Friday 20 November 2015

(1.1.10) चाणक्य नीति Chankya Niti / Teachings of Chankya

 Chanakya Niti (selected Shloks)चाणक्य नीति (चुने हुए श्लोक )
अध्याय -1 श्लोक -12
बीमारी में ,विपत्तिकाल में , अकाल   के समय ,दुश्मनो से दुःख पाने या आक्रमण होने पर , राजदरबार में और श्मशान भूमि में जो साथ रहता है. ,वही सच्चा भाई अथवा बंधु है।

अध्याय -1 श्लोक -13
जो अपने निश्चित कर्मो  अथवा वस्तु का त्याग करके , अनिश्चित की चिंता करता है ,उसका अनिश्चित लक्ष्य तो नष्ट होता ही है , निश्चित भी नष्ट हो जाता है।
अध्याय-2-श्लोक-5:-
जो मित्र प्रत्यक्ष रूप से मधुर वचन बोलता है और पीठ पीछे आपके सारे कार्यों में रोड़ा अटकाता हो ,ऐसे मित्र को उस  घड़े के समान त्याग देना चाहिए जिसके भीतर विष भरा हो और उपर मुँह के पास दूध भरा

अध्याय -2-श्लोक -9
हर एक पर्वत में मणि नहीं होती है और हर एक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होते हैं।इसी प्रकार साधु लोग सभी जगह नहीं  मिलते हैं,और हर एक वन में चन्दन के वृक्ष नही होते हैं।
अध्याय -3 श्लोक -1
संसार मे ऐसा कौन सा कुल अथवा वंश है ,जिसमें कोई न  कोई दोष अथवा अवगुण न हो ,प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी रोग का सामना करना ही पड़ता है ,ऐसा मनुष्य कौन सा है ,जिसने व्यसनों में पड़कर कष्ट न झेला हो और सदा सुखी रहने वाला व्यक्ति भी कठिनता से ही प्राप्त होता है ,क्योंकि प्रत्येक के जीवन में कभी न कभी कष्ट अथवा संकट उठाने का अवसर आ ही जाता है।
अध्याय - 3-श्लोक -4
दुष्ट व्यक्ति और सांप, इन दोनों में से किसी एक को चुनना हो तो दुष्ट व्यक्ति की अपेक्षा सांप को चुनना ठीक रहता है क्योंकि सांप समय आने पर ही काटता है जबकि दुष्ट व्यक्ति हर समय आपको हानि पहुँचाता है।
अध्याय -3-श्लोक-7
मूर्ख व्यकि से बचना चाहिए क्योंकि वह दो पैरों वाले जानवर से भिन्न नहीं है। वह (मूर्ख व्यक्ति )आपको शब्दों से उसी प्रकार पीड़ित करता है जैसे कोई बिना दिखने वाला कांटा चुभता है।
अध्याय -3-श्लोक-12
अत्यन्त रूपवती होने के कारण ही सीता का अपहरण हुआ ,अधिक अभिमान होने के कारण रावण मारा गया
अत्यधिक दान देने के कारण राजा बलि को कष्ट उठाना पड़ा।इसलिए चाणक्य कहते हैं की अति किसी भी कार्य में नहीं करनी चाहिए।
अध्याय -3-श्लोक-13
समर्थ को भार कैसा?व्यवसायी के लिए कोई स्थान दूर नहीं  है।विद्वान् व्यक्ति के लिए कोई भी देश विदेश नहीं है। जो व्यक्ति मधुर शब्द बोलता है उसके लिए कोई दुश्मन नहीं है।
अध्याय -3श्लोक -14
एक ही सुगन्धित फूल वाले वृक्ष से जिस प्रकार सारा वन सुगन्धित हो जाता है,उसी प्रकार एक सुपुत्र से सारा कुल सुशोभित हो जाता है।
अध्याय -3श्लोक -21
जहाँ मूर्खों का सम्मान नहीं होता है ,जहाँ अन्न भंडार सुरक्षित रहता है ,जहाँ पति -पत्नी में कभी झगड़ा नहीं होता ,वहां लक्ष्मी बिना बुलाये ही निवास करती है।
अध्याय -4-श्लोक -10
इस संसार में दुखी लोगों को तीन बातों से ही शांति प्राप्त हो सकती है -अच्छी सन्तान ,अच्छी पत्नी और भले लोगों की संगति।
अध्याय -4-श्लोक -18
बुद्धिमान व्यक्ति को बार -बार यह सोचना चाहिए कि उसके मित्र कितने हैं,उसका समय कैसा है -अच्छा है या बुरा है, और यदि बुरा है तो उसे अच्छा कैसे बनाया जाये।उसका निवास स्थान कैसा है,उसकी आय कितनी है ,वह कौन है ,उसकी शक्ति कितनी है अर्थात वह क्या करने में समर्थ है? व्यक्ति को ऐसा मनन करना चाहिए।
अध्याय -5-श्लोक-15
विदेश में विद्या ही मनुष्य की सच्ची मित्र होती है,घर में उसकी पत्नी उसकी मित्र होती है,दवाई रोगी व्यक्ति की मित्र होती है और मृत्यु के समय उसके सत्कर्म ही उसके मित्र होते हैं।
अध्याय -5श्लोक -17
बादल के जल के समान दूसरा कोई जल शुद्ध नहीं होता है,आत्मबल के समान दूसरा कोई बल नही है,नेत्र ज्योति के समान दूसरी कोई ज्योति नहीं है और अन्न के समान दूसरा कोई भी प्रिय पदार्थ नहीं है।
अध्याय -5-श्लोक -20
इस संसार में लक्ष्मी (धन )अस्थिर है अर्थात चलाय मान है,प्राण भी नाश वान है ,जीवन और यौवन भी नष्ट होने वाले हैं,इस चराचर संसार में धर्म ही स्थिर है।
अध्याय -6-श्लोक -16
काम छोटा हो या बड़ा हो ,उसे एक बार हाथ में लेने के बाद छोड़ना नहीं चाहिए।उसे पूरी लगन और सामर्थ्य के साथ पूरा करना चाहिए।जैसे सिंह पकड़े हुए शिकार को कदापि नहीं छोड़ता है।सिंह का यह गुण मनुष्य को सीखना चाहिए।
.अध्याय -6श्लोक -18
अत्यंत थक जाने पर भी बोझ को ढोना,ठंडे -गर्म का विचार न करना,सदा संतोष पूर्वक विचरण करना ,ये तीन बातें गधे से सीखनी चाहिए।
अध्याय -7-श्लोक -2
जो व्यक्ति धन धान्य के लेन देन  में, विद्या के सीखने में,भोजन के समय और अन्य व्यवहारों में संकोच नहीं करता है,वही व्यक्ति सुखी रहता है।
अघ्याय -7-श्लोक -4
अपनी पत्नी,भोजन और धन -इन तीनों के प्रति मनुष्य को संतोष रखना चाहिए ,परन्तु विद्या के अध्ययन ,तप और दान के प्रति कभी संतोष नहीं करना चाहिए।
अध्याय -8श्लोक -19
संसार में विद्वान् की ही प्रशंसा होती है ,विद्वान व्यक्ति ही सब जगह पूजे जाते हैं।विद्या से ही सब कुछ मिलता हैं ,विद्या की सब जगह पूजा होती है।
अध्याय -10-श्लोक -1
निर्धन व्यक्ति दीन हीन नहीं होता है यदि वह विद्वान् हो तो लेकिन व्यक्ति विद्या रूपी धन से हीन है तो वह निश्चित ही निर्धन समझा जाता है।अर्थात विद्या ही सच्चा  धन है।
अध्याय-10-श्लोक-2
भली प्रकार आँख से देखकर अगला कदम  रखना चाहिए,कपड़े से छानकर पानी पीना चाहिए ,शास्त्र के अनुसार कोई बात कहनी चाहिए और कोई भी कार्य मन में अच्छी प्रकार सोच कर करना चाहिए।
अध्याय -10-श्लोक -5
भाग्य की शक्ति बहुत प्रबल होती है।वह पल भर में ही निर्धन को राजा और राजा को निर्धन बना देती है।धनवान व्यक्ति निर्धन बन जाता है और  निर्धन के पास अनायास ही धन आ जाता है।
अध्याय -12-श्लोक-1
वही गृहस्थी सुखी  हो सकता है जिसके पुत्र और पुत्रियां प्रतिभावान हो ,जिसकी पत्नी मधुर वचन बोलने वाली हो,जिसके पास इच्छा पूर्ति के लायक धन हो, जिसके मन में अपनी पत्नी के प्रति प्रेम भाव हो ,जिसके सेवक आज्ञाकारी हो ,जिसके घर में अतिथि का सत्कार होता हो ,जहां प्रतिदिन इश्वर की पूजा होती हो ,जिस घर में स्वादिष्ट भोजन और ठंडा जल उपलब्ध रहता हो और जिस गृहस्थी को सदा भले लोगों की संगति मिलती हो।
इस प्रकार के घर का मालिक सुखी और सौभाग्यशाली होता  है।
अध्याय -12-श्लोक -3
वही व्यक्ति इस संसार में सुखी है जो अपने सम्बन्धियों के प्रति उदार है ,अपरिचितों के प्रति दयालु है ,दुष्टों के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है,भले लोगों के प्रति स्नेह पूर्ण व्यवहार रखता है,अकुलीन व्यक्ति के प्रति चतुराई का व्यवहार करता है,विद्वानों के प्रति सरलता से पेश आता है, दुश्मनों के साथ साहस का व्यवहार करता है ,बुजर्गो के प्रति विनम्रता का व्यवहार करता है, और जो महिला वर्ग के प्रति चतुराई का व्यवहार करता है। ऐसे लोगों से ही इस संसार की मर्यादा बनी हुई है।
अध्याय -13-श्लोक -6
भविष्य में आने वाली संभावित विपत्ति और वर्तमान में उपस्थित विपत्ति पर जो व्यक्ति तत्काल विचार करके उसका समाधान खोज लेते हैं,वे सदा सुखी रहते हैं।इस के अलावा जो व्यक्ति यह सोचते हैं  कि  जो भाग्य में लिखा है,वही होगा,ऐसा सोचकर कोई उपाय नहीं करते हैं,ऐसे व्यक्ति विनाश को प्राप्त होते हैं।
अध्याय -13-श्लोक -15
अव्यवस्थित कार्य करने वाले को न तो समाज में और न ही जंगल में सुख प्राप्त होता है,क्योंकि समाज में लोग उसे भला बुरा कहकर दुखी करते है और जंगल में अकेला होने के कार वह  दुखी होता है।
अध्याय -16-श्लोक -5
आज तक न तो सोने के मृग की रचना हुई और न ही किसी ने सोने का मृग देखा और सुना ।फिर भी श्री राम ने सोने के मृग को पाने की इच्छा की और मृग को पाने के लिए दौड़ पड़े।यह बात ठीक ही है कि जब मनुष्य के बुरे दिन आते हैं,तो उसकी बुद्धि विपरीत बातें सोचने लगती है।
अध्याय -16-श्लोक -6
मनुष्य अपने अच्छे गुणों के कारण श्रेष्ठता प्राप्त करता है।उसके उचें आसन पर बैठ जाने के कारण श्रेष्ठ नहीं  माना जाता है।राज भवन की सबसे ऊँची चोटी पर बैठ ने पर भी कौआ,गरुड़ कभी नही बन सकता।
अध्याय -16-श्लोक -8
जिस मनुष्य के गुणों की प्रशंसा दूसरे लोग करते हैं,तो वह मनुष्य गुणों से रहित होने पर भी गुणी मान लिया जाता है,परन्तु अपने मुख से अपनी बड़ाई करने पर इंद्र भी छोटा हो जाता है