Wednesday, 23 September 2015

(1.1.6) Kabir ke Dohe / Dohe of Kabir (in Hindi) with meaning

Dohe of Kabir with Hindi meaning  कबीर के दोहे ( हिंदी अर्थ सहित )

कबीर के दोहे तथा साखियाँ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से जुड़े हुये हैं। कबीर जन कवि थे। उनका प्रत्येक दोहा जीवन दर्शन से भरा हुआ है।(For English Translation CLICK HERE )
(A) सज्जन और दुर्जन की प्रकृति :-
(1 )  काजल तजै  न श्यामता , मुक्ता तजै न स्वेत। 
दुर्जन तजै न कुटिलता ,सज्जन तजै न हेत।।
अर्थ :-  अपनी प्रकृति के अनुसार काजल कभी भी अपने कालेपन को नहीं त्यागता है , और मोती अपने सफेदपन को नहीं त्यागता है।  इसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति अपनी कुटिलता या दुष्टता को नहीं त्यागता है और सज्जन  व्यक्ति अपनी सज्जनता के कारण अपने प्रेम भाव का त्याग नहीं करता है।
शिक्षा - अच्छी हो या बुरी , आदत तथा  स्वाभाव  तुरंत नहीं छूटते हैं। 
(2)  दुर्जन की करुणा बुरी , भलो सज्जन को त्रास। 
सूरज जब गरमी करै , तब बरसन की आस।।
अर्थ :- दुर्जन अथवा दुष्ट व्यक्ति की दया भी बुरी होती है ( क्योंकि वह सन्देह पूर्ण स्वार्थ से प्रेरित होती है ) जबकि सज्जन व्यक्ति का दिया हुआ दुःख और कष्ट भी भलाई करने वाला होता है ( क्योंकि उसमें निष्कपटता का भाव होता है ) जैसे - जब सूर्य की गर्मी तेज होती है तो सबको कष्ट तो होता है परन्तु ,तब उससे जल बरसने की आशा भी होती है। ( अतः दुर्जन की दया की तुलना में सज्जन का दुःख ज्यादा भलाई किये हुए होता है )
(3 ) कछु कहि नीच न छेड़िये , भलो न वाको संग। 
पत्थर डारे कीच में ,उछलि बिगाड़े अंग।। 
अर्थ :- किसी दुर्जन या दुष्ट व्यक्ति को कुछ भी कहकर कभी मत छेड़ो , उसकी संगति में भी कोई भलाई नहीं होती है।  जिस प्रकार कीचड में पत्थर डालने से पत्थर फेकने वाले का ही ( छींटे उछलने से) शरीर गन्दा होता है, उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति से व्यवहार रखने पर व्यवहार रखने वाले का ही बुरा होता है।
(4 ) जो जाको गुन  जानता , सो ताको गुन  लेत। 
कोयल आमहि खात है , काग लिंबोरी लेत।। 
अर्थ :- जिसका जैसा स्वभाव होता है वह वैसा ही गुण ले लेता है।  जैसे - कोयल अपने मधुर स्वाभाव के कारण गुण को जानते हुए स्वादयुक्त मीठा आम खाती है , और कौआ कुटिल होने से नीम की कड़वी निम्बोली खाता है। इसी प्रकार सज्जन सदगुण रुपी मीठी बात को और दुर्जन दुर्गुण रुपी कड़वी बात को करते हैं।
(B) संतोषी सदा सुखी 
(1) आधी औ रूखी भली, सारी सोग संताप। 
जो चाहेगा चूपड़ी , बहुत करेगा पाप।। 
अर्थ :- अपनी मेहनत की कमाई से जो भी कुछ मिले , वह आधी और सूखी रोटी ही  बहुत अच्छी है। यदि तू घी चुपड़ी रोटी चाहेगा तो सम्भव है तुम्हे पाप करना पड़े।
(२) माखी गुड में गडि रही , पंख रही लपटाय।  
तारी पीटै सिर धुनें , लालच बुरी बलाय।।
अर्थ :-  अच्छा स्वाद पाकर मक्खी गुड में फँस जाती है ,उसके पंख भी गुड में चिपक जाते हैं। अब वह पछताती हुई अपने हाथ रगड़ती है और सर पीटती है , परन्तु उसमें से निकल नहीं पाती है। वास्तव में लालच बहुत बुरी बला है।
(३) रूखा सूखा खाय के , ठंडा पानी पीव। 
देखि पराई चूपड़ी , मत ललचावै जीव।। 
अर्थ :- जो कुछ भी तुम्हे तुम्हारे प्रयास और प्रारब्ध से प्राप्त हो जाये , उस रूखे - सूखे को खाकर और ठंडा पानी पीकर संतोष करो। किसी और की चुपड़ी रोटी देख कर अपने मन को मत ललचाओ।
शिक्षा - अपने पास जो भी कुछ है , उसी से संतुष्ट रहो।  संतोष ही सुख है।   
(C) तृष्णा -
(१) बहुत पसारा जनि करै , कर तोड़े  थोड़े की आस।  
बहुत पसारा जिन किया, तेई गए निरास। 
अर्थ:- इस संसार में किसी भी व्यक्ति बहुत अधिक प्राप्त करने  का  लालच  नहीं करनी चाहिए, बल्कि बहुत थोड़े की आशा करनी चाहिए।  लोगों ने भी बहुत अधिक पाने का लालच किया है , उनको निराशा ही  है।
शिक्षा :- तृष्णा दुःख और निराशा का कारण है। 
(२) आसन मारे कइ  भयो , मरी न मन की आस। 
तेली केरे  बैल ज्यौं , घर ही कोस पचास। 
अर्थ :- यदि किसी व्यक्ति के मन की तृष्णा नहीं मिटी हो तो , उसके आसन लगा कर पूजा पाठ, ध्यान आदि  करने से ,उसको  कोई लाभ नहीं मिल सकता , उसका पूजा पाठकरना  उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे तेली के बैल का घर में ही चक्कर लगा कर पचास कोस की दूरी तय कर लेना, क्योंकि वह बैल पचास कोस चल कर भी वहीं  का वहीं  रहता है।      
(D) नमन - नमन का अंतर 
नमन - नमन बहु अंतरा , नमन-नमन बहु बान।  
ये तीनों बहुत नवै , चीता चोर कमान। 
अर्थ :- नमन -नमन में बहुत अंतर होता है , जैसे निष्कपट भाव से नमन करने  और दूसरा कपट भाव से नमन करने में अंतर होता है। चीता, चोर और धनुष बहुत झुकते हैं, परन्तु उनके झुकने में कुटिलता होती है।  चीता शिकार को मारने के लिए , चोर चोरी करने के लिए और धनुष किसी का प्राण लेने के लिए झुकता है।
शिक्षा :- कपटी और सज्जन के झुकने के अंतर को समझने में सावधानी रखनी चाहिए अन्यथा धोखा हो सकता है। 
(E) कहाँ नहीं जाना चाहिये 
कबीर तहाँ न जाइये , जहाँ कपट का हेत। 
जानो कली अनार की , तन राता मन सेत।। 
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ प्रेम में कपट हो ( अर्थात जिस व्यक्ति के मन में कपट का भाव हो और प्रेम केवल दिखावा हो ), वहाँ मनुष्य को नहीं जाना चाहिये।  क्योंकि उस प्रकार के प्रेम का प्रदर्शन ठीक वैसा ही होता है जैसे अनार की कली , जिसका ऊपरी भाग तो लाल दिखता है लेकिन भीतर से सफ़ेद होती है।  ठीक उसी प्रकार कपटी व्यक्तियों के चेहरे पर प्रेम की लालिमा होती है परन्तु उनके मन कपट की सफेदी होती है।
शिक्षा :- दोहरे चरित्र वाले व्यक्ति से व्यवहार और सम्पर्क करने में सावधानी रखनी चहिये। 
(F)ज्ञानी - अज्ञानी की सोच का अन्तर 
देह धार का दण्ड है, सब काहू को होय। 
ज्ञानी भुगते ज्ञान करि , अज्ञानी भुगते रोय।।
अर्थ :- देह (शरीर) धारण करने के कारण (प्रारब्ध के अनुसार) दुःख या कष्ट भोगना निश्चित है, जिसे प्रत्येक प्राणी भुगतना ही होता है। उस दुःख भोग को ज्ञानी तो ज्ञान पूर्वक (संतोष और सहज भाव से) भोगता है, और अज्ञानी रोते हुए भोगता है।
शिक्षा :-  घटना अच्छी हो बुरी, उसे सहज भाव से लेना ही बुद्धिमानी है।  
(G)संपत्ति और विपत्ति 
संपति देख न हरशिये, विपति देखि मत रोय। 
संपति है तहां विपति है,करता करे सो होय।।
अर्थ:- प्राप्त हुई सम्पत्ति को देख कर बहुत अधिक हर्षित नहीं होना चाहिए , और न ही आई हुई विपत्ति को देख कर दुःखी होना चाहिए। जहाँ सम्पत्ति है वहाँ विपत्ति का होना भी स्वाभाविक है अर्थात जैसे सुख आता है वैसे ही दुःख का आना भी निश्चित है। यह सब प्रारब्ध की बात है, जैसा ईश्वर करता है, वही होता है।   
शिक्षा :- सुख -दुःख , लाभ - हानि , अच्छा -बुरा, ये सब जीवन में आते रहते हैं। इन्हें सहज और सम भाव से लेना चाहिए , यही बुद्धिमानी है।