Thursday, 3 April 2025

(9.4.9) अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपंची संन्यासी Akarmanya Grihasth Aur Prapanchi Sanyasi Shobha Nahin Pate Hain (Vidur Niti)

अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपंची संन्यासी Akarmanya Grihasth  Aur  Prapanchi Sanyasi Shobha Nahin Pate Hain (Vidur Niti)

महात्मा विदुर महाभारत के प्रमुख पात्र थे। वे धर्मराज के अवतार थे। उन्होंने जीवन के व्यावहारिक पक्ष के बारे में बहुत कुछ कहा है। वे जो भी बात कहते थे, वह सभी के लिए हितकारी होती थी और वर्तमान समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी महाभारत काल में थी। उन्होंने एक श्लोक में बताया है कि कब और किस स्थिति में गृहस्थ और संन्यासी शोभा नहीं पाते हैं अर्थात वे कब और किस स्थिति में तिरस्कार व आलोचना के पात्र बन जाते हैं?

विदुर नीति के अनुसार अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपंच में लगा हुआ सन्यासी, ये दोनों ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते हैं और परिणाम स्वरुप आलोचना के पात्र बनते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि गृहस्थ अकर्मण्य कब कहलाता है और कौन सा सन्यासी प्रपंची कहलाता है?

गृहस्थ ही सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु है। एक सद्गृहस्थ सामाजिक व्यवस्था बनाए रखता है। वह अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करता है। वह व्यापार या कोई अन्य कार्य करके, धर्म सम्मत तरीके से धन का अर्जन करता है और अपने परिवार का पालन पोषण करता है, सामाजिक रीति रिवाज को पूरा करता है।

इसके विपरीत अपने कर्तव्य से विमुख और अपनी जिम्मेदारों से बचने या भागने वाला गृहस्थ अकर्मण्य कहलाता है। ऐसा अकर्मण्य व्यक्ति सर्दी या अधिक गर्मी का बहाना बनाकर अपने निर्धारित कार्य से जी चुराता है। आज के कार्य को कल पर टालकर, हो सकने वाले कार्य को भी पूरा नहीं करता है।

ऐसा अकर्मण्य गृहस्थ अपमान, तिरस्कार और आलोचना का पात्र बनता है।

जिस प्रकार गृहस्थ को शास्त्रीय कर्म, अनुष्ठान में लगे रहना चाहिए, उसी प्रकार सन्यासी को भी ज्ञान और वैराग्य के साथ संसार से विरक्त रहना चाहिए।

सांसारिक क्रियाकलापों को छोड़ना और मोह से छूटने का नाम सन्यास है। एक सच्चा सन्यासी संपूर्ण विश्व को अपना घर मानता है, सभी प्राणियों के प्रति अपनापन रखता है। वह कर्म और कर्म फल से लगाव नहीं रखता है।

इसके विपरीत जो सन्यासी संसार और सांसारिक वस्तुओं से लगाव रखता है, ज्ञान और वैराग्य से हीन है, धन संचय करने में लगा रहता है, लोगों को ठगने और षडयंत्र करने में लीन रहता है, वह प्रपंची कहलाता है।

इस प्रकार महात्मा विदुर की बात को संक्षेप में कहा जा सकता है कि अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपंची सन्यासी शोभा नहीं पाते हैं, सम्मान नहीं पाते हैं और आलोचना के पात्र बनते हैं।