Sunday 28 May 2023

(9.1.2) Shringi Rishi Ke Janm Ki Katha

Shringi Rishi Ke Janm Ki Kahani / Shringi Rishi Ki Mata Kaun Thi / श्रृंगी ऋषि की  माता एक हिरणी थी
श्रृंगी ऋषि के जन्म की कहानी

महाभारत के वन पर्व के अध्याय 110 के श्लोक 30 से 40 तक के अनुसार किसी प्रसंग में लोमश ऋषि ने  युधिष्ठिर से कहा कि देवताओं की नदी पुण्य सलिला कौशिकी के पास ऋषि विश्वामित्र का रमणीक आश्रम था। यहीं पर कश्यप गोत्रीय महात्मा विभाण्डक का पुण्य नामक आश्रम था। इन्हीं विभाण्डक ऋषि के जितेन्द्रिय एवं तपस्वी पुत्र थे जिनका नाम था ऋष्य श्रृंग। उनका यानि ऋष्य श्रृंग का जन्म एक मृगी अर्थात हिरणी के गर्भ से हुआ था।
इस पर युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा कि विभाण्डक के पुत्र ऋष्य श्रृंग का जन्म मृगी (हिरणी ) के गर्भ से होने की कहानी क्या है? कृपा करके वह कहानी मुझे सुनाओ।  इस प्रश्न के उत्तर में लोमश ऋषि ने कहा कि  विभाण्डक का अन्तःकरण तपस्या से पवित्र हो गया था।  वे प्रजापति के समान तेजस्वी और अमोघ तेज वाले थे।  एक समय वे एक बड़े कुण्ड (सरोवर)  में प्रविष्ट होकर तपस्या करने लगे।  उन्होंने दीर्घकाल तक महान कष्ट सहन किया।  एक दिन जब वे सरोवर में स्नान कर रहे थे, तो उस समय उन्होंने उनके सामने उर्वशी नामक अप्सरा देखी।  उसके कामुक रूप को देख कर विभाण्डक ऋषि का तेज जल में स्खलित हो गया।  उसी समय प्यास से व्याकुल हुई एक हिरणी  वहाँ आयी और पानी के साथ उस तेज को पी लिया।  इसके कारण वह गर्भवती हो गयी।  वास्तव में वह हिरणी पूर्व में एक देवकन्या थी।  लोकसृष्टा भगवान् ब्रह्मा ने उसे यह वचन दिया था कि तू हिरणी होकर एक  मुनि को जन्म देने के पश्चात् हिरणी की योनि से मुक्त हो जायेगी और फिर देवकन्या हो जायेगी।
ब्रह्मा जी की वाणी अमोघ है और विधि के विधान को कोई टाल नहीं सकता है, इसलिए विभाण्डक के पुत्र महर्षि ऋष्य श्रृंग का जन्म हिरणी के गर्भ से हुआ। जन्म के समय ही उनके सिर  पर सींग की तरह का एक उभार था।  सींग के लिए श्रृंग शब्द प्रयुक्त होता है , इसलिए उनका नाम ऋष्य श्रृंग हुआ।
लोमश ऋषि की बात सुनकर जिज्ञासा वश युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा कि विभाण्डक के पुत्र श्रृंगी ऋषि का जन्म हिरणी से कैसे हुआ ? यह तो प्रकृति के विरुद्ध लगता है। हिरणी के गर्भ से मनुष्य का जन्म कैसे हो सकता है ?
युधिष्ठिर का संशय दूर करने के लिए लोमश ऋषि ने इसके तीन कारण बताये।  उन्होंने कहा कि ऋषि का अमोघ तेज ही उसका पहला कारण है। विधाता की गति उसका दूसरा कारण है क्योंकि देव कार्यों की सिद्धि के लिये ऋषि को निमित्त बनाना अनिवार्य था और तीसरा कारण था दैव निर्मित होनहार। 
निष्कर्ष के रूप में इसे यों भी समझ सकते हैं कि उस काल में धर्मसत्ता व तपोबल के प्रभाव से इस प्रकार की अनहोनी घटनाएं सामान्य बात थी और ऐसी घटनाओं के पीछे कोई न कोई दिव्य उद्देश्य हुआ करता था।