Thursday, 14 August 2014

(1.1.1) Vrind ke Dohe/ Dohe of Vrind in Hindi

वृन्द के दोहे (हिन्दी अर्थ सहित )

(For English translation click here)

(१) करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान। 
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।। 
भावार्थ :- कुए से पानी खींचने के लिए बर्तन से बाँधी हुई रस्सी कुए के किनारे पर रखे हुए पत्थर से बार -बार रगड़ खाने से पत्थर पर भी निशान बन जाते हैं। ठीक इसी प्रकार बार -बार अभ्यास करने से मंद बुद्धि व्यक्ति भी कई नई बातें सीख कर उनका जानकार हो जाता है।
(२) मूरख को हित के वचन, सुनि उपजत है कोप। 
साँपहि दूध पिवाइये, वाके मुख विष ओप।। 
भावार्थ :- साँप को दूध पिलाने पर भी उसके मुख से विष ही निकलता है। इसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति को उसके हित के वचन अर्थात उसकी भलाई की बात कही जाये, तो भी उसे क्रोध ही आता है। 
(३) उत्तम विद्या लीजिये, यदपि नीच पै होय। 
परो अपावन ठौर में, कंचन तजत न कोय।। 
भावार्थ :- अपवित्र या गन्दे स्थान पर पड़े होने पर भी सोने को कोई नहीं छोड़ता है। उसी प्रकार विद्या या ज्ञान चाहे नीच व्यक्ति के पास हो, उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। 
(४) अपनी पँहुच विचारि कै, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर।। 
भावार्थ :- व्यक्ति के पास ओढने के लिए जितनी लम्बी कम्बल हो, उतने ही लम्बे पैर पसारने चाहिए। इसी प्रकार उसे अपने उपलब्ध साधनों के अनुरूप ही अपना कारोबार फैलाना चाहिए। 
(५) उद्यम कबहुँ न छोड़िये, पर आसा के मोद। 
गागरि कैसे फोरिये, उनियो देखि पयोद। 
भावार्थ :- कवि वृन्द कहते हैं कि बादलों को उमड़ा हुआ देख कर हमें अपने घड़े ( मिट्टी का बर्तन जिसे पानी भरने के लिए काम में लिया जाता है ) को नहीं फोड़ना चाहिये। इसी प्रकार दूसरे लोगों से कुछ प्राप्त हो जायेगा इस आशा में हमें अपने प्रयास कभी नहीं छोड़ना चाहिये। 
(६) भले- बुरे सब एक से, जौ लौं बोलत नाहिं। 
जान परंतु है काक-पिक, रितु बसंत का माहिं।।
भावार्थ :-  जब तक कोई व्यक्ति बोलता नहीं है, तब तक उसके भले या बुरे होने का पता नहीं चलता है। जब वह बोलता है तब ज्ञात होता कि वह भला है या बुरा है। जैसे वसंत ऋतु आने पर जब कौवा और कोयल बोलते हैं, तब उनकी कडुवी और मीठी वाणी से ज्ञात हो जाता कि कौन बुरा है और कौन भला है।
(७) जो जाको गुन जानही, सो तिहि आदर देत। 
कोकिल अबरि लेत है, काग निबौरी लेत।।  
भावार्थ - जो व्यक्ति जिसके गुणों को जानता है, वह उसी के गुणों का आदर - सम्मान करता है। जैसे कोयल आम का रसास्वादन करती है और जबकि कौआ नीम की निम्बौरी से ही सन्तुष्ट हो जाता है।
(८) उत्तम विद्या लीजिये,जदपि नीच पाई होय। 
परयो  अपावन ठौर में, कंचन तजय न कोय।। 
भावार्थ - जिस प्रकार स्वर्ण अपवित्र स्थान पर पड़ा हो, तो भी उसे कोई त्यागना नहीं चाहता है। ठीक उसी प्रकार उत्तम विद्या (अच्छा ज्ञान ) कहीं या किसी से भी मिले उसको ग्रहण कर लेना चाहिए, चाहे वह (उत्तम विद्या) अधम व्यक्ति के पास ही क्यों नहीं हो।
(९)  मन भावन के मिलन के, सुख को नहिन छोर। 
बोलि उठै, नचि- नचि उठै, मोर सुनत घनघोर।। 
भावार्थ -   कवि वृन्द कहते हैं कि जैसे मोर बादलों की गर्जना सुन कर मधुर आवाज में बोलने और नाचने लगता है उसी प्रकार हमारे  मन को प्रिय लगने वाले व्यक्ति के मिलने पर हमें असीमित आनन्द की प्राप्ति होती है और हमारी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रहती है।
(१०) निरस बात, सोई सरस, जहाँ होय हिय हेत। 
गारी प्यारी लगै, ज्यों-ज्यों समधन देत।।   
भावार्थ - कवि वृन्द कहते हैं, जिस व्यक्ति के प्रति हमारे ह्रदय में लगाव और स्नेह का भाव होता है, उस व्यक्ति की नीरस बात भी सरस लगने लगती हैं। जैसे समधिन के द्वारा दी जाने वाली गालियाँ भी अच्छी लगती हैं क्योंकि उन गालियों में स्नेह का भाव होता है।
(११) ऊँचे बैठे ना लहै, गुन बिन बड़पन कोइ। 
बैठो देवल सिखर पर, बायस गरुड़ न होइ। 
भावार्थ - जिस प्रकार मंदिर के उच्च शिखर पर बैठा हुआ कौआ गरुड़ की साम्यता प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार गुण रहित व्यक्ति उच्च आसन पर बैठने मात्र से ही उच्चता को प्राप्त नहीं कर सकता।
(१२) फेर न ह्वै हैं कपट सों, जो कीजे ब्यौपार। 
जैसे हाँडी काठ की, चढ़ै न दूजी बार। 
भावार्थ -  जिस प्रकार लकड़ी से बनी हुई हाँडी (बर्तन) को दुबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ाया जा सकता है , ठीक उसी प्रकार जो मनुष्य कपट पूर्वक व्यापार करता है , उसका व्यापार लम्बे समय तक नहीं चलता है। यही बात व्यक्ति के  वव्यहार और आचरण पर भी लागू  होती है।
(१३) नैना देत बताय सब, हिये को हेत अहेत। 
जैसे निरमल आरसी, भली-बुरी कही देत।। 
भावार्थ - जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण किसी व्यक्ति की वास्तविक छवि को बता देता है। उसी प्रकार किसी व्यक्ति के मन में दूसरे व्यक्ति के प्रति स्नेह का भाव है या द्वेष का भाव है , यह बात उसके नेत्रों को देख कर ही ज्ञात की जा सकती है।
(१४) सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय। 
पवन जगावत आग कौ, दीपहिं देत बुझाय।। 
भावार्थ - तीव्र हवा प्रज्वलित अग्नि को तो और अधिक प्रचंड बना देती है , लेकिन वही हवा दीपक को बुझा देती है।  इस संसार का यही नियम है , बलवान व्यक्ति की सहायता करने के लिए तो कई लोग सामने आ जाते हैं , जबकि निर्बल का कोई सहायक नहीं होता है।
(१५) अति हठ मत कर, हठ बढ़ै, बात न करिहै कोय। 
ज्यौं- ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं - त्यौं भारी होय। 
भावार्थ - जिस प्रकार कम्बल के भीगते रहने से वह भारी होता जाता है -, उसी प्रकार किसी व्यक्ति के हठ या जिद करने से, उसका जिद्दीपन बढ़ता जाता है। तथा एक समय ऐसा आता कि लोग उसके हठी स्वभाव के कारण उससे बात करना भी पसंद नहीं करते हैं।