सूर्यदेव ने गुरु दक्षिणा में
हनुमान जी से क्या मांगा? Suryadev Ne Guru Dakshina Me Hanuman Ji Se Kya Manga
इस संदर्भ में हनुमान अंक के पृष्ठ संख्या 254 पर एक कथा इस प्रकार
है -
हनुमान जी के शिक्षा प्राप्ति के लिये
निश्चित उम्र प्राप्त करने पर माता अंजना और पिता केसरी ने उनको शिक्षा प्राप्ति
के लिए गुरु गृह भेजने का निश्चय किया। इसलिए उन्होंने अत्यंत उल्लास पूर्वक
हनुमान जी का उपनयन संस्कार कराया और फिर उन्हें विद्या प्राप्ति के लिए गुरु के
चरणों में जाने की आज्ञा दी। किंतु वे किस सर्वगुण संपन्न और आदर्श गुरु के समीप
जाए? इस पर माता अंजना ने स्नेहपूर्वक
कहा कि बेटा सर्वशास्त्र मर्मज्ञ, समस्त लोकों के साक्षी भगवान सूर्य देव हैं।
इसलिए तुम उन्हीं के समीप जाकर श्रद्धापूर्वक शिक्षा ग्रहण करो।
फिर क्या था ? हनुमान जी ने माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया, उनका आशीर्वाद प्राप्त किया और
दूसरे ही क्षण वे आकाश में उछले और सूर्यदेव के पास पहुँच गए। उनके चरणों में सादर
प्रणाम किया। तब सूर्य देव ने पूछा कि बेटा यहाँ कैसे आये हो?
हनुमान जी ने अत्यंत विनम्र वाणी
में उत्तर दिया कि प्रभो, मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने पर मेरी माता ने मुझे आपके चरणों में विद्याध्ययन करने के लिए भेजा है। आप कृपा पूर्वक
मुझे ज्ञान प्रदान करें।
आदित्य बोले कि बेटा देख लो मेरी
बड़ी विचित्र स्थिति है। मेरा रथ निरंतर
चलता रहता है। रथ से उतरना भी मेरे लिए संभव नहीं है। ऐसी दशा में मैं तुम्हें शास्त्र
का अध्ययन कैसे करा पाऊँगा ? तुम ही सोच कर कहो कि क्या किया जाए?
भगवान दिवाकर ने ऐसा कहकर टालने का प्रयास किया। किंतु पवन
पुत्र ने विनम्रता से कहा, प्रभो, रथ के वेगपूर्वक चलने से मेरे अध्ययन में क्या बाधा पड़ेगी? मैं आपके सम्मुख बैठ जाऊंगा और रथ
के वेग के साथ ही आगे बढ़ता रहूंगा।
इस पर सूर्य देव ने हनुमान जी को शिक्षा प्रदान करने का निश्चय कर लिया। वे वेद आदि शास्त्रों
एवं समस्त विधाओं के रहस्य को जितनी शीघ्रता से बोल सकते थे, बोलते जाते थे। हनुमान जी शांत भाव से उन्हें सुनते जाते थे। आदित्य नारायण ने हनुमान जी को कुछ ही दिनों में समस्त वेद आदि शास्त्र, उपशास्त्र एवं विद्याएं सुना दी। सविधि विद्या अध्ययन हो गया और वे पूर्ण रूप से पारंगत हो गए।
शिक्षा की समाप्ति के पश्चात अत्यंत भक्ति पूर्वक अपने गुरु सूर्यदेव के चरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम कर अंजनानंदन ने हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना
की कि प्रभो, गुरु दक्षिणा के रूप में आप अपना अभीष्ट व्यक्त करें।
सर्वथा निष्काम सूर्यदेव ने उत्तर दिया कि मुझे तो कुछ
नहीं चाहिए, किन्तु यदि तुम मेरे अंश से उत्पन्न कपिराज बाली के छोटे भाई सुग्रीव की रक्षा
का वचन दे सको, तो मुझे प्रसन्नता होगी।
आपकी आज्ञा सिरोधार्य है, गुरुदेव। फिर हनुमान जी ने गुरु के सम्मुख
प्रतिज्ञा की कि मेरे रहते सुग्रीव का बाल भी बांका नहीं हो सकेगा; मैं प्रतिज्ञा करता हूं।
भगवान सूर्य देव ने कहा तुम्हारा
सर्वविध मंगल हो और ऐसा कहकर उन्होंने आशीर्वाद दिया। केसरी नंदन गुरुदेव के चरणों में पुनः साष्टांग
लेट गए।
शिक्षा ग्रहण करके परम विद्वान पवन कुमार ने गंधमादन पर्वत पर लौटकर अपने माता-पिता के चरणों पर मस्तक रखा। माता-पिता के हर्ष की सीमा नहीं थी। उस दिन उनके यहां ऐसा अद्भुत उत्सव मनाया गया कि गंधमादन पर्वत पर हर्ष और उल्लास के समारोह का इतना सुंदर और विशद आयोजन इसके पूर्व कभी किसी ने नहीं देखा था। संपूर्ण कपि समुदाय आनंद विभोर हो गया। सबने प्राण प्रिय अंजना नंदन को आशीर्वाद प्रदान किया।