Dasha Mata Vrat tatha Pooja Vidhi दशा माता व्रत तथा पूजा
चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की दसमी को दशा माता का पूजन एवं व्रत किया जाता है। होली के अगले दिन से ही इसका पूजा प्रारम्भ हो जाता है, जो दसवें दिन समाप्त होता है। प्रतिदिन प्रात: स्त्रियां स्नानादि करके पूजन की सामग्री लेकर पूजन करती है। सर्व प्रथम साठिया या स्वस्तिक का चिन्ह बनाया जाता है। इसे दीवार पर ही बनाया जाता है। इसे गणपति या गणेश का प्रतीक माना जाता है। इसे मेहँदी या कुमकुम से बनाया जाता है। इसके पास ही मेहंदी या कुमकुम से दस बिंदियाँ बनाई जाती जो दशा माता की प्रतीक हैं।
स्वस्तिक तथा इन दस बिंदियों की रोली, मौली, चावल, सुपारी, धूप, दीपक, नैवैध्य से पूजन किया जाता है।
पूजन के बाद प्रतिदिन कथा कहने तथा सुनने का विधान है। पहले दिन दशा माता की दस कथाएं कही जाती है। दूसरे दिन से नवें दिन तक सात कथाएं कही जाती है।और अंतिम दसवें दिन फिर से दस कथायें , कही जाती हैं। इस दिन (दसमी ) को एक समय भोजन करके व्रत रखने का विधान है।
दशा माता व्रत का महत्त्व :-
दशा माता का व्रत तथा पूजन प्रत्येक स्त्री -विधवा - सुहागिन सबको करनी चाहिए क्योंकि यह पूजन एवं व्रत घर की दशा (स्थिति ) को सुखी समृद्ध रखने के लिए किया जाता है।
दशा माता का व्रत तथा पूजन प्रत्येक स्त्री -विधवा - सुहागिन सबको करनी चाहिए क्योंकि यह पूजन एवं व्रत घर की दशा (स्थिति ) को सुखी समृद्ध रखने के लिए किया जाता है।
दशा माता की बेल :-
इस पूजन में विशेष बात यह कि एक धागे को हल्दी में रंग कर उसके दस गांठे लगाई जाती है जिसे दशा माता की बेल कहा जाता है। पूजन करते समय इस बेल को दशा माता के चढ़ाया जाता है तथा पूजा के बाद पिछले वर्ष पहनी गई बेल को खोल दिया जाता है तथा इस नई बेल को गले में धारण किया जाता है। इसी प्रकार इस वर्ष धारण की हुई बेल को अगले वर्ष उतार कर, पूजा करके नयी बेल धारण की जाती है।
इस पूजन में विशेष बात यह कि एक धागे को हल्दी में रंग कर उसके दस गांठे लगाई जाती है जिसे दशा माता की बेल कहा जाता है। पूजन करते समय इस बेल को दशा माता के चढ़ाया जाता है तथा पूजा के बाद पिछले वर्ष पहनी गई बेल को खोल दिया जाता है तथा इस नई बेल को गले में धारण किया जाता है। इसी प्रकार इस वर्ष धारण की हुई बेल को अगले वर्ष उतार कर, पूजा करके नयी बेल धारण की जाती है।