Tuesday 10 March 2015

(3.1.9) Gayatri Matra Jap Vidhi in Hindi / Gayatri Puja

Gayatri Mantra Jap Process  गायत्री मंत्र के जप की क्रियाएं


गायत्री मन्त्र का दैनिक जप साधना संध्या वंदन के बाद की जाती है। शास्त्रों में त्रिकाल संध्या करने का विधान मिलता है, प्रातःकाल, दोपहर व सांयकाल। परन्तु तीनों समय न की जाए तो कम से कम प्रातःकाल तो करनी ही चाहिए। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर शौच स्नान आदि से निवृत्त होकर धुले हुए वस्त्र धारण करके साधना पर बैठना चाहिए। गायत्री का सविता से सम्बन्ध है अतः जिधर सूर्य हो उधर ही मुँह करके साधना करनी चाहिए। प्रातः पूर्व की ओर, दोपहर में उत्तर की ओर तथा सांयकाल पश्चिम की ओर मुँह करके साधना करनी चाहिए। आसन कुश या ऊन का हो। गायत्री मन्त्र के जप के लिए स्थान एकांत व शांत हो। ऋतु के अनुसार व शरीर की आवश्यकता के अनुसार वस्त्र धारण किये जा सकते हैं । कमर सीधी करके बैठे। आसन पर बैठकर अपने शरीर और मन को  पवित्र बनाने के लिए पांच कृत्य किये जाते हैं:-     1. पवित्रीकरण   2. आचमन    3. शिखाबंधन   4. प्राणायाम   5. न्यास
1. पवित्रीकरण:- पानी से भरे पात्र में से चम्मच के द्वारा बाएं हाथ में जल ले ले तथा उसे दाहिने हाथ से ढक लें। निम्नांकित मन्त्र का उच्चारण करें और उस जल को अपने सिर तथा शरीर पर छिड़क लें। मन्त्र इस प्रकार है:-
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोSपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरिकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:।।
ॐ पुनातु पुण्डरिकाक्ष: पुनातु पुण्डरिकाक्ष: पुनातु।
इस जल को अपने सिर  व शरीर पर छिड़कते समय यह भावना करें कि हमारे द्वारा शुद्ध भाव से किये गए आव्हान के द्वारा दिव्य सत्ता हम पर पवित्रता की वृष्टि कर रही है तथा हम उसे धारण कर रहें हैं। हम मन, कर्म और वचन से पवित्र होते जा रहें हैं।
2. आचमन:-  जल से भरे पात्र में से दाहिने  हाथ की हथेली में चम्मच से जल लेकर उसका तीन बार पान करें। प्रत्येक पान के साथ निम्नांकित मन्त्र का एक बार उच्चारण करें:-
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।।
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ।।
ॐ  सत्यं यशः श्रीर्मायि, श्री: श्रयतां स्वाहा ।।
3. शिखा बंधन:- गायत्री मन्त्र का उच्चारण करके शिखा में गाँठ लगावें। जिनके शिखा नहीं है ऐसे पुरुष  व महिलाएं भीगे हाथ से उस स्थान का स्पर्श कर लें। स्पर्श करते समय यह भावना करें कि मष्तिष्क के विद्युत  भण्डार में से विचार, संकल्प व शक्ति के परमाणु बहार निकलकर आकाश में विलीन होते हैं उन  पर रोक लग गयी है। साधना के समय जो शक्ति व सद् विचार उपार्जित होंगे वो सुरक्षित रहेंगे, उनका आकाशी करण नहीं  होगा।
4. प्राणायाम:- प्राणायाम क्रिया के द्वारा विश्वव्यापी प्राणतत्व को अपने अन्दर धारण किया जाता है तथा कमजोरियों, आसुरी शक्तियों, व्याधियों  को शरीर से बाहर निकाला जाता है। इस क्रिया के चार भाग हैं:-
1. पूरक   2. अंतर्कुम्भक   3. रेचक   4. बाह्य  कुम्भक
1. पूरक:- इसमें वायु को भीतर खींचा  जाता है और वायु को भीतर  खींचते समय "ॐ भू: भुवः स्वः" का मानसिक उच्चारण करना चाहिए और भावना करनी चाहिए कि वायु के साथ विश्वव्यापी चैतन्य प्राण शक्ति मेरे भीतर प्रविष्ठ  हो रही है। देवी गायत्री की कृपा से दिव्य शक्ति और श्रेष्ठता मेरे रोम रोम में प्रवेश करके उसमे रम रही है। वायु को धीरे-धीरे खींचना चाहिए।
2. अंतर्कुम्भक:- इसमें वायु को यथाशक्ति अपने भीतर रोका जाता है। अंतर्कुम्भक में "तत्सवितुर्वरेण्यम" का मानसिक उच्चारण करते रहना चाहिए और यह भावना करनी चाहिए की गायत्री की कृपा से तेजस्वी प्राणशक्ति को खींचने से चारों ओर शक्ति का संचार हो रहा है और मैं शक्तिपुंज बनता जा रहा हूँ।
3. रेचक:- इसमें रोकी गयी वायु को बाहर निकाला जाता है। रेचक में "भर्गो देवस्य धीमहि" का जप करते हुए यह भावना करनी चाहिए कि सतोगुणी शक्तियों के आगमन से मेरे पापों, बुराइयों व व्याधियों का विनाश होता जा रहा है और वायु के साथ ये बाहर निकलते जा रहें हैं।
4. बाह्य कुम्भक:- इसमें वायु को बाहर रोका जाता है। बाह्य कुम्भक में "धियो यो न: प्रचोदयात्" का मानसिक उच्चारण करते हुए यह भावना करनी चाहिए कि सम्पूर्ण बुराइयों, व्याधियों के विनाश से मेरा शरीर पवित्र हो गया है। में शक्तिपुंज बन गया हूँ।
यह एक प्राणायाम की विधि है। संध्या में कम से कम पांच प्राणायाम करने चाहिए। पूरक व रेचक का समय   बराबर होता है यानि जितना समय वायु खीचने में लगाया जाता है उतना ही वायु को बाहर निकालने में लगाना चाहिए। अंतर्कुम्भक और बाह्यकुम्भक का समय सामान होना चाहिए। अर्थात् वायु को भीतर व बाहर रोकने का समय भी सामान होना चाहिए।
5. न्यास:- न्यास का अर्थ है धारण करना। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में गायत्री की सतोगुणी शक्ति धारण करने के लिए न्यास किया जाता है।
अंगूठा और अनामिका अंगुली को मिलाकर नीचे लिखे मन्त्र भाग को बोलकर शरीर के अंगो का स्पर्श इस भावना के साथ करना चाहिए कि मेरा यह अंग गायत्री शक्ति से पवित्र व बलवान हो रहा है:-
     1. ॐ भू: भूः स्वः -  मूर्धाय नमः             -  मष्तिष्क को।
     2. तत्सवितु:       - नेत्राभ्याम नमः         -  नेत्रों को।
     3. वरेण्यम्          - कर्णाभ्याम् नमः        -  कानो को।
     4. भर्गो              - मुखाय नम:              -  मुख को।
     5. देवस्य            - कंठाय नमः              -  कंठ को।
     6. धीमहि           - हृदयाय नमः             -  ह्रदय को।
     7. धियो यो न:     - नाभ्यैनमः                -  नाभि को।
     8. प्रचोदयात्       - हस्त-पादाभ्यां  नमः   -  हाथ पैरों को।
देवी पूजन:- देवी गायत्री के चित्र को सामने रखकर यह भावना करें कि देवी गायत्री की शक्ति यहाँ अवतरित होकर स्थापित हो रही है।
इसके पश्चात मानसिक रूप से यह ध्यान करें किमैं  देवी गायत्री को जल, अक्षत, धूप, नेवैध्य अर्पित कर रहा हूँ और देवी गायत्री इन्हें ग्रहण कर रही है।
ध्यान:- निम्नांकित भावनाओ के साथ देवी गायत्री का मन में ध्यान करना चाहिए-
देवी गायत्री का श्री विग्रह जपा कुसुम के समान प्रतिभा से संपन्न होकर आभास दे रहा है।
वे कुमारी अवस्था में विराजमान है। लाल चन्दन से अनुलिप्त होकर रक्त कमल आसान पर आसीन है। इनकी माला भी लाल वर्ण की है। ये देवी लाल रंग के वस्त्र पहने हुए है। इन्होने जप माला और कमंडल धारण कर रखा है। ये भगवती ऋग्वेद का अध्ययन कर रही है। हंस इनका वाहन है। ब्रह्माजी इनकी उपासना करते है। ऐसी देवी गायत्री का में स्मरण करता हूँ और उनको प्रणाम करता हूँ।
मंत्र जप:- ध्यान के बाद गायत्री मन्त्र का जप इस प्रकार किया जाए कि होंठ, कंठ, जीभ आदि तो चले परन्तु शब्द सुनाई  न पड़े। जप के समय यह भावना करनी चाहिए कि मन्त्र शक्ति की तरंगे सारे शरीर संस्थान में फ़ैल रही हैं। उन दिव्य तरंगो से शरीर, मन एवं अंतःकरण निरोग, पुष्ट, शुद्ध, पवित्र एवं विकसित हो रहा है।
गायत्री मन्त्र:-
ॐ भूर्भुव: स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात !!
प्रतिदिन  गायत्री मन्त्र की पांच माला का नियमित रूप से जप किया जाए और पांच नहीं तो कम से कम एक माला का जप तो प्रतिदिन किया जाना चाहिए। 
क्षमा प्रार्थना:- जप के पश्चात साधना में हुई त्रुटियों के लिए निम्नांकित प्रकार से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए:-
हे देवी गायत्री ! अज्ञान अथवा प्रमाद से या साधन की कमी से मेरे द्वारा जप करते समय न्यूनता या अधिकता का दोष बन गया हो उसे आप क्षमा करें। मैंने जो द्रव्यहीन, क्रियाहीन तथा मन्त्रहीन यदि कोई कर्म किया है उसे आप कृपापूर्वक क्षमा करें। आप सभी प्रकार के अपराधों को क्षमा करने में सक्षम है। मैं आपकी शरण में हूँ अतः करुणा पूर्वक मेरी त्रुटी को क्षमा करें।