Wednesday 26 July 2023

(6.5.6) गजेन्द्र मोक्ष कथा Gajendra Moksh Ki Katha / Story Of Gajendra Moksh/ Gajendra Moksh

गजेन्द्र मोक्ष कथा Gajendra Moksh Ki Katha / Story Of Gajendra Moksh/  Gajendra Moksh

गजेन्द्र मोक्ष कथा

श्री मद्भागवत पुराण के अनुसार क्षीर सागर में दस सहस्त्र योजन लम्बा – चौड़ा त्रिकूट नामक श्रेष्ठ और अत्यंत सुन्दर पर्वत था. उस पर्वत के गहन वन में हथनियों के साथ अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी गजेन्द्र यानि हाथी रहता था.

एक बार की बात है गजेन्द्र अपने साथियों के साथ वन में विचरण कर रहा था. तभी वह प्यास की तीव्रता से व्याकुल हो गया. वह कमल की गंध से सुगन्धित वायु को सूंघ कर एक सुन्दर और आकर्षक तथा विशाल सरोवर के तट पर जा पहुँचा और सरोवर में प्रवेश करके ठण्डे और मीठे जल से अपनी प्यास बुझाई. फिर जल क्रीड़ा प्रारम्भ कर दी. तभी अचानक सरोवर में रहने वाले एक ग्राह यानि मगरमच्छ ने गजेन्द्र का पैर पकड़ लिया और उसे खींचकर गहरे पानी में ले जाने लगा. गजेन्द्र ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपना पैर छुड़ाने का प्रयास किया, लेकिन वह असफल रहा. उसके साथियों ने भी उसे मगर से मुक्त कराने का प्रयास किया परन्तु वे भी असफल रहे. असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए. वह पूर्णतया निराश हो गया. लेकिन पूर्व जन्म में निरंतर की गयी ईश्वर आराधना के फलस्वरूप उसे भगवत्स्मृति हो आयी और वह मन को एकाग्र करके पूर्व जन्म में सीखे गये श्रेष्ठ स्तोत्र द्वारा प्रभु की स्तुति करने लगा. गजेन्द्र की स्तुति सुन कर भगवान् विष्णु गरुड़ पर आरूढ़ होकर उसके पास पहुँचे. उन्होंने गजेन्द्र के साथ ग्राह को भी सरोवर से बाहर खींचा और सुदर्शन चक्र से ग्राह यानि मगर मच्छ का मुँह फाड़ कर उसके चंगुल से गजेन्द्र को मुक्त करा दिया और उसके प्राणों की रक्षा की.

जब शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को यह कथा सुनाई तो राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से पूछा कि हे महाराज, वह गजेन्द्र कौन था जिसकी पुकार सुनकर भगवान् ने स्वयं आकर उसके प्राण बचाए. तब शुकदेवजी ने कहा कि पूर्व जन्म में गजेन्द्र का नाम इन्द्रद्युम्न था और वह द्रविड़ देश का राजा था. वह अपना अधिकतर समय भगवान् विष्णु की आराधना – उपासना में ही व्यतीत करता था. उसने मलय पर्वत पर अपना आश्रम बना लिया. एक समय की बात है वह प्रतिदिन की तरह ही स्नान आदि से निवृत्त होकर प्रभु की आराधना में तल्लीन था. संयोग वश उसी समय ऋषि अगस्त्य अपने शिष्यों के साथ वहां पहुँच गए. राजा का नियम था कि जबतक वह पूजा करता था, किसी से कुछ नहीं बोलता था. इसलिए उसने अगस्त्य ऋषि को प्रणाम आदि नहीं किया. इससे ऋषि कुपित हो गए और राजा इन्द्रद्युम्न को शाप दे दिया कि तू ऋषियों का अपमान करता है, तू हाथी के समान जड़ बुद्धि है अतः तुझे हाथी की योनि प्राप्त हो.

ऋषि अगस्त्य भगवद्भक्त राजा इन्द्रद्युम्न को शाप देकर चले गए. इन्द्रद्युम्न ने इस शाप को मंगलमय विधान समझा और प्रभु के चरणों में अपना सिर रख दिया. शाप के कारण दूसरे जन्म में उसे हाथी की योनि प्राप्त हुई.

और जो ग्राह था वह अपने पूर्व जन्म में हूहू नाम का एक गन्धर्व था. एक बार देवल नामक ऋषि जलाशय में स्नान कर रहे थे, तभी इस हूहू गन्धर्व ने जलाशय में जाकर देवल ऋषि के पैर को पकड़ा और जोर जोर से ‘मगर, मगर’ कहकर चिल्लाने लगा. इस तरह के अनुचित आचरण से ऋषि क्रोधित हो गए और हूहू से कहा कि तुम्हें संत महात्माओं का आदर करना चाहिए इसके विपरीत तुम उनके साथ उपहास कर रहे हो और मगर की तरह आकर मेरा पैर पकड़ रहे हो. यदि तुझे मगर बनने का इतना ही शौक है तो, तुझे अगले जन्म में मगर की योनि प्राप्त होगी. ऐसा कहकर उन्होंने हूहू को अगले जन्म में मगरमच्छ होने का शाप दे दिया. तब गन्धर्व ने ऋषि से क्षमा याचना की तो, ऋषि ने कहा कि तुझे मगर की योनि तो प्राप्त होगी परन्तु तेरा उद्धार भगवान् के हाथ से होगा.

इसी ग्राहरूपी हूहू गन्धर्व का उद्धार भगवान् के द्वारा हुआ. भगवान् विष्णु के मंगलमय हाथों के स्पर्श के कारण पाप से मुक्ति पाकर वह अपने लोक में चला गया.