Friday 20 November 2015

(1.1.11) Geeta ki Shiksha गीता की शिक्षा Teachings of Geeta / Geeta saar

Geeta kee Shiksha गीता की शिक्षा Teachings of Geeta

1. संदेह नकारात्मक भाव उत्पन्न करता है। जो व्यक्ति संशय रखता है , वह सुखी नहीं हो सकता है।
2. आत्मा अमर है। आत्मा न मारती है , न ही मारी जाती है।  (आत्मा न मरती है , न किसी को मारती है )
जिस प्रकार व्यक्ति पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र पहनता है , उसी प्रकार शरीर धारण की हुई आत्मा शरीररूपी पुराने वस्त्र को त्याग देती है और नया शरीर धारण कर लेती है।
यदि कोई व्यक्ति यह मानता है कि आत्मा जन्म लेती है और फिर मर जाती है तब भी उसे शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि जिसने जन्म लिया है , उसकी  मृत्यु निश्चित है। इसलिए हमें इस अपरिहार्य स्थिति पर शोक नहीं करना चाहिए।
(3) कार्य संसार को चलायमान रखता है , बिना कार्य किये नहीं रहा जा सकता है। हमारा निर्धारित कार्य करना हमारा कर्तव्य है , परन्तु साथ ही हमें इस किये गए कार्य के फल की आशा भी नहीं रखनी चाहिए क्योंकि किसी भी कार्य का फल हमारे अधीन नहीं है। साथ ही निर्धारित कर्म न करने की इच्छा रखना भी उचित नहीं है क्योंकि कर्म अपरिहार्य है।
(4) जिसका मन दुःख की स्थिति में भी क्षुब्ध नहीं होता है , जो प्रसन्नता की कामना नहीं करता है , जो आसक्ति , भय और क्रोध से मुक्त है , हर चीज़ से आसक्ति रहित है , जिसे अच्छाई और बुराई की स्थिति में न तो प्रसन्नता होती है और न ही अप्रसन्नता होती है , वह स्थिर बुद्धि वाला है।
(5) जो व्यक्ति कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है अर्थात जो कर्म और अकर्म के प्रति आसक्ति रहित है  वही बुद्धिमान है , और वह योगी सम्पूर्ण कर्मो को करने वाला  है।
(6) जो व्यक्ति जो कुछ भी प्राप्त हो , उससे संतुष्ट रहने वाला है , (और) जो इर्ष्या  रहित है , द्वंद्वो से मुक्त है , जो सफलता तथा असफलता में संतुलित है , कर्मों को करता हुआ भी उनसे बंधा हुआ नहीं है वही व्यक्ति सम्पूर्ण कर्म का वास्तव में कर्ता  है।
(7) जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की  आकांक्षा करता है , तथा न ही कार्य के फल की आशा करता है , वही हमेशा सन्यासी ( त्यागी ) समझने योग्य है , क्योंकि राग- द्वेष आदि द्वद्वों  से रहित हुआ पुरुष सुख पूर्वक संसार रूपी बंधन से मुक्त हो जाता है। 
(8) जो पुरुष न कभी हर्षित होता है , न द्वेष करता है , न शोक  करता है , न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल के प्रति उदासीन है ( फल को त्यागता है ) वही भक्ति युक्त पुरुष ईश्वर को प्रिय है।
(9) जो पुरुष शत्रु व् मित्र के प्रति समान भाव रखता है , जो मान व अपमान को समान समझता है , जो सर्दी-गर्मी , प्रसन्नता-अप्रसन्नता में संतुलित रहता है , जो आसक्ति रहित है , वह व्यक्ति जो निंदा-स्तुति को समान समझता है , जो बोलने से पूर्व मननशील है , स्वतः प्राप्त वस्तुओं से संतुष्ट रहता है , जो रहने के स्थान और जीवन के प्रति आसक्ति नहीं रखता है , अपने निश्चय में द्रढ़ रहता है , भक्ति युक्त कार्यों में लगा रहता है  , ऐसा व्यक्ति ईश्वर  को अति प्रिय है।
(10) बुद्धिमान ( गुणातीत ) पुरुष वह है जो सभी स्थितियों में समान रहता है और समभाव रखता है। यदि उसके सामने विपदा भी आती है तो वह हतोत्साहित नहीं होता है और यदि वह सम्पन्नता को प्राप्त करले तो भी गर्वित नहीं होता है। वह प्रिय और अप्रिय के प्रति समभाव रखता है। वह किसी भी कार्य के कर्तापन की भावना से मुक्त रहता है , ऐसा व्यक्ति कामना रहित होता है अतः उसे कुछ भी बाधित नहीं कर सकता है।
(11) जहाँ जहाँ भी कृष्ण ( विशुद्ध बुद्धि के प्रतीक ) और अर्जुन  (विशुद्ध कर्म का प्रतीक ) हैं , वहीं पर ही सम्पन्नता , श्रेष्टता , विजय , शक्ति और नीति (धर्म) है।
(12) जब जब और जहाँ जहाँ धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है , तब तब ईश्वर  धरती पर धर्म की पुनः स्थापना  करने के लिए अवतार लेते हैं।
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