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Monday, 2 June 2025

(1.1.26) जाको प्रभु दारुण दुख देही, ताकि मति पहले हर लेही Jako Prabhu Darun Dukh Dehi, Taki Mati Pahle Har Lehi

जाको प्रभु दारुण दुख देही, ताकि मति पहले हर लेही Jako Prabhu Darun Dukh Dehi, Taki Mati Pahle Har Lehi

जब किसी व्यक्ति के प्रारब्ध में बुरे कर्मों का फल मिलने वाला होता है, तो सबसे पहले विधि उसकी बुद्धि हर लेती है, यानि जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में दुख का समय आता है, तो विद्वान भी जड़ बुद्धि हो जाता है और परिणाम स्वरुप अनेक प्रकार के दुख और कष्ट भोगता है। जैसे, रावण ने सीता का हरण किया और अपने इस कृत्य को अंत तक सही मानता रहा। परिणाम स्वरुप उसका परिवार सहित सबकुछ नष्ट हो गया। 

दुर्योधन पांडवों के प्रति किए गए दुर्व्यवहार को उचित मानता रहा, परिणाम स्वरुप महाभारत का युद्ध हुआ, जन धन की क्षति हुई और उसके सभी भाई मृत्यु को प्राप्त हुए। 

कैकई एक ज्ञानी महिला थी, भगवान राम के प्रति उसके मन में अगाध स्नेह था, लेकिन विधि के विधान अनुसार उसके साथ कुछ विपरीत घटित होने वाला था इसलिए उसने राम के लिए चौदह  वर्ष का वनवास मांग लिया और परिणाम स्वरुप अपने लिए कष्टों का पहाड़ खड़ा कर लिया।

इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति को जीवन में दुख मिलना होता है, तो ईश्वर उसको इस प्रकार की बुद्धि दे देते हैं, जिससे वह खराब बात को भी, सदाचरण के विपरीत कृत्य को भी, अच्छा और उसके हित में है, ऐसा सोचने लगता है और फिर उसका दुष्परिणाम भुगतता है। 

Thursday, 13 October 2016

(1.1.22) Dohe of Bihari / बिहारी के दोहे / Bihari ke Dohe

Bihare ke Dohe / Dohe of Bihari / Kavi Bihari Ke Dohe / बिहारी के दोहे       

बिहारी के नीतिपरक दोहे उनकी लौकिक, व्यवहारपटुता और पर्यवेक्षण-शक्ति के परिचायक हैं। बिहारी के काव्य में भाव और भाषा का मणि-काञ्चन योग है। 
(१) कनक-कनक तै सौ गुनो, मादकता अधिकाइ। 
उहिं खायें बौराइ नर, इहिं पायें बौराइ।। 
(२) नर की अरु नल नीर की, गति एकै करि जोइ। 
जेतौ नीचौ ह्वै चलै, तेतौ ऊँचौ होइ।।
(३) बढ़त-बढ़त सम्पति सलिल, मन सरोज बढ़ि जाइ। 
घटत-घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ।।
(४) मीन न नीति गलीतु ह्वै, जौ धरियै धनु जोरि। 
खाएैं खरचैं जौ जुरै, तौ जोरियै  करोरि।।   
(५)चटक न छौंडत घटत हूँ, सज्जन नेह गंभीरु। 
फीकौ परै न बरु फटै, रैंग्यौ चोल रँग चीरु।।
(६) कोटि जतन कोउ करौ, परै न प्रकृतिहिं बीच। 
नल-बल जल ऊँचैं चढैं, अंत नीच कौ नीच।।   

Sunday, 2 October 2016

(1.1.21) Prarthana - Urja ka Srot /ऊर्जा का शक्तिशाली स्रोत है , प्रार्थना

Prarthana kee shakti /ऊर्जा का शक्तिशाली स्रोत है , प्रार्थना / Prayer is the source of energy

प्रार्थना मानसिक  ऊर्जा का शक्तिशाली स्रोत है।यह ऊर्जा व्यक्ति को उसके जीवन में आने वाली अवांछित स्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करती है। कभी - कभी आपकी समस्याएं ऐसी होती है कि आप अपने घनिष्ठ सम्बन्धी या मित्र से भी उनका उल्लेख नहीं करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रार्थना ही एक मात्र समाधान है। प्रार्थना के माध्यम से आप  अपनी समस्या को शब्दों के रूप में प्रकट कर सकते हैं। प्रार्थना से आपमें यह भावना विकसित होती है कि आप अपनी समस्या का सामना करने के लिए अकेले नहीं हैं। जब आप प्रार्थना करते हैं, तो आप उस अक्षय प्रेरक शक्ति से सम्बन्ध जोड़ लेते हैं जो इस संसार को बांधे रखती है।
प्रार्थना करने के लिए सामान्य बातें  -  
1.थोड़े समय के लिए शांत होकर अकेले बैठें। अपनी व्यक्तिगत बातों या समस्याओं की तरफ से ध्यान हटा कर ईश्वर व दिव्य शक्ति पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। ईश्वर के बारे में स्वाभाविक तरीके से सोचें  और चिंतन करें।
2.  ईश्वर से सहज और स्वाभाविक तरीके से बात करो। इस के लिये औपचारिक शब्दों की आवश्यकता नहीं है। अपनी सहज भावना का प्रयोग करो।
3.अनुभव करो कि ईश्वर आपके पास हैं, वे आपकी  सहायता कर रहे हैं और आपको आशीर्वाद दे रहे हैं।
4.जो आप चाहते हैं, उसे ईश्वर से मांगे लेकिन साथ ही यह भी कहे कि जो ईश्वर की इच्छा होगी वही आपकी इच्छा बनेगी।
5.अच्छा से अच्छा और दृढ़ता पूर्वक कुछ कर पाने हेतु ईश्वर  से प्रार्थना करो, लेकिन परिणाम ईश्वर पर छोड़ दो।
6. जब आप प्रार्थना करें तो सकारात्मक सोच रखें।  
7. विश्वास रखो कि ईश्वर द्वारा आपकी प्रार्थना स्वीकार की जाएगी।
8. ध्यान रखो , जो आप के लिए असंभव है, वह ईश्वर के लिए संभव है।

Wednesday, 28 September 2016

(1.1.20) Adhyatmikata ke liye 8 Kadam / Eight steps for Spirituality

Eight steps for Spirituality / आध्यात्मिकता के लिए आठ कदम 

इस आपधापी के युग ने जो भौतिक साधनों से संपन्न है तथा जिसने मनुष्य का यंत्रीकरण कर उसकी सोच को  भौतिकवादी बना दिया है। परिणामस्वरूप व्यक्ति अति महत्वकांक्षी बन गया है। यद्यपि महत्वाकांक्षा   का अपना महत्व है तथा उच्च महत्वाकांक्षा रखना उन्नति का प्रतीक है। परन्तु आधुनिक   व्यक्ति अति महत्वकांक्षी होते जा रहे हैं। देखा-देखी लम्बी छलांग लगाने का प्रयास करते हैं और असफल होते हैं। महत्वाकांक्षा की पूर्ति और उसके लिए किये गए प्रयास तथा आवश्यक साधन के बीच तालमेल होना आवश्यक है और इससे बढकर बात है महत्वाकांक्षा की पूर्ति नहीं होने पर लगने वाले मानसिक आघात को सहन करने की क्षमता का होना। एक अन्य कमी जो वर्तमान में देखने को मिलती है वह है महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए छोटा रास्ता अपनाना जबकि सफलता एक निश्चित मार्ग का अनुकरण करके ही प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए संकल्प, दृढ इच्छाशक्ति व ठोस सकारात्मक कार्य योजना की आवश्यकता है, जिसे आध्यात्मिक उपायों से ही प्राप्त किया जा सकता है। निम्नांकित आध्यात्मिक कदम अपना कर मानसिक शांति और सफलता प्राप्त की जा सकती है :-
- आओ, ईश्वरप्रदत्त दिव्य शक्तियों का प्रवाह अपने भीतर अनुभव करें।
- आओ, प्रकाश की ओर चलें।
- आओ, अपना उद्धार स्वयं करें।
- आओ, जहाँ खड़े हैं उस स्थान से आगे बढ़ें।
- आओ, स्वयं पर विश्वास करें।
-आओ, जीवन के सुख-दुःख दूसरों के साथ बाटें।
- आओ, अभावों और कठिनाइयों को सफलता की सीढियां बनायें।
- आओ, सकारात्मक सोच के साथ एक प्रफुलित और शुभ आशाओं से परिपूर्ण जीवन जीयें।

Tuesday, 27 September 2016

(1.1.19) Karm - Sanchit, Praarabdh aur Kriyamaan Karm

Karm kitane prakaar ke  hote hain / teen praakaar ke karm तीन प्रकार के कर्म 

कर्म तीन प्रकार के होते हैं - संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण।
क्रियमाण कर्म - अपनी इच्छा से जो शुभ या अशुभ नवीन कर्म किये जाते हैं , वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।वर्तमान में किये जाने वाले या होने वाले कर्म क्रियमाण कर्म होते हैं। चूँकि मनुष्य का जीवन वर्तमानकाल है, इसलिए उसके जीवन काल में जो भी कर्म किये जाते हैं, वे सब कर्म क्रियमाण कर्म हैं।  
संचित कर्म - अनेक जन्मों से लेकर अब तक किये गए सुकृत-दुष्कृतरूप कर्मों के संस्कार समूह, जो हमारे अंतःकरण में संगृहीत हैं,वे संचित कर्म कहलाते हैं।
प्रारब्ध कर्म - पाप -पुण्य रूप संचित का कुछ अंश जो किसी एक जन्म में सुख -दुःख फल भुगताने के लिए सम्मुख हुआ है, वह प्रारब्ध कर्म कहलाता है।अर्थात प्रारब्ध कर्म वे कर्म हैं जो गत जन्मों में किये गए हैं तथा उनका फल इस जन्म में भोगना है। 

Tuesday, 30 August 2016

(1.1.17) Subhashitani

Subhashitani /सुभाषितानि 

(१) विवेक पूर्ण कार्य का परिणाम 

सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः। 

ज्ञाना ज्ञान विशेषातु मार्गामार्ग प्रवृत्तयः। 

अर्थ :- सभी प्राणी सुख की कामना करते हैं और उनकी मनोवृत्ति भी सुख पाने की होती है पर जो मनुष्य विवेक से युक्त होकर करने योग्य कार्य करता है , वह सुखकारी मार्ग में रहता है अर्थात सुख पाता है। तथा जो विवेकहीन होकर नहीं करने योग्य कार्य करता है वह दुःख का भागी होता है।
(२) स्वर्ग कहाँ है ?
यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्यां छन्दानुगामी। 
विभवे यश्च संतुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि।। (चाणक्य निति २/३ )
अर्थ :- जिसका पुत्र अपने वश में हो , स्त्री आज्ञाकारिणी हो तथा जिसे अपनी उपलब्ध सम्पत्ति  पर संतोष हो , उसके लिये यहीं स्वर्ग है।
(3) दान की तीन गतियाँ 
दानं भोगो नाशस्तित्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य। 
यो न ददाति न भुंक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।। (भर्तृहरि नीतिशतक )
अर्थ - दान देना, उपभोग करना और नष्ट होना - धन की ये तीन गतियाँ होती हैं। जो न तो दान देता है और न ही धन का उपभोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है अर्थात वह धन नष्ट हो जाता है। 

(1.1.16) Rahim ke Dohe ( in Hindi) Dohe of Rahim (in Hindi )

Rahim ke Dohe with Hindi Meaning / रहीम के दोहे हिंदी में 

रहीम के बारे में संक्षेप में जानकारी :-
(१) रहीम का पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना है।
(२) पिता का नाम - बैरम खाँ
(३) जन्म स्थान - लाहौर
(४) जन्म - सन 1556 ई.
(५) वे भारतीय संस्कृति के उपासक थे।
(६) वे अरबी,फ़ारसी, तुर्की, हिंदी और संस्कृत के विद्वान थे।
(७) रहीम के दोहे सरलता और अनुभूति की मार्मिकता के लिये प्रसिद्द हैं।
(८) रहीम के दोहों में लोक व्यवहार, नीति ,भक्ति तथा अन्य अनुभूतियों समन्वय हुआ है।
रहीम के दोहे :-
(१) बिगरी बात बनै नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय।।
भावार्थ :- कवि रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार दूध के फट जाने(ख़राब हो जाने) के कारण उसके मथने पर उससे मक्खन नहीं निकलता है।  उसी प्रकार कोई बात (काम) बिगड़ जाये तो, उसे ठीक नहीं किया जा सकता चाहे कितना भी प्रयास क्यों न किया जाये।
(२) रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहाँ करै तलवारि।।
भावार्थ:- किसी बड़े व्यक्ति या ज्यादा महत्वपूर्ण वस्तु को पाकर किसी छोटे व्यक्ति या कम महत्त्वपूर्ण वस्तु का अपमान नहीं करना चाहिये। क्योंकि सभी अपनी-अपनी जगह पर महत्वपूर्ण होते हैं, जैसे सुई छोटी होती है और तलवार बड़ी होती है, परन्तु सिलाई करने के लिए सुई के स्थान पर तलवार का उपयोग नहीं किया जा सकता।
(३) रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनसे पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।
भावार्थ :- कवि रहीम कहते हैं कि किसी व्यक्ति का माँगने जाना, मरने के समान है अर्थात माँगना निम्न स्तर की बात है। परन्तु जो किसी के माँगने पर देने से मना करता है, यह बात (मना करना) उसके (मना करने वाले के) लिए माँगने से भी ज्यादा ख़राब है अर्थात माँगने से भी निम्न स्तर की बात है।
(४) बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। 
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।। 
भावार्थ :- यदि कोई व्यक्ति अपने पद, सामाजिक स्थिति या उम्र के कारण बड़ा हो लेकिन वह समाज के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं हो, दूसरे लोगों की सहायता नहीं करे, तो उसके बड़े होने का कोई लाभ नहीं है अर्थात उसका बड़ा होना व्यर्थ है। ऐसे  व्यक्ति की तुलना कवि ने खजूर के पेड़ से की है जो बड़ा तो है, परन्तु किसी राहगीर को उसकी छाया का लाभ नहीं मिल पाता है, और उसके लम्बे होने से उसके फल भी ऊंचे लगते हैं। अर्थात खजूर के पेड़ के बड़े होने का कोई उपयोग नहीं है।
(५) रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। 
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।। 
भावार्थ :- कवि रहीम कहते हैं कि प्रेम रुपी धागे को मत तोड़ो। यदि एक बार धागा टूट जाये तो वह फिर जुड़ता नहीं है। यदि टूटे हुए धागे को जोड़ा जाये तो उसमें गाँठ लग जाती है। प्रेम भी धागे के समान है। यदि एक बार प्रेम टूट जाये ,तो उसे फिर से जोड़ने पर पहले जैसी प्रगाढ़ता नहीं आती है।

Wednesday, 30 March 2016

(1.1.15) Yaksh Ke Prashna aur Yudhishtir ke Uttar (in Hindi )

Yaksh Prashna यक्ष के प्रश्न और युधिष्ठिर के उत्तर 

पांडवों के वनवास की अवधि पूरी होने वाली थी।  एक दिन पांचों भाई ( युधिष्ठिर , अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव ) एक पेड़ के नीचे बैठे हुए थे।  उन्हें प्यास लगी। युधिष्ठिर ने  एक-एक करके सभी भाइयों को पास के जलाशय से पीने का पानी लाने हेतु भेजा।  लेकिन उनमें से कोई भी लौट कर नहीं आया।  युधिष्ठिर स्वयं सरोवर तक गये. उन्होंने वहां अपने भाइयों को मरे हुए देखा। तीव्र प्यास के कारण वे पानी पीने के लिए तालाब में उतरे. तभी उन्हें किसी की चेतावनी से भरी हुई वाणी  सुनाई दी - " यह सरोवर मेरा है।  मेरे प्रश्नों के उत्तर दिए बिना पानी मत पीओ।" युधिष्ठिर ने स्थिति को समझ लिया और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए सहमत हो गए। तब यक्ष ने निम्नांकित  प्रश्न पूछे - 


1.  "मनुष्य को खतरे से कौन बचाता  है?' 
" साहस मनुष्य को खतरे से बचाता है।"
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2. "किस विज्ञानं के अध्ययन से व्यक्ति बुद्धिमान बनता है ?" 
"किसी विज्ञान या शास्त्र के अध्ययन से व्यक्ति बुद्धिमान  नहीं बनता है। व्यक्ति, बुद्धिमान व्यक्तियों के संसर्ग में रहकर बुद्धि प्राप्त करता हैऔर बुद्धिमान बनता है।"
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3. "भूमि से अधिक भार को सहन करने वाला कौन है ?"

"संतान को कोख में धरने वाली माता पृथ्वी से भी अधिक भार वहन  करती है।"
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4.  "आकाश से ऊँचा क्या है ?
  
"पिता।"  
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5.  "हवा से भी तीव्र चलने वाला कौन है ?"
"मन।"
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 6.  "यात्री का साथी कौन होता है ?"   
 "ज्ञान।"
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7. "घर में रहने पर मनुष्य का साथी कौन होता है ?"  

"उसकी पत्नी।"  
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8. "मृत्यु के बाद व्यक्ति के साथ कौन जाता है ?" 
"केवल धर्म  ही मृत्यु के बाद मनुष्य के साथ जाता है।"
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9. "प्रसन्नता क्या है ?" 

"प्रसन्नता सुआचरण का प्रतिफल है।"
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10. "किस के छूट जाने पर मनुष्य सर्वप्रिय बनता है ?"  

"अहं भाव से उत्पन्न गर्व के छूट जाने से मनुष्य सर्वप्रिय बनता है।"
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11. "किस वस्तु  के खो देने से व्यक्ति प्रसन्न होता है, न कि दुखी ?"  
  
"क्रोध के खो जाने से मनुष्य प्रसन्न व सुखी होता है।"
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12. " किस वस्तु के त्यागने से व्यक्ति धनवान बनता है ?"   

"लालच या लालसा के त्यागने से व्यक्ति धनवान बनता है।" 

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13. "किसी का ब्राह्मण होना किस बात पर निर्भर करता है ? उसके जन्म पर , उसके सद आचरण पर या विद्या पर ?"  

"जन्म या विद्या के कारण ब्राह्मणत्व प्राप्त नहीं होता है। ब्राह्मणत्व तो सदआचरण ( शील स्वभाव) पर ही निर्भर करता है।"   

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14. "इस संसार में सबसे बड़े आश्चर्य की बात क्या है ?" 

"प्रति दिन आँखों के सामने कितने ही प्राणियों को मृत्यु के मुँह में जाते देख कर भी बचे हुए प्राणी चाहते हैं कि वे अमर रहें ,यही महान आश्चर्य की बात है।"  
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युधिष्ठिर के द्वारा दिए गए प्रश्नों से यक्ष प्रसन्न हुआ और उसने सभी भाइयों को पुनर्जीवित कर दिया।  

Saturday, 26 March 2016

(1.1.14) Giridhar ki Kundaliyan (with Hindi translation)

Giridhar ki Kudaliyan in Hindi with meaning गिरिधर की कुण्डलियाँ हिंदी अर्थ सहित 

गिरिधर  की कुण्डलियाँ  और अन्योक्तियॉ लोक की कण्ठहार है।   इनमें सम्यक् जीवन - यापनके गुर , कंटकाकीर्ण जीवन - यात्राको सफल बनानेके विधि - निषेध सटीक दृष्टांतों सहित लक्षित होते हैँ । इनकी लोकनीतिपरक ये कुण्डलियाँ व्यक्तिको प्रमाद स्खलन और जगत - व्यवहार के कुचालों  के विरुद्ध सावधान करती हैं  और उसे सत्पथका निर्देश भी करती हैं।  जीवन में क्या काम्य - अकाम्य , वांछनीय - अवांछनीय , श्रेयस्कर एव त्याज्य है; गिरिधर की कुंड़लियाँ इनकी निर्दशिका है।  उदाहरणार्थ कुछ कुण्डलिया प्रस्तुत हैँ  -
साईं बैर न कीजिये , गुरू पंडित कवि यार।
बेटा बनिता पवरिया , यज्ञ करावनहार।
यज्ञ करावनहार राजमंत्री जो होई ।
विप्र , परोसी , वैद्य  आपको तपै  रसोई।
कह गिरिधर कविराय , युगनते यह चलि आई।
इन तेरह सों  तरह दिये बनि आवै साईं।
अर्थ - कवि गिरिधर के अनुसार  इन तेरह लोगोंसे कभी वैर नही बाँधना चाहिये - गुरु , विद्वान् , कवि , संगी - साथी , पुत्र , पत्नी , द्वारपाल , यज्ञ करानेवाला पुरोहित , राजमंत्री , ब्राह्मण , पडोसी , वैद्य और रसोई बनाने वाला।
साईं सब संसार में मतलब का व्यवहार।
जब लग पैसा गाँठ में, तब लग ताको यार।
तब लग ताको यार संगही संग में डोलें।
पैसा रहा न पास , यार मुख से नहिं बोलें।
कह गिरिधर कवि राय जगत यहि लेखा भाई।
बिनु बेगरजी प्रीति यार विरला कोई साईं।
अर्थ - कवि गिरिधर कहते हैं - दुनियाँ का सारा व्यवहार मतलब का है।  मित्र तभी तक साथ देता है और पीछे -पीछे घूमता है, जब तक उसका मतलब सधता है।  पैसा पास नहीं रहने पर वह मुँह से भी नहीं बोलता है।  दुनियाँ का यही नियम है।  निस्वार्थ प्रीति करने वाला तो कोई विरला ही देखा गया है। 

Thursday, 24 December 2015

(1.1.13) Vidur Neeti in Hindi / Vidur ke Quotations in Hindi

Vidur Neeti  विदुर नीति / विदुर के कॉटेसन (हिंदी में )

भागवत धर्म को जानने वालों में महात्मा विदुर जी कास्थान सर्वोपरि है। वे परम बुद्धिमान , प्रज्ञा शक्ति से संपन्न तथा महान योग बल से प्रतिष्ठित थे। महामति विदुर धृतराष्ट्र और पाण्डु के लघु भ्राता थे। इनके द्वारा रचित 'विदुरनीति' एक प्रामाणिक नीति ग्रन्थ माना जाता है।
(1) जलती हुई आग से सोने की पहचान होती है , सदाचार से सत्पुरुष की , व्यवहार से साधु की , भय आने पर शूर की , आर्थिक कठिनाई में धीर की, और कठिन  आपत्ति में शत्रु और मित्र की परीक्षा (पहचान) होती है।(3/49)
(2 ) शुभ कर्मों से लक्ष्मी की उत्पत्ति होती है , प्रगल्भता से वह बढती है ,चतुरता से जड़ जमा लेती है और संयम से सुरक्षित रहती है।(3/51)
(3) ये आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं :- बुद्धि , कुलीनता , दम ,शास्त्र ज्ञान, पराक्रम , बहुत नहीं बोलना , यथा शक्ति दान देना और कृतज्ञ होना। (3/52)
(4) देवता चरवाहों की तरह डण्डा लेकर पहरा नहीं देते हैं। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं,उसे उत्तम बुद्धि से युक्त कर देते हैं। (3 /40)
(5) घोर जंगल में ,दुर्गम मार्ग में ,कठिन आपत्ति के समय , घबराहट में और प्रहार के लिए शस्त्र उठे रहने पर भी मनोबल सम्पन्न पुरुष को कोई भय नहीं होता है। (7 /67)
(6) उद्योग , संयम , दक्षता , सावधानी , धैर्य , स्मृति और सोच विचारकर कार्य आरम्भ करना -इन्हें उन्नति का मूल मन्त्र समझिये। (7 /68 )
(7) बोलने से नहीं बोलना अच्छा बताया गया है किन्तु सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है, यानि मौन की अपेक्षा भी दुगना लाभप्रद है। सत्य भी यदि प्रिय बोला जाये तो यह तीसरी विशेषता है और वह भी यदि धर्म सम्मत कहा जाये तो वह वचन की चौथी विशेषता है। (4 /12)
(8) जो सबका कल्याण चाहता है , किसी के अकल्याण की बात मन में नहीं लाता है , जो सत्य वादी है , कोमल और जितेन्द्रिय है , वह उत्तम पुरुष माना गया है। (4 / 16)
(9) जो झूठी सांत्वना नहीं देता है , देने की प्रतिज्ञा करके दे ही डालता है , दूसरों के दोषों को जानता है , वह मध्यम श्रेणी का पुरुष है। (4 / 17 )
(10) जो अपने ही ऊपर संदेह होने के कारण दूसरों से भी कल्याण होंने  का विश्वास नहीं करता है , मित्रों को भी दूर रखता है , अवश्य ही वह अधम पुरुष है। (4 /19)

Monday, 30 November 2015

(1.1.12) Brahamakumaris Quotations in Hindi

 Brahamakumaris Quotations ब्रह्मा कुमारीज कोट्स (हिन्दी में )

(1) संतुष्टता व ख़ुशी साथ - साथ रहते हैं। इन गुणों से दूसरे ( गुण व व्यक्ति ) आपकी ओर स्वत: ही आकर्षित होंगें।
(2) जीवन एक नाटक है, यदि हम इसके कथानक को समझ लें तो सदैव प्रसन्न रह सकते हैं।

(3) यदि मैं एक क्षण खुश रहता हूँ, तो इससे मेरे अगले क्षण में भी खुश होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

(4) दुखों से भरी इस दुनियां में वास्तविक सम्पत्ति , धन नहीं, संतुष्टता है।

(5) विकट समस्याओं का आसान हल ढूंढ़ निकलना सबसे मुश्किल काम है।

(6) अगर आप हर कार्य ख़ुशी से करें तो कोई भी कार्य मुश्किल नहीं लगेगा।

(7) जो भविष्य है ,  वह अब हो रहा है, और जो अब हो रहा है वह अतीत बनता जा रहा है, तो चिंता किस लिए की जाये।

(8) यदि मैं अपने प्रयासों का फल प्राप्त करने के लिए बेचैन  हूँ, तो यह कच्चा फल खाने की इच्छा के समान है।

(9) यदि आप दूसरों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि आप वह हैं , जो कि  आप नहीं हैं, तो मूर्ख कौन बना ?

(10) सफलता मन की शीतलता से उत्पन्न होती है। ठंडा लोहा ही गर्म लोहे को काट  व मोड़  सकता है।

(11) जन्म का अंत है मृत्यु , और मृत्यु का अंत है जन्म।

(12) यदि आप को अपने ही अन्दर शांति नहीं मिल पाती,  तो भला इस विश्व में कहीं और कैसे पा  सकते हैं।

(13) जब हम क्रोध की अग्नि में जलते हैं, तो इसका धुँआ हमारी ही आँखों में जाता है।

(14) जहाँ बुद्धि प्रयोग करने की आवश्यकता है ,वहाँ  बल प्रयोग करने से कोई लाभ नहीं होता है।

(15) मूर्ख व्यक्ति कभी संतुष्ट नहीं हो सकता, जबकि बुद्धिमान व्यक्ति की सबसे बड़ी पूँजी संतुष्टता  ही है।

(16)  दूसरों की सफलता के प्रति भी उतना ही उत्साह दिखाएँ, जितना आप अपनी सफलता के प्रति दिखातें हैं।

(17) महान  कार्य करने के लिए उमंग और उत्साह को अपना साथी बनाइये।

(18) यदि हम भविष्य के बारे में भय भीत हो जायेंगें , तो वर्तमान में प्राप्त अवसरों को खो देंगे।

(19) दूसरों की गलती सहन करना एक बात है, परन्तु उन्हें माफ़ कर देना और भी महान बात है।

(20) यदि हम अपनी प्रशंसा व ख्याति सुनकर फूले नहीं समाते, तो निंदा व अपमान में भी  हम संतुलित नहीं रह सकेंगें।

(21) दो बातें हैं - कर्म तथा कर्म का प्रभाव। कर्म भले ही साधारण हो परन्तु इसका प्रभाव सकारात्मक, उत्पादक व रचनात्मक होना चाहिए।

(22) यदि मन में दृढ निश्चय व विश्वास है तो विजय निश्चित है। अगर संकल्प कमजोर है तो पराजय होगी।

(23) अपने मार्ग में आने वाले किसी भी विघ्न  से घबरायें नहीं। हर विघ्न को उन्नति की ओर ले जाने वाली सीढ़ी समझें।

(24) आपकी नियंत्रण शक्ति इतनी सशक्त होनी चाहिए कि एक समय में आप के मन में सिर्फ वही संकल्प उत्पन्न हों जो आप चाहते हैं, न अधिक, न कम।

(25)  हम सभी को समस्याओं का सामना करना पड़ता है परन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि हम सभी इनका सामना किस ढंग से करते हैं।

(26) जो मैं अब अनुभव कर रहा हूँ, वह अतीत का फल है, भविष्य में जो अनुभव करूँगा वह इस बात पर निर्भर करता है कि मैं अब क्या कर रहा हूँ।

(27)  कुछ लोग इसलिए परिपक्व नहीं बन पाते क्योंकि उन्हें भय होता है कि कहीं वे वृद्ध न हो जायें, और कुछ इसलिए क्योंकि वे जिम्मेदारी लेने से मना कर देते हैं।

(28) पहाड़ जैसी विपत्ति को दूर करने के लिए सिर्फ थोडा सा साहस ही पर्याप्त है।

(29) विपत्ति आने पर हिम्मत बनाये रखना ही सब से अच्छा उपाय है।

(30) जीवन में सबसे बड़ा प्रश्न है - मृत्यु। और मृत्यु का उत्तर है - जीवन।

(31) यदि आप को दूसरों की प्रतीक्षा करने की आदत है, तो आप अवश्य ही पीछे रह जायेंगें।

(32) ज्ञान सबसे बड़ा धन है। स्वयं से पूछें - " मैं कितना धनवान हूँ ? "

(33) अधिक सांसारिक ज्ञान अर्जित करने से आप में अहंकार आ सकता है परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान जितना अधिक अर्जित करते हैं, उतनी ही नम्रता आती है।

(34) यदि आतंरिक स्थिति अशांति की होगी, तो सभी बाह्य चीजों में गड़बड़ी मालूम पड़ती है।

(35) यदि आप गलती करके स्वयं को सही सिद्ध करने का प्रयास  करते हैं तो समय आपकी मूर्खता पर हँसा करेगा।

(36) अपने सहज स्वाभाविक स्वरूप में रहिये, यह कुछ और होने का स्वांग करने से कहीं अधिक अच्छा है।

(37)यदि आप के संकल्प शुद्ध हैं, तो जो आप सोचते हैं , वह कहना तथा जो आप कहते हैं, वह करना, सरल हो जाता है।

(38) यदि आप गपोड़ शंख लोगों के साथ सहमत हो जाते हैं, तो उनकी निंदा के अगले पात्र आप ही होंगे।

(39) आप समस्या स्वरुप नहीं , समाधान स्वरूप बनो और बनाओ।

(40)जो सदा संतुष्ट है , वही सदा हर्षित एवं आकर्षण मूर्त हैं।

(41) यह संसार हार जीत का खेल है, इसे नाटक समझ कर खेलो।
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Friday, 20 November 2015

(1.1.11) Geeta ki Shiksha गीता की शिक्षा Teachings of Geeta / Geeta saar

Geeta kee Shiksha गीता की शिक्षा Teachings of Geeta

1. संदेह नकारात्मक भाव उत्पन्न करता है। जो व्यक्ति संशय रखता है , वह सुखी नहीं हो सकता है।
2. आत्मा अमर है। आत्मा न मारती है , न ही मारी जाती है।  (आत्मा न मरती है , न किसी को मारती है )
जिस प्रकार व्यक्ति पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र पहनता है , उसी प्रकार शरीर धारण की हुई आत्मा शरीररूपी पुराने वस्त्र को त्याग देती है और नया शरीर धारण कर लेती है।
यदि कोई व्यक्ति यह मानता है कि आत्मा जन्म लेती है और फिर मर जाती है तब भी उसे शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि जिसने जन्म लिया है , उसकी  मृत्यु निश्चित है। इसलिए हमें इस अपरिहार्य स्थिति पर शोक नहीं करना चाहिए।
(3) कार्य संसार को चलायमान रखता है , बिना कार्य किये नहीं रहा जा सकता है। हमारा निर्धारित कार्य करना हमारा कर्तव्य है , परन्तु साथ ही हमें इस किये गए कार्य के फल की आशा भी नहीं रखनी चाहिए क्योंकि किसी भी कार्य का फल हमारे अधीन नहीं है। साथ ही निर्धारित कर्म न करने की इच्छा रखना भी उचित नहीं है क्योंकि कर्म अपरिहार्य है।
(4) जिसका मन दुःख की स्थिति में भी क्षुब्ध नहीं होता है , जो प्रसन्नता की कामना नहीं करता है , जो आसक्ति , भय और क्रोध से मुक्त है , हर चीज़ से आसक्ति रहित है , जिसे अच्छाई और बुराई की स्थिति में न तो प्रसन्नता होती है और न ही अप्रसन्नता होती है , वह स्थिर बुद्धि वाला है।
(5) जो व्यक्ति कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है अर्थात जो कर्म और अकर्म के प्रति आसक्ति रहित है  वही बुद्धिमान है , और वह योगी सम्पूर्ण कर्मो को करने वाला  है।
(6) जो व्यक्ति जो कुछ भी प्राप्त हो , उससे संतुष्ट रहने वाला है , (और) जो इर्ष्या  रहित है , द्वंद्वो से मुक्त है , जो सफलता तथा असफलता में संतुलित है , कर्मों को करता हुआ भी उनसे बंधा हुआ नहीं है वही व्यक्ति सम्पूर्ण कर्म का वास्तव में कर्ता  है।
(7) जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की  आकांक्षा करता है , तथा न ही कार्य के फल की आशा करता है , वही हमेशा सन्यासी ( त्यागी ) समझने योग्य है , क्योंकि राग- द्वेष आदि द्वद्वों  से रहित हुआ पुरुष सुख पूर्वक संसार रूपी बंधन से मुक्त हो जाता है। 
(8) जो पुरुष न कभी हर्षित होता है , न द्वेष करता है , न शोक  करता है , न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल के प्रति उदासीन है ( फल को त्यागता है ) वही भक्ति युक्त पुरुष ईश्वर को प्रिय है।
(9) जो पुरुष शत्रु व् मित्र के प्रति समान भाव रखता है , जो मान व अपमान को समान समझता है , जो सर्दी-गर्मी , प्रसन्नता-अप्रसन्नता में संतुलित रहता है , जो आसक्ति रहित है , वह व्यक्ति जो निंदा-स्तुति को समान समझता है , जो बोलने से पूर्व मननशील है , स्वतः प्राप्त वस्तुओं से संतुष्ट रहता है , जो रहने के स्थान और जीवन के प्रति आसक्ति नहीं रखता है , अपने निश्चय में द्रढ़ रहता है , भक्ति युक्त कार्यों में लगा रहता है  , ऐसा व्यक्ति ईश्वर  को अति प्रिय है।
(10) बुद्धिमान ( गुणातीत ) पुरुष वह है जो सभी स्थितियों में समान रहता है और समभाव रखता है। यदि उसके सामने विपदा भी आती है तो वह हतोत्साहित नहीं होता है और यदि वह सम्पन्नता को प्राप्त करले तो भी गर्वित नहीं होता है। वह प्रिय और अप्रिय के प्रति समभाव रखता है। वह किसी भी कार्य के कर्तापन की भावना से मुक्त रहता है , ऐसा व्यक्ति कामना रहित होता है अतः उसे कुछ भी बाधित नहीं कर सकता है।
(11) जहाँ जहाँ भी कृष्ण ( विशुद्ध बुद्धि के प्रतीक ) और अर्जुन  (विशुद्ध कर्म का प्रतीक ) हैं , वहीं पर ही सम्पन्नता , श्रेष्टता , विजय , शक्ति और नीति (धर्म) है।
(12) जब जब और जहाँ जहाँ धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है , तब तब ईश्वर  धरती पर धर्म की पुनः स्थापना  करने के लिए अवतार लेते हैं।
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(1.1.10) चाणक्य नीति Chankya Niti / Teachings of Chankya

 Chanakya Niti (selected Shloks)चाणक्य नीति (चुने हुए श्लोक )
अध्याय -1 श्लोक -12
बीमारी में ,विपत्तिकाल में , अकाल   के समय ,दुश्मनो से दुःख पाने या आक्रमण होने पर , राजदरबार में और श्मशान भूमि में जो साथ रहता है. ,वही सच्चा भाई अथवा बंधु है।

अध्याय -1 श्लोक -13
जो अपने निश्चित कर्मो  अथवा वस्तु का त्याग करके , अनिश्चित की चिंता करता है ,उसका अनिश्चित लक्ष्य तो नष्ट होता ही है , निश्चित भी नष्ट हो जाता है।
अध्याय-2-श्लोक-5:-
जो मित्र प्रत्यक्ष रूप से मधुर वचन बोलता है और पीठ पीछे आपके सारे कार्यों में रोड़ा अटकाता हो ,ऐसे मित्र को उस  घड़े के समान त्याग देना चाहिए जिसके भीतर विष भरा हो और उपर मुँह के पास दूध भरा

अध्याय -2-श्लोक -9
हर एक पर्वत में मणि नहीं होती है और हर एक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होते हैं।इसी प्रकार साधु लोग सभी जगह नहीं  मिलते हैं,और हर एक वन में चन्दन के वृक्ष नही होते हैं।
अध्याय -3 श्लोक -1
संसार मे ऐसा कौन सा कुल अथवा वंश है ,जिसमें कोई न  कोई दोष अथवा अवगुण न हो ,प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी रोग का सामना करना ही पड़ता है ,ऐसा मनुष्य कौन सा है ,जिसने व्यसनों में पड़कर कष्ट न झेला हो और सदा सुखी रहने वाला व्यक्ति भी कठिनता से ही प्राप्त होता है ,क्योंकि प्रत्येक के जीवन में कभी न कभी कष्ट अथवा संकट उठाने का अवसर आ ही जाता है।
अध्याय - 3-श्लोक -4
दुष्ट व्यक्ति और सांप, इन दोनों में से किसी एक को चुनना हो तो दुष्ट व्यक्ति की अपेक्षा सांप को चुनना ठीक रहता है क्योंकि सांप समय आने पर ही काटता है जबकि दुष्ट व्यक्ति हर समय आपको हानि पहुँचाता है।
अध्याय -3-श्लोक-7
मूर्ख व्यकि से बचना चाहिए क्योंकि वह दो पैरों वाले जानवर से भिन्न नहीं है। वह (मूर्ख व्यक्ति )आपको शब्दों से उसी प्रकार पीड़ित करता है जैसे कोई बिना दिखने वाला कांटा चुभता है।
अध्याय -3-श्लोक-12
अत्यन्त रूपवती होने के कारण ही सीता का अपहरण हुआ ,अधिक अभिमान होने के कारण रावण मारा गया
अत्यधिक दान देने के कारण राजा बलि को कष्ट उठाना पड़ा।इसलिए चाणक्य कहते हैं की अति किसी भी कार्य में नहीं करनी चाहिए।
अध्याय -3-श्लोक-13
समर्थ को भार कैसा?व्यवसायी के लिए कोई स्थान दूर नहीं  है।विद्वान् व्यक्ति के लिए कोई भी देश विदेश नहीं है। जो व्यक्ति मधुर शब्द बोलता है उसके लिए कोई दुश्मन नहीं है।
अध्याय -3श्लोक -14
एक ही सुगन्धित फूल वाले वृक्ष से जिस प्रकार सारा वन सुगन्धित हो जाता है,उसी प्रकार एक सुपुत्र से सारा कुल सुशोभित हो जाता है।
अध्याय -3श्लोक -21
जहाँ मूर्खों का सम्मान नहीं होता है ,जहाँ अन्न भंडार सुरक्षित रहता है ,जहाँ पति -पत्नी में कभी झगड़ा नहीं होता ,वहां लक्ष्मी बिना बुलाये ही निवास करती है।
अध्याय -4-श्लोक -10
इस संसार में दुखी लोगों को तीन बातों से ही शांति प्राप्त हो सकती है -अच्छी सन्तान ,अच्छी पत्नी और भले लोगों की संगति।
अध्याय -4-श्लोक -18
बुद्धिमान व्यक्ति को बार -बार यह सोचना चाहिए कि उसके मित्र कितने हैं,उसका समय कैसा है -अच्छा है या बुरा है, और यदि बुरा है तो उसे अच्छा कैसे बनाया जाये।उसका निवास स्थान कैसा है,उसकी आय कितनी है ,वह कौन है ,उसकी शक्ति कितनी है अर्थात वह क्या करने में समर्थ है? व्यक्ति को ऐसा मनन करना चाहिए।
अध्याय -5-श्लोक-15
विदेश में विद्या ही मनुष्य की सच्ची मित्र होती है,घर में उसकी पत्नी उसकी मित्र होती है,दवाई रोगी व्यक्ति की मित्र होती है और मृत्यु के समय उसके सत्कर्म ही उसके मित्र होते हैं।
अध्याय -5श्लोक -17
बादल के जल के समान दूसरा कोई जल शुद्ध नहीं होता है,आत्मबल के समान दूसरा कोई बल नही है,नेत्र ज्योति के समान दूसरी कोई ज्योति नहीं है और अन्न के समान दूसरा कोई भी प्रिय पदार्थ नहीं है।
अध्याय -5-श्लोक -20
इस संसार में लक्ष्मी (धन )अस्थिर है अर्थात चलाय मान है,प्राण भी नाश वान है ,जीवन और यौवन भी नष्ट होने वाले हैं,इस चराचर संसार में धर्म ही स्थिर है।
अध्याय -6-श्लोक -16
काम छोटा हो या बड़ा हो ,उसे एक बार हाथ में लेने के बाद छोड़ना नहीं चाहिए।उसे पूरी लगन और सामर्थ्य के साथ पूरा करना चाहिए।जैसे सिंह पकड़े हुए शिकार को कदापि नहीं छोड़ता है।सिंह का यह गुण मनुष्य को सीखना चाहिए।
.अध्याय -6श्लोक -18
अत्यंत थक जाने पर भी बोझ को ढोना,ठंडे -गर्म का विचार न करना,सदा संतोष पूर्वक विचरण करना ,ये तीन बातें गधे से सीखनी चाहिए।
अध्याय -7-श्लोक -2
जो व्यक्ति धन धान्य के लेन देन  में, विद्या के सीखने में,भोजन के समय और अन्य व्यवहारों में संकोच नहीं करता है,वही व्यक्ति सुखी रहता है।
अघ्याय -7-श्लोक -4
अपनी पत्नी,भोजन और धन -इन तीनों के प्रति मनुष्य को संतोष रखना चाहिए ,परन्तु विद्या के अध्ययन ,तप और दान के प्रति कभी संतोष नहीं करना चाहिए।
अध्याय -8श्लोक -19
संसार में विद्वान् की ही प्रशंसा होती है ,विद्वान व्यक्ति ही सब जगह पूजे जाते हैं।विद्या से ही सब कुछ मिलता हैं ,विद्या की सब जगह पूजा होती है।
अध्याय -10-श्लोक -1
निर्धन व्यक्ति दीन हीन नहीं होता है यदि वह विद्वान् हो तो लेकिन व्यक्ति विद्या रूपी धन से हीन है तो वह निश्चित ही निर्धन समझा जाता है।अर्थात विद्या ही सच्चा  धन है।
अध्याय-10-श्लोक-2
भली प्रकार आँख से देखकर अगला कदम  रखना चाहिए,कपड़े से छानकर पानी पीना चाहिए ,शास्त्र के अनुसार कोई बात कहनी चाहिए और कोई भी कार्य मन में अच्छी प्रकार सोच कर करना चाहिए।
अध्याय -10-श्लोक -5
भाग्य की शक्ति बहुत प्रबल होती है।वह पल भर में ही निर्धन को राजा और राजा को निर्धन बना देती है।धनवान व्यक्ति निर्धन बन जाता है और  निर्धन के पास अनायास ही धन आ जाता है।
अध्याय -12-श्लोक-1
वही गृहस्थी सुखी  हो सकता है जिसके पुत्र और पुत्रियां प्रतिभावान हो ,जिसकी पत्नी मधुर वचन बोलने वाली हो,जिसके पास इच्छा पूर्ति के लायक धन हो, जिसके मन में अपनी पत्नी के प्रति प्रेम भाव हो ,जिसके सेवक आज्ञाकारी हो ,जिसके घर में अतिथि का सत्कार होता हो ,जहां प्रतिदिन इश्वर की पूजा होती हो ,जिस घर में स्वादिष्ट भोजन और ठंडा जल उपलब्ध रहता हो और जिस गृहस्थी को सदा भले लोगों की संगति मिलती हो।
इस प्रकार के घर का मालिक सुखी और सौभाग्यशाली होता  है।
अध्याय -12-श्लोक -3
वही व्यक्ति इस संसार में सुखी है जो अपने सम्बन्धियों के प्रति उदार है ,अपरिचितों के प्रति दयालु है ,दुष्टों के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है,भले लोगों के प्रति स्नेह पूर्ण व्यवहार रखता है,अकुलीन व्यक्ति के प्रति चतुराई का व्यवहार करता है,विद्वानों के प्रति सरलता से पेश आता है, दुश्मनों के साथ साहस का व्यवहार करता है ,बुजर्गो के प्रति विनम्रता का व्यवहार करता है, और जो महिला वर्ग के प्रति चतुराई का व्यवहार करता है। ऐसे लोगों से ही इस संसार की मर्यादा बनी हुई है।
अध्याय -13-श्लोक -6
भविष्य में आने वाली संभावित विपत्ति और वर्तमान में उपस्थित विपत्ति पर जो व्यक्ति तत्काल विचार करके उसका समाधान खोज लेते हैं,वे सदा सुखी रहते हैं।इस के अलावा जो व्यक्ति यह सोचते हैं  कि  जो भाग्य में लिखा है,वही होगा,ऐसा सोचकर कोई उपाय नहीं करते हैं,ऐसे व्यक्ति विनाश को प्राप्त होते हैं।
अध्याय -13-श्लोक -15
अव्यवस्थित कार्य करने वाले को न तो समाज में और न ही जंगल में सुख प्राप्त होता है,क्योंकि समाज में लोग उसे भला बुरा कहकर दुखी करते है और जंगल में अकेला होने के कार वह  दुखी होता है।
अध्याय -16-श्लोक -5
आज तक न तो सोने के मृग की रचना हुई और न ही किसी ने सोने का मृग देखा और सुना ।फिर भी श्री राम ने सोने के मृग को पाने की इच्छा की और मृग को पाने के लिए दौड़ पड़े।यह बात ठीक ही है कि जब मनुष्य के बुरे दिन आते हैं,तो उसकी बुद्धि विपरीत बातें सोचने लगती है।
अध्याय -16-श्लोक -6
मनुष्य अपने अच्छे गुणों के कारण श्रेष्ठता प्राप्त करता है।उसके उचें आसन पर बैठ जाने के कारण श्रेष्ठ नहीं  माना जाता है।राज भवन की सबसे ऊँची चोटी पर बैठ ने पर भी कौआ,गरुड़ कभी नही बन सकता।
अध्याय -16-श्लोक -8
जिस मनुष्य के गुणों की प्रशंसा दूसरे लोग करते हैं,तो वह मनुष्य गुणों से रहित होने पर भी गुणी मान लिया जाता है,परन्तु अपने मुख से अपनी बड़ाई करने पर इंद्र भी छोटा हो जाता है

(1.1.9) Good Company / Achchhi Sangati अच्छी संगति

Achchhi Sangati अच्छी संगति Good company 

> सज्जनों की संगति स्वर्ग में निवास करने के बराबर है।
चाणक्य
> जिसने शीतल तथा शुभ्र सज्जन संगति रुपी गंगा में स्नान कर लिया, उसको दान, तीर्थ, तप तथा यज्ञ आदि से क्या प्रयोजन?
वाल्मीकि
> हीन लोगों की संगति से अपनी बुद्धि भी हीन हो जाती है, सामान्य लोगों के साथ सामान्य बनी रहती है, और विशिष्ट लोगों की संगति विशिष्ट हो जाती है।
महाभारत
> परमेश्वर विद्वानों की संगति से ही प्राप्त हो सकता है।
ऋग्वेद
> बुरे आचरण वाला, पाप दृष्टि वाला, निकृष्ट स्थान पर रहने वाला और दुष्टों से मित्रता करने वाला मनुष्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
चाणक्य
> सज्जनों की संगति कभी विफल नहीं होती है।
महाभारत
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(1.1.8) Maniratna mala

Saturday, 17 October 2015

(1.1.8) Maniratna Mala मणिरत्न माला

मणिरत्न माला प्रश्नोत्तरी - आदि शंकराचार्यकृत

आदि शंकराचार्य जी महाराज ने भारतीय संस्कृति को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक प्रकार के कार्य किये हैं। आध्यात्मिक साहित्य की रचना उनका महत्वपूर्ण कार्य है।  उनकी एक पुस्तक है 'मणिरत्नमाला' जो प्रश्नोत्तर रूप में है इसलिए इसे प्रश्नोत्तरी भी कहा जाता है। उदाहरणार्थ कुछ प्रश्न और उत्तर नीचे दिए गए हैं -
प्रश्न - दरिद्र कौन है?
उत्तर - जिसकी तृष्णा बढी हुई है।
प्रश्न - श्रीमान (धनी) कौन है?
उत्तर -जो पूर्ण संतोषी है।
प्रश्न - जीवित ही कौन मरा हुआ है?
उत्तर - उद्यमहीन।
प्रश्न - उत्तम भूषण क्या है?
उत्तर - सच्चरिता।
प्रश्न - परम तीर्थ क्या है?
उत्तर - अपना विशुद्ध मन।
प्रश्न - प्राणियों का ज्वर क्या है?
उत्तर - चिंता?
प्रश्न - मूर्ख कौन है?
उत्तर - विवेकहीन।
प्रश्न - जगत को किसने जीता है?
उत्तर - जिसने मन को जीत लिया है।
प्रश्न - हीनता का मूल क्या है?
उत्तर - याचना।
प्रश्न - दुःख का कारण क्या है?
उत्तर - ममता।
प्रश्न - शत्रु कौन है?
उत्तर - उद्योग का अभाव।
प्रश्न - अँधा कौन है?
उत्तर - जो अकर्तव्य में लिप्त है।
प्रश्न - बहरा कौन है?
उत्तर -जो हित की बात नहीं सुनता।
प्रश्न - गूंगा कौन है?
उत्तर - जो प्रिय वचन बोलना नहीं जनता।
प्रश्न - अधम कौन है?
उत्तर -चरित्रहीन।
प्रश्न - जगत को जीतने में समर्थ कौन है?
उत्तर - सत्यनिष्ठ और सहनशील।
प्रश्न - शोचनीय क्या है?
उत्तर - धन होने पर भी कृपणता।
प्रश्न - यथार्थ दान क्या है?
उत्तर - कामनारहित दान।
प्रश्न - आभूषण क्या है?
उत्तर - शील।
प्रश्न - वाणी का भूषण क्या है?
उत्तर - सत्य।
प्रश्न - अविद्या क्या है?
उत्तर - आत्मा की स्पूर्ति का न होना।
प्रश्न - सुख दायक कौन है?
उत्तर - सज्जनों की मित्रता।
प्रश्न - प्रशंसनीय क्या है?
उत्तर - उदारता। 

Wednesday, 14 October 2015

(1.3.4) Ganesh Smaran / Pratah Smaran Ganesh Shlok

प्रातः स्मरण गणेश श्लोक

प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं 
सिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम्। 
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्ड दण्ड-
माखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्ध्यम्। 
अर्थ - अनाथों के बंधु, सिन्दूर से शोभायमान दोनों गण्डस्थल वाले, प्रबल विघ्न का नाश करने में समर्थ एवं इन्द्रादि देवों में नमस्कृत श्री गणेश का मैं प्रातः काल स्मरण करता हूँ।
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Monday, 12 October 2015

(1.1.7) Tulsi Das ke Dohe (Dohe of Tulsidas) in Hindi

Tulsi Das ke Dohe (तुलसीदास के दोहे ) हिंदी में

(For English translation CLICK HERE )
गोस्वामी तुलसीदास भारत के ऐसे संत महापुरुष हैं , जिनके आविर्भाव से भगवद्भक्ति की धारा प्रवाहित हुई है। उन्हें महान कवि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। उनके द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस नैतिक शिक्षा का आदर्श ग्रन्थ है।
> रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु। 
अजहुँ देत दुःख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु। 
(रामचरितमानस 1/170)
अर्थ - तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो, तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिये। जिस राहु का मात्र सर बचा था, वह राहु आज तक सूर्य और चन्द्रमा को दुःख देता है।
> सचिव, बैद, गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। 
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगहीं नास। 
(रामचरितमानस 5 /37)
अर्थ - मन्त्री, वैद्य और गुरु- ये तीन यदि किसी भय या आशा से (हित की बात नहीं कह कर) प्रिय बोलते हैं (ठकुर सुहाती कहने लगते हैं), तो (क्रमशः) राज्य,शरीर और धर्म - इन तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
> प्रीति, बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि। 
जौं मृगपति बध मेडु कन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि। 
(रामचरितमानस 6 /23 ग)
अर्थ - प्रीति और वैर बराबर वालों से ही करना चाहिये, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेंढकों को मारे तो क्या उसे कोई भला कहेगा?
> रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि। 
(रामचरितमानस 3 /21)
अर्थ - शत्रु, आग, रोग, पाप, स्वामी और सर्प को कभी छोटा नहीं समझना चाहिये।  समय पाकर ये सभी विनाश का कारण बन सकते हैं।
> मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ। 
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ।
(रामचरितमानस 2 /70)
अर्थ - जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ा कर उनका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है; नहीं तो जगत में जन्म लेना व्यर्थ ही है।
> गगन चढइ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा।
साधु असाधु सदन सुक सारीं।  सुमरहिं राम देहिं गनि गारीं।
(रामचरितमानस १/७/९-१० )
अर्थ - पवन के संग से धूल आकाश की ओर ऊँची चढ़ जाती है और वही धूल नीचे की ओर बहने वाले जल के संग से कीचड में मिल जाती है। संगति के प्रभाव से ही व्यक्ति उच्चता या निम्नता की स्थिति को प्राप्त होता है। इसी प्रकार साधु के घर पलने वाले तोता-मैना राम-राम का सुमिरन करते हैं और असाधु के घर पलने वाले तोता-मैना गिन -गिन कर गालियाँ देते हैं। यह सब अच्छी और बुरी संगति का परिणाम है।
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Sunday, 11 October 2015

(1.3.3) Shloks (Verses) to be recited in the Morning (in Hindi)

Benefits of the recitation of Shloks in the Morning (Pratah Kaleen Smaraniya Shloks) प्रातः कालीन स्मरणीय श्लोक तथा उनके लाभ 

निम्नांकित श्लोकों का प्रातः काल पाठ करने के लाभ निम्नानुसार हैं -
> दिन अच्छा बीतता है।
> दुःस्वप्न, कलिदोष, शत्रु, पाप, और भव के भय का नाश होता है।
> विष का भय नहीं होता।
> धर्म की वृद्धि होती है और ज्ञान प्राप्त होता है।
> व्यक्ति निरोगी रहता है।
> पूरी आयु मिलती है।
> कार्यों में सफलता मिलती है।
> सम्पन्नता आती है।
> सभी बाधाओं से छुटकारा मिलता है।
> सकारात्मक ऊर्जा का वातावरण निर्मित होताहै।
निम्नांकित श्लोकों का स्मरण करना चाहिए -
> गणेश स्मरण श्लोक
> विष्णु स्मरण श्लोक
> शिव स्मरण श्लोक
> देवी स्मरण श्लोक
> सूर्य स्मरण श्लोक
> त्रिदेवों केसाथ नव ग्रह स्मरण श्लोक
> ऋषि स्मरण श्लोक
> प्रकृति स्मरण श्लोक
(source - नित्य कर्म पूजा प्रकाश - गीता प्रेस गोरखपुर )

Friday, 9 October 2015

(1.3.2) Bhoomi Vandana

 Bhoomi Vandana (भूमि वन्दना )

करावलोकन के बाद निम्नानुसार भूमि वंदना करें :- 
 भूमि वंदना - करावलोकन के बाद शय्या से उठकर पृथ्वी पर पैर रखने से पूर्व पृथ्वी माता का अभिवादन करें और उन पर पैर रखने की विवशता के लिए उनसे क्षमा मांगते हुए निम्नांकित श्लोक का पाठ करें -

समुद्र वसने देवि पर्वतस्तन मण्डिते।
विष्णु पत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।

हिन्दी अर्थ :- समुद्र रूपी वस्त्रों को धारण करने वाली , पर्वत रूप स्तनों से मंडित भगवान विष्णु की पत्नी देवी पृथ्वी , आप मेरे पाद स्पर्श को क्षमा करें।
( पृथ्वी वन्दनाके बाद  निम्नांकित मंगल वस्तुओं में से सबके या कम से कम एक -दो  के दर्शन करें।) 

मंगल दर्शन - फिर गोरोचन , चन्दन , सुवर्ण ,शंख ,मृदंग ,दर्पण ,मणि आदि मांगलिक वस्तुओं का दर्शन करें तथा गुरु , अग्नि और सूर्य को नमस्कार करें।

(1.3.1) Karaavlokan Mantra (to keep away negative effects)

 करावलोकन मंत्र - सकारात्मक ऊर्जा निर्माण हेतु (Karavalokan - to create positive energy)

 प्रात: काल की शुरुआत आध्यात्मिक और सकारात्मक भावनाओं से होनी चाहिये। इसलिए जागने के उपरांत आप अपने हाथों की हथेलियों की तरफ देखें और निम्नांकित श्लोक का पाठ करें -
कराग्रे वसते लक्ष्मी:  कर मध्य सरस्वती।करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम।।

अर्थ - हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी , हाथ के मध्य में सरस्वती और हाथ के मूल भाग में ब्रह्मा जी निवास करते हैं। अत: प्रात: काल दोनों हाथों का अवलोकन करना चाहिये।
इस श्लोक के पाठ के बाद , दोनों हथेलियों को एक साथ रगड़िये और फिर इन्हें धीरे - धीरे आप के सिर , कन्धों , भुजाओं और टांगों पर फिराइये। इससे एक उर्जा रुपी ढाल निर्मित होती है जो पूरे दिन व्यक्ति को नकारात्मक प्रभावों से बचाये रखती है।