति के साथ सुवर्ण के लक्ष्मी नारायण और पोषित तुलसी के साथ सोने और चांदी की तुलसी को शुभासन पर पूर्वाभिमुख  विराज मान करे और यजमान सपत्नीकउत्तराभिमुख बैठकर तुलसी विवाह विधि के अनुसार गो धूलि वेला में वर ( भगवान ) का पूजन , 'कन्या' ( तुलसी)का दान, कुशकंडी हवन और अग्नि परिक्रमा आदि करके वस्त्र आभूषण आदि दे और यथा शक्ति ब्राह्मण भोजन कराकर स्वयं भोजन करे।( सन्दर्भ :- व्रत परिचय पेज 150 )
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(8.5.5) Devshayani Ekadashi Vrat, Katha, laabh

Dev Shayani Ekadashi / Dev Shayani Ekadashi Vrat Vidhi / Hari Shayani Ekadashi / देव शयनी एकादशी / हरि शयनीएकादशी / एकादशी व्रत विधि व्रत / देवशयनी एकादशी व्रत के लाभ 

देव शयनी एकादशी / हरि शयनी एकादशी 
आषाढ़ शुक्ल  एकादशी को देवशयनी एकादशी या हरि  शयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। पुराणों  के अनुसार इस दिन  से चार मास तक भगवान विष्णु क्षीर सागर में शेषनाग पर शयन करते हैं और देव उठनी एकादशी को जागते हैं।
यह दिन हिन्दुओं के लिए  बहुत महत्व पूर्ण  और पवित्र है। वे भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं, व्रत रखते हैं तथा रात्रि में भगवान विष्णु से सम्बंधित प्रवचन , प्रार्थना , स्तोत्र , कहानियाँ आदि सुनते और  सुनाते हैं। देव शयनी एकादशी से चतुर्मास भी प्रारम्भ  जाता है। चतुर्मास  के दौरान   लोग भगवान विष्णु से सम्बंधित प्रवचन सुनते या पढ़ते हैं। इस अवधि में विवाह आदि  धार्मिक कार्य स्थगित रहते हैं।
 एकादशी का व्रत मोक्ष प्रदान करने वाला है तथा व्रत करने वाले  के जीवन में प्रसन्नता व सम्पन्नता  लाता है। व्रत रखने वाले व्यक्ति को प्रात: काल जल्दी उठकर स्नान के बाद विष्णु पूजा करनी चाहिए। यदि नजदीक कोई विष्णु मंदिर हो तो वहाँ जाकर भगवान विष्णु की प्रतिमा के दर्शन करने चाहिए। चौबीस घंटे के लिए व्रत करे और इस व्रत को अगले दिन द्वादशी को स्नान करके खोले।
 देव शयनी एकादशी के लिए मन्त्र  या प्रार्थना -
विष्णु सहस्त्र नाम
विशेष - ( भविष्योत्तर पुराण ) -
आषाढ़ शुक्ल एकादशी का नाम देव शयनी एकादशी है। इस दिन उपवास करके सोना, चाँदी, तांबा या पीतल की  मूर्ति बनवाकर उसका यथोपलब्ध उपचारों से पूजन करे और पीताम्बर से विभूषित करके सफेद   चादर से ढके हुए गद्दे - तकिया वाले पलंग पर शयन करावे।
 इन चार महिनों  के लिए अपनी  रूचि अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थो का त्याग और ग्रहण करें। जैसे मधुर स्वर के लिए 'गुड'का , दीर्घायु अथवा पुत्र - पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का , शत्रु नाशादि के लिए कडवे तेल का , सौभाग्य के लिए मीठे  तेल का और स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों  का त्याग करें। देह  शुद्दि  या सुन्दरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य का,वंश वृद्धि के लिए नियमित दू ध का, कुरु क्षेत्रादि के समान फल मिलने के लिए पात्र में भोजन करने के बदले पत्र का और सर्व पाप क्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने  के लिए ' एकभुक्त, नक्त व्रत , अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत करें, तो इस का बहुत फल होता है।  
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